एक तरफ 2018 में देश की अर्थव्यवस्था विश्व के समृद्ध देशों को पीछे छोड़ने की तरफ बढ़ती दिखाई दे रही है जिसके प्रारंभिक संकेत शेयर बाजार में आ रही उछाल के तौर पर सामने आ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ देश के विभिन्न हिस्सों से आ रही खबरों के मुताबिक उप्र में आलू तो कर्नाटक में टमाटर पैदा करने वाला किसान खून के आंसू बहाने मजबूर है । गुजरात के मूंगफली उत्पादक भी फसल के पर्याप्त दाम नहीं मिलने से परेशान हैं । मप्र में प्याज उगाने वाले किसानों का हिंसक आंदोलन अभी भी कड़वी यादों के रूप में बरकरार है तो दाल के बढ़े हुए उत्पादन ने भी किसानों की मुसीबत बढ़ा दी । सरकार चाहे केंद्र की ही या राज्य की वह न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित तो कर देती है किंतु सरकारी अमले की लापरवाही और भ्रष्टाचार के कारण न तो सरकारी एजेंसियां ठीक से खरीदी करती हैं और न ही किसान को समय पर भुगतान होता है । एक तरफ तो सरकार और उसके कृषि विभाग द्वारा किसानों को पैदावार बढ़ाने हेतु प्रोत्साहित किया जाता है । उन्हें उन्नत तकनीक, बीज , खाद आदि देकर अधिकाधिक उत्पादन के जरिये ज्यादा कमाने का प्रलोभन दिया जाता है लेकिन उत्पादन बढ़ने के बाद किसान की बिगड़ती आर्थिक स्थिति अर्थव्यस्था में आ रहे सुधारों की सत्यता को सवालों के घेरे में खड़ा कर देती है । आलू , प्याज , टमाटर, दाल , कपास सहित अन्य कृषि उत्पादनों के दाम जिस तरह से ऊपर नीचे होते रहते हैं उससे किसान और जनता दोनों परेशान हैं । बाज़ारवादी व्यवस्था के दुष्प्रभाव के रुप में किसान को कम दाम और उपभोक्ता की जेब काटने का उपक्रम एक साथ चला करता है । इस पूरे खेल में बिचौलिए और सरकारी अफसर किस तरह मालामाल होते हैं उसका प्रमाण मप्र में हुआ प्याज घोटाला है जिसमें किसान को क्या मिला ये तो किसी को नहीं पता लेकिन मंडी में बैठे दलालों और सरकारी साहबों ने जी भरकर चांदी काटी । शिवराज सिंह चौहान की सरकार व्यापमं के बाद प्याज खरीदी में भी भरपूर बदमाम हुई । ये स्थिति पूरे देश की है । कृषि उत्पादन में गिरावट , खेती का घटता रकबा और घाटे का व्यवसाय बनते जाने से खेती छोड़ते जा रहे किसानों की बढ़ती संख्या कृषिप्रधान देश के नाम पर एक धब्बा है । गुजरात चुनाव में ग्रामीण क्षेत्रों में सत्तारूढ़ भाजपा की सीटों में भारी गिरावट ने देश भर में किसानों के मन में बढ़ते गुस्से का ऐलान कर दिया । किसानों की आय दोगुनी करने के सब्जबाग सूखने के कगार पर आ गये । गुजरात के झटके ने भाजपा को ग्रामीण भारत की समस्याएं दूर करने के लिए सार्थक उपाय करने हेतु बाध्य कर दिया है । सुना है आगामी बजट ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर केंद्रित रहेगा । औद्योगिक उत्पादन तो नोटबन्दी के बाद यूँ भी पटरी पर नहीं आ सका । रही सही कसर पूरी कर दी जीएसटी ने । अब यदि खेती की दशा भी बिगड़ गई तब विकास दर का कबाड़ा होना तय है । 2018 में ऐसा कौन सा चमत्कार हो जाएगा जिसके कारण भारत की अर्थव्यवस्था के दुनिया में सबसे मजबूत होने की भविष्यवाणी को पुख्ता समझा जा सके। इसीलिए शेयर बाज़ार का सूचकांक किस उम्मीद के भरोसे कूद रहा है ये साधारण व्यक्ति की तो समझ में नहीं आ रहा । भाजपा सांसद डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी ने विकास दर सम्बन्धी मोदी सरकार के दावों को खोखला बताते हुए यहां तक कह दिया कि ये सब अफसरशाही की बाजीगरी से अधिक कुछ भी नहीं है। रोजगार के सिमटते अवसर , खेती और उद्योगों के उत्पादन में गिरावट , बैंकों में बढ़ती डूबन्त राशि , राज्य सरकारों पर बढ़ता कर्ज का बोझ इत्यादि को मिलाकर देखें तो कहीं से भी अर्थव्यवस्था की सेहत वैसी नहीं लगती जिसमें शेयर बाज़ार में देशी-विदेशी निवेशक दिल खोलकर पैसा लगा दें । उस दृष्टि से गत दिवस शेयर बाज़ार का सूचकांक अब तक के उच्चतम स्तर को छू गया तो ये एक गंभीरता से मंथन का विषय है । बीते कुछ समय से बिट क्वाइन नामक अदृश्य मुद्रा के कारोबार में भी रहस्यमय वृद्धि ने अर्थशास्त्रियों को सांसत में डाल दिया था । जिस मुद्रा को न कोई देख सका और जो किसी विनिमय का माध्यम भी नहीं थी उसकी कीमतें सोने और हीरे से भी ज्यादा उछलना अर्थव्यवस्था के स्थापित मान्य नियम सिद्धांतों के सर्वथा विरुद्ध थी । किसी भी देश ने बिट क्वाइन को न मान्यता दी न ही उसके जनक का कोई अता पता चला । फिर भी उसका मूल्य गुब्बारे की तरह फूलने लगा । अचानक खबर आई कि अमिताभ बच्चन सरीखे निवेशक बिट क्वाइन में 650 करोड़ से उतर गए । छोटे-छोटे निवेशक जिन्हें कोई नहीं जानता उनका तो पता चलना सम्भव ही नहीं है । ये देखते हुए तमाम विरोधाभासी परिस्थितियों के बावजूद यदि भारत में शेयर बाज़ार ऐतिहासिक बुलंदियों को छू रहा है और 2018 में भारत की अर्थव्यवस्था विश्व भर में सबसे आगे निकलने के दावे किए जा रहे हैं तो इस पर विश्वास करने का जी नहीं करता । कहीं न कहीं , कुछ न कुछ ऐसा जरूर है जो सशंकित करता है । अतीत में भी शेयर बाजार की हवाई उड़ानों और अर्थव्यस्था के स्वर्ण मृग की तरह लोगों को ललचाने के कारण छोटे छोटे निवेशकों का अरबों रुपया डूब चुका है । हर्षद मेहता को लोग अब भी याद कर लेते हैं । दोबारा वैसा न हो ये चिंता केंद्र सरकार को करनी चाहिए वरना न्यू इंडिया का सुंदर सपना एक झटके में टूटकर रह जाएगा ।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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