Wednesday 20 December 2017

आरक्षण के नाम पर समाज के विखंडन की साजिश


सुना है हरियाणा के जाट शीघ्र ही फिर से आंदोलन करने वाले हैं। आरक्षण की मांग को लेकर 2016 की शुरूवात में हुआ हिंसक आंदोलन अभी तक लोगों को भूला नहीं है जिसने पूरे राज्य को अराजकता में धकेल दिया था। अरबों रुपये की निजी और सरकारी संपत्ति आग के हवाले कर दी गई। उस वजह से हरियाणा की आर्थिक प्रगति बुरी तरह से प्रभावित हुई। किसी तरह समझा बुझाकर मामला ठंडा हुआ लेकिन भीतर -भीतर आग सुलगती रही। न्यायालय द्वारा जाटों को दिए गये आरक्षण में टांग अड़ाने से वे और भन्नाए हुए हैं एवं समय-समय पर तीखे तेवरों से धमकाया करते हैं। हरियाणा में चूंकि गैर जाट मुख्यमंत्री भाजपा ने बना रखा है इसलिए जाट लॉबी जिसमें भाजपा के भी अनेक नेता शामिल हैं, आरक्षण आंदोलन को हवा देने में पीछे नहीं रहते। गुजरात चुनाव में पाटीदार आंदोलन के कारण भाजपा को जो राजनीतिक नुकसान हुआ उसकी वजह से जाटों का हौसला और बुलंद हो गया है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा सहित चौटाला परिवार भी जाट आंदोलन को हवा देने में पीछे नहीं है क्योंकि उन्हें भी गैर जाट मुख्यमंत्री हज़म नहीं हो रहा। हरियाणा में विधान सभा चुनाव लोकसभा चुनाव के बाद होंगे लेकिन भाजपा विरोधी शक्तियां जाट आंदोलन के जरिये प्रदेश सरकार को कमजोर साबित करने की रणनीति बनाने में जुटी हैं। कांग्रेस के पास तो यूँ भी कोई मुद्दा नहीं है इसलिए वह भी इसी बहाने अपनी वापिसी चाहती है। दरअसल पूर्व मुख्यमंत्री श्री हुड्डा के विरुद्ध चल रही भूमि घोटाले की जांच से कांग्रेस चिंतित है। हरियाणा में ही रॉबर्ट वाड्रा को मिली सरकारी जमीन के घोटाले भी जांच के दायरे में हैं। पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला को सजा होने से कांग्रेस को डर है कि श्री वाड्रा और श्री हुड्डा का भी वही हश्र न हो। जाट आरक्षण आंदोलन को नए सिरे से गरमाने की टाइमिंग  भी कबिले गौर है। गुजरात और हिमाचल के चुनाव के बाद उसके शुरू होने की धमकी सोची समझी चाल लगती है। अब चूंकि ये साफ  हो चला है कि गुजरात में पाटीदारों के आरक्षण आंदोलन की वजह से भाजपा का ग्राफ  नीचे आ गया तब जाटों को फिर सड़कों पर उतारने की रणनीति से न सिर्फ  हरियाणा वरन् उप्र और राजस्थान भी चिंतित हैं जहां जाट समुदाय काफी बड़ी संख्या में है। उप्र के चुनाव में पश्चिमी उप्र के जाटों की नाराजगी ने भाजपा के पसीने छुड़ा दिए थे। तब अमित शाह ने भाजपा से जुड़े जाट नेताओं को बीच में डालकर अपना काम निकाल लिया और बाद में बागपत सांसद और स्व. चौधरी चरण सिंह के दामाद सत्यपाल सिंह को केंद्र में मंत्री बनाकर उप्र के जाटों को ठंडा कर दिया गया। केंद्र में हरियाणा के वीरेंद्र सिंह पहले से ही मंत्री बने बैठे हैं। इसके बाद भी हरियाणा के जाट यदि आंदोलन रत हैं तो निश्चित रूप से भाजपा का भयग्रस्त होना स्वाभाविक है। भले ही कांग्रेस खुलकर जाट आंदोलन को समर्थन न दे रही हो किन्तु मन ही मन वह भी इसलिए खुश है क्योंकि इससे भाजपा मुसीबत में फँस रही है। हुड्डा सरकार द्वारा दिए जाट आरक्षण को न्यायालय ने झमेले में डाल दिया था। भाजपा यद्यपि जाटों को किसी तरह शांत रखने की कोशिश करती रही लेकिन उसके पास भी आरक्षण की मांग का कोई समुचित समाधान नहीं है। इस वजह से वह मुद्दे को टालती आ रही है। यही गुजरात में पाटीदार आंदोलन के साथ हुआ। 2015 में हुए हिंसक आंदोलन को किसी तरह दबा दिया गया लेकिन आरक्षण की अधिकतम सीमा तय होने से वहां भी कुछ नहीं किया जा सका। ओबीसी कोटे में पाटीदारों को शामिल करने से अन्य जातियों में बवाल मचने का डर बना रहा। विधानसभा चुनाव के पहले पाटीदार आरक्षण का विवाद हल नहीं होने के कारण भाजपा को कम से कम 15 सीटें गंवानी पड़ीं। यही कारण है कि हरियाणा के जाटों को लग रहा है कि ये दबाव बनाने का सबसे सही अवसर है। लेकिन इस सबसे हटकर विचारणीय मुद्दा ये है कि आखिर इस समस्या का कोई अंत है या फिर वह देश के अलग अलग हिस्सों को इसी तरह आग में झोंकने का साधन बनती रहेगी। महाराष्ट्र के मराठा भी आरक्षण के लिये  दबाव बनाए हुए हैं। वहीं आंध्र में एक ताकतवर कृषक जाति हिंसक आंदोलन के माध्यम से आरक्षण की मांग कर चुकी है। पाटीदारों की मांग को जिस तरह अरविंद केजरीवाल सहित गुजरात के बाहर के कुछ नेताओं ने समर्थन दिया उससे साफ  हो गया कि यह मुद्दा राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का औजार बन गया है। गुजरात में भले ही पाटीदार मत नाराज होने के बाद भी भाजपा को सत्ता से बेदखल नहीं कर सके लेकिन उन्होंने जबरदस्त  नुकसान तो कर ही दिया। कांग्रेस ने यद्यपि अपनी जमीन मज़बूत करने के लिए हार्दिक पटैल को साथ ले लिया लेकिन वह भी अपने घोषणा पत्र में पाटीदारों को उनकी इच्छानुसार आरक्षण देने की बात नहीं कह सकी। उप्र में चुनाव के ऐन पहले अखिलेश यादव ने भी कुछ नई जातियों को ओबीसी वर्ग में जगह दी किन्तु उसका लाभ उन्हें नहीं मिल सका। इसी तरह गुजरात के पाटीदार भी भाजपा से पूरी तरह नहीं टूटे वरना वह बहुमत हासिल नहीं कर पाती। जाट और मराठा आरक्षण की सुगबुगाहट के बीच ये सवाल फिर उठ खड़ा हो रहा है कि जाति को गोलबंद कर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का ये षड्यंत्रकारी खेल आखिर कब तक चलेगा? क्या किसी राजनीतिक पार्टी या नेता में इतना साहस है कि वह खुलकर इस तरह के दबावों का विरोध कर सके? तमिलनाडु उच्च न्यायालय द्वारा हाल ही में आर्थिक स्थिति को आरक्षण का आधार बनाने सम्बन्धी जो टिप्पणी की गई उसका राजनीतिक बिरादरी द्वारा कोई संज्ञान न लिया जाना ये  दर्शाता है कि अपने निहित स्वार्थों की वजह से नेताओं और पार्टियों में सत्य को स्वीकार करने का साहस खत्म हो चुका है। हरियाणा छोटा सा राज्य है जो दिल्ली, राजस्थान और उप्र  से सटा है। उस कारण वहां के जाट आंदोलन की तपिश इन राज्यों के जाट बहुल इलाकों में भी महसूस की जाती है। चूंकि राजनीतिज्ञों का समूचा ध्यान केवल चुनाव जीतने पर टिक गया है इसलिए वे किसी भी नाजायज मांग को खुलकर अस्वीकार करने का साहस ही नहीं बटोर पाते। समस्या का हल करने की बजाय उसे टांगे रखने का ही नतीजा है कि इस तरह की स्थितियां उत्पन्न होती जाती हैं जो देश के लिए घातक हैं। महज चुनाव जीतने की खातिर समाज को खण्ड खण्ड कर देने वाली राजनीति के विरुद्ध भी आवाज उठनी चाहिये वरना कभी जातिगत आरक्षण तो कभी क्षेत्रीय भावनाओं के नाम पर राष्ट्रीय हितों का सौदा किया जाता रहेगा ।

-रवीन्द्र वाजपेयी

2 comments:

  1. ग्रैन्ड ओल्ड पार्टी सत्ता कब्जा करने के लिए सिर्फ़ षड्यंत्र के सहारे, नेतृत्वहीनता की शिकार

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  2. ग्रैन्ड ओल्ड पार्टी सत्ता कब्जा करने के लिए सिर्फ़ षड्यंत्र के सहारे, नेतृत्वहीनता की शिकार

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