Saturday 9 December 2017

चलो किसी ने तो पुरूषों पर दया की --------------------------------- ------



मामला जितना रोचक है उतना ही गम्भीर भी। सर्वोच्च न्यायालय ने एक अर्जी पर विचार करते हुए केंद्र सरकार के गृह विभाग को नोटिस भेजकर पूछा है कि किसी विवाहित महिला द्वारा किसी परपुरुष के साथ आपसी सहमति से भी शारीरिक सम्बंध बनाए जाने पर उसका पति यदि शिकायत कर दे तो परपुरुष के विरुद्ध व्यभिचार का प्रकरण बन जाता है तब पति को धोखा देने वाली पत्नी को भी क्यों न व्यभिचार का आरोपी माना जाए ? न्यायालय ने इसी सम्बन्ध में एक और मुद्दा उठाया है। मौजूदा कानून के प्रावधान के अनुसार पत्नी यदि अपने पति की सहमति या अनुमति से परपुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाती है तो वह व्यभिचार नहीं माना जाता। न्यायालय ने इसे लैंगिक भेदभाव की संज्ञा देते हुए कहा है कि यह प्रावधान पत्नी को पति की सम्पत्ति जैसा बनाता है जो अनुचित है , अत: इसमें भी बदलाव किया जावे। विवाहित महिला द्वारा अन्य पुरुष से विवाहेतर सम्बन्ध रखे जाने की शिकायत भी केवल पति ही कर सकता है, अन्य रिश्तेदार नहीं। इसके ठीक उलट यदि पति किसी अन्य महिला से उसकी सहमति से शारीरिक सम्बन्ध रखे तो पत्नी इस आधार पर केवल तलाक़ ले सकती है, उस पर व्यभिचार का मामला नहीं बनता। न्यायालय ने मौजूदा कानून में जहां पत्नी को पति की संपत्ति जैसा माने जाने पर ऐतराज व्यक्त किया वहीं  बिना पति की सहमति से परपुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाने वाली महिला  को भी व्यभिचार का दोषी बनाने का प्रावधान कानून में रखने हेतु गृह मंत्रालय से कहा है। न्यायालय का ये कहना काफी तर्कसंगत है कि जो विवाहित महिला पति की सहमति लिए बगैर अन्य किसी पुरुष से शारीरिक सम्बन्ध बनाती है वह भी व्यभिचार के लिए बराबरी की दोषी होनी चाहिए। न्यायालय ने इस बात पर भी आश्चर्य जताया कि इस तरह के मामले में केवल महिला का पति ही शिकायत कर सकता है। उसके बेटे-बेटी तक अपनी माँ के विवाहेतर अवैध संबंधों पर आपत्ति नहीं  कर सकते। अदालत ने व्यभिचार के मामले में केवल पुरुष को दोषी माने जाने संबंधी प्रावधान को संशोधित कर महिला को भी व्यभिचारी मानने की जो मंशा जाहिर की उसकी आवश्यकता और औचित्य से इंकार नहीं किया जा सकता। इसी के साथ महिला पर पति के एकाधिकार को भी आधुनिक संदर्भों में सही नहीं माना। केंद्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय के नोटिस पर क्या जवाब देता है और सम्बंधित कानून में न्यायालय की अपेक्षानुरूप किस तरह संशोधन करता है , इस पर सभी की निगाहें लगी रहेंगी। वैसे सर्वोच्च न्यायालय ने जो सवाल उठाए  वे सामाजिक स्तर पर भी विचारणीय हैं। विवाहेतर संबंध भारतीय समाज में कानूनी से ज्यादा नैतिकता की दृष्टि से अपराध की श्रेणी में माने जाते हैं। परिवार नामक इकाई पति-पत्नी के आपसी विश्वास और समर्पण पर टिकी होती है जिसमें किसी एक के द्वारा मर्यादाओं के उल्लंघन का दुष्परिणाम पूरे परिवार को भोगना पड़ता है। भारतीय संस्कृति  अनेकानेक विपरीत परिस्थितियों में भी यदि अक्षुण्ण रही तो उसकी वजह परिवार ही है जहां संस्कारों का बीजारोपण होने के साथ ही हर रिश्ते से जुड़े कर्तव्यबोध का आभास कराया जाता है। यदि ऐसा न होता तो सैकड़ों बरस की गुलामी में भारतीयता पूरी तरह लुप्त हो गई होती। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही गृह मंत्रालय से सवाल-जवाब किये हों किन्तु समूचे समाज को इसका संज्ञान लेना चाहिए क्योंकि ऐसे मामलों में सामाजिक दबाव कहीं बेहतर तरीके से काम करता है। जिसे अब पुराना जमाना कहा जाता है उसमें सामाजिक व्यवस्था बहुत सुदृढ़ होती थी। जिसके अंतर्गत इस तरह के मामलों में निर्णय और न्याय किये होता था। आदिवासी और दलित जातियों में कई जगह आज भी सामाजिक पंचायतें पारिवारिक मसलों पर जो फैसला कर देती हैं वे बंधनकारी होते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जिस सन्दर्भ में गृह मंत्रालय को नोटिस जारी किया वह बेहद सामयिक है क्योंकि महिला की सहमति से हुए व्यभिचार के लिए केवल पुरुष को कसूरवार मान लेना न्याय की कसौटी पर खरी उतरने वाली बात कतई नहीं लगती। वहीं पत्नी को पति की निजी संपत्ति मानने की प्रवृत्ति पर भी न्यायालय की पैनी दृष्टि स्वागतयोग्य है। विवाहेतर सम्बन्धों की बढ़ती खबरों के बीच सर्वोच्च न्यायालय का यह क़दम निश्चित रूप से एक बड़े बदलाव का आधार बन सकता है जिसमें समान अपराध के लिए केवल पुरुष वर्ग को दोषी मान लेने के बजाय महिलाओं को भी बराबरी से कसूरवार मानने का प्रावधान यदि हो सके तो समाज में नैतिकता का जो ह्रास हो रहा है उसमें  कुछ हद तक तो कमी लाई ही जा सकती है। महिला सशक्तीकरण की चर्चाओं के बीच पुरुषों को संरक्षण देने का यह प्रयास सही दिशा में सही कदम है। पुरुषों की बराबरी के लिए आतुर महिलाओं को दंड प्रक्रिया में भी बराबरी मिलना बहुप्रतीक्षित भी है और अपेक्षित भी। इस संबंध में यह बात पूरी तरह विचारणीय है कि महिला किसी भी परिवार का आधार होती है। कहावत है कि पिता यदि मस्तिष्क तो माँ हृदय का रूप है। यही वजह है कि भारतीय समाज में महिला को देवी मानकर प्रतिष्ठित किया गया। तथाकथित आधुनिकता और नारी स्वातंत्र्य के पश्चिमी प्रवाह में वर्जनाहीन नारीत्व की जो सोच भारतीय समाज में भी घुस रही है वही नई-नई समस्याओं का कारण है। महिलाओं को मध्ययुगीन स्थिति में रखना तो असंभव है किन्तु उनके प्रति सम्मान और करुणा का भाव तभी तक बना रह सकता है जब तक वे अपने प्रकृति प्रदत स्वभाव के अनुरूप आचरण करें। स्वतंत्रता और स्वच्छंता के बीच का अंदर नारी और पुरुष दोनों के लिए एक समान होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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