Tuesday 19 December 2017

और भी काम हैं चुनावों के सिवा

गुजरात और हिमाचल के चुनाव सम्पन्न हो गए। भाजपा को दोनों राज्यों में सरकार बनाने का अधिकार मतदाताओं ने दे दिया। गुजरात में भाजपा 22 वर्ष से चली आ रही सत्ता बचाने में सफल रही तो हिमाचल में उसने कांग्रेस को महज 5 वर्ष बाद ही बेदखल कर दिया जो इस पहाड़ी राज्य की परंपरा बन गई है। राजनीतिक विश्लेषक अपने ढंग से चुनाव परिणामों की मीमांसा कर रहे हैं। कोई इसे मोदी मैजिक जारी रहने का प्रमाण बता रहा है तो कई की नजर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी राष्ट्रीय राजनीति में बतौर विकल्प उभरे हैं जो 2019 के लोकसभा चुनाव की दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि गुजरात में भाजपा भले ही सत्ता बचा कर ले आई किन्तु पहली बार कांग्रेस ने न केवल मुकाबले की स्थिति उत्पन्न की अपितु मतगणना के दौरान कुछ समय तो उसने भाजपा को इतना पीछे छोड़ा कि शेयर बाज़ार में 800 अंकों की गिरावट तक आ गई। यद्यपि भाजपा ने 99 सीटें जीतकर कामचलाऊ बहुमत प्राप्त कर लिया किन्तु वह उस अपराजेय स्थिति को गंवा बैठी जिसमें नरेंद्र मोदी ने उसे स्थापित कर दिल्ली की राह पकड़ी थी। बहरहाल हिमाचल की विजय ने श्री मोदी की विजेता छवि को सुरक्षित रखा वरना दिल्ली और बिहार के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद मोदी-शाह की जोड़ी की क्षमता पर पार्टी के भीतर से ही सवाल उठने लगे थे। हालांकि पंजाब में भी भाजपा की बुरी गति हुई किन्तु उसका ठीकरा बादल परिवार पर फोड़कर भाजपा ने स्वयं को कलंकित होने से बचा लिया। उप्र., उत्तराखंड , गोवा और मणिपुर में सत्ता हासिल कर भाजपा ने विजय के प्रति अपनी भूख या उन्माद को बिना हिचक प्रदर्शित किया। कांग्रेस इस दौरान पूरी तरह असहाय नजर आने लगी लेकिन गुजरात के चुनाव में वह जिस अंदाज में उतरी उसने राजनीतिक परिदृश्य को नि:सन्देह प्रभावित तो किया जिसके बल पर राहुल गांधी को एक सुलझा और सशक्त नेता मानने की सोच विकसित हुई है। लेकिन धीरे-धीरे ही सही ये तथ्य भी संज्ञान में आने लगा है कि वे अपने दम पर लडऩे की क्षमता नहीं रखते। गुजरात के शानदार प्रदर्शन को भी हार्दिक पटैल,अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवानी के सौजन्य से माना जा रहा है। अब सवाल ये है कि गुजरात और हिमाचल के चुनाव खत्म होते ही उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों सहित कर्नाटक विधानसभा चुनाव की तैयारियाँ शुरू हो गईं। अब भाजपा और कांग्रेस दोनों इन राज्यों के अखाड़े में अपने शौर्य का प्रदर्शन करने उतरेंगीं। उत्तर पूर्व के राज्यों में वामपंथी और क्षेत्रीय दल भी मुकाबले में होंगे। टीवी चैनल और अखबार फिर से उत्तेजना पैदा करेंगे। नए सर्वेक्षण होंगे। जीत हार का सट्टा लगेंगे और सत्ता तथा विपक्ष प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर नई रणभूमि में जूझने लगेगा। लोकतंत्र में चुनाव को अनुचित नहीं कहा जा सकता । कई देशों में राजनीतिक अस्थिरता के चलते जल्दी जल्दी चुनाव होते हैं किंतु भारत की परिस्थितियां भिन्न हैं। एक विकासशील और विभिन्नता से भरे इस देश में क्षेत्रीय भावनाएं और समस्याएं राजनीति को प्रभावित करती हैं। इसीलिए गुजरात और हिमाचल के चुनाव अभियान की तस्वीर पूरी तरह अलग थी। सवाल ये है कि क्या भारत सरीखे देश में हर समय होने वाले चुनाव से विकास प्रक्रिया प्रभावित नहीं होती? राष्ट्रीय पार्टियों को भी क्षेत्रीय दलों और भावनाओं के साथ चाहे अनचाहे समझौते करने पड़ते हैं। संसद का सत्र शुरू होने के पूर्व हुई सर्वदलीय बैठक में प्रधानमन्त्री ने सभी चुनाव एक साथ करवाने की चर्चा छेड़ी लेकिन उस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। समय आ गया है जब राष्ट्रहित में सभी राजनीतिक दल मिलकर कोई ऐसा रास्ता निकालें जिससे रोज रोज के चुनावी मौसम से मुक्ति मिले। केंद्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों के समक्ष भी सदैव लटकती चुनाव की तलवार एक समस्या बन गई है।  देश हित के तमाम निर्णय और नीतियां वोटरों की नाराजगी से बचने के लिए ठंडे बस्ते में पड़ी रह जाती हैं। 2018 में कई राज्यों में चुनाव होंगे जिनके 6 माह बाद लोकसभा और फिर अन्य राज्यों के चुनाव चलते रहेंगे।  इनके खर्च को यदि विकास कार्यों में लगाया जाए तो लोगों का ज्यादा भला हो सकता है। यद्यपि ऐसा होना आसान नहीं है क्योंकि विभिन्न पार्टियों की अपनी सोच और स्वार्थ हैं लेकिन देश के व्यापक हित को ध्यान रखते हुए यह जरूरी हो गया है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने की व्यवस्था की जाए। जब सांसदों के वेतन भत्ते बढ़वाने सभी दल एक साथ खड़े हो जाते हैं तब देश हित में भी उन्हें एकजुट होना चाहिए।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment