Thursday 28 December 2017

संसद को बाधित करना दण्डनीय अपराध बने

गुजरात चुनाव के कारण संसद का शीतकालीन सत्र आगे बढ़ाने की लेकर विपक्ष ने प्रधानमंत्री पर सीधे हमले किये। राहुल गाँधी ने तो प्रचार के दौरान भी आरोप लगाया कि राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद में हुए घपले की चर्चा टालने के लिए सत्र को गुजरात चुनाव के बाद रखा गया। लेकिन जब सत्र शुरू हुआ तब वही विपक्ष नरेंद्र मोदी द्वारा पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह पर की गई एक टिप्पणी को मुद्दा बनाकर सदन को बाधित करने पर आमादा हो गया। राज्यसभा में संख्याबल ज्यादा होने से विपक्ष हावी होने की स्थिति में चूंकि है इसलिए उच्च सदन को ठप्प करना उसके लिए आसान रहता है। श्री मोदी से मांग की गई कि वे डॉ सिंह से क्षमा मांगे। हंगामे के कारण सदन स्थगित होता रहा। आखिरकार गत दिवस वित्तमंत्री और सदन के नेता अरुण जेटली ने सफाई दी कि मोदी जी ने मनमोहन सिंह जी के बारे में कोई आपत्तिजनक बात नहीं कही और वे उनका सम्मान करते हैं। नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद उनके स्पष्टीकरण से संतुष्ट हो गए और विवाद खत्म कर दिया गया। सवाल ये है कि जब इतना ही करना था तो पूरा हफ्ता काहे खराब किया? सदन के नेता तो पहले दिन से ही समझौते के मूड में थे लेकिन कांग्रेस अड़ी रही और आखिर में गर्म पानी की जि़द करते-करते ठंडे पानी से नहाने को तैयार हो गई। ये पहला अवसर नहीं था जब सदन का मूल्यवान समय हंगामे की भेंट चढ़ाकर विपक्ष इस तरह पीछे हट गया। संसद के हर घण्टे पर लाखों रुपया खर्च होता है। ऐसे में उसका कामकाज बाधित करना दण्डनीय अपराध होना चहिये। सभापति वेंकैया नायडू पहले दिन से समझा रहे थे कि श्री मोदी ने जो कुछ कहा वह चूंकि सदन के बाहर की बात थी इसलिए उसकी चर्चा सदन में करना गलत है। लेकिन विपक्ष अड़ा रहा। जब उसे लगा कि उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं हो रहा तब उसने किसी तरह इज्जत बचा ली। इस खेल में कौन जीता और किसकी हार हुई ये उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना सदन का कीमती समय बर्बाद होना था, जिसमें जनहित के मुद्दों पर सार्थक चर्चा हो सकती थी। सरकार को घेरना विपक्ष का संसदीय अधिकार है। यदि जनहित में जरूरी हो तब सत्ता पक्ष को झुकाने के लिए सदन बाधित करने का भी औचित्य हो सकता है किंतु निरुद्देश्य विरोध से विपक्ष की साख गिरती है। सत्तापक्ष भी प्रत्येक सत्र में विपक्ष को ऐसी गलती करने का मौका दे देता है जिसमें उलझकर वह सरकार को घेरने का अवसर गंवा बैठता है। गत दिवस श्री जेटली ने जो कहा वह व्यक्तिगत रूप से भी  कहा और सुना जा सकता था। बच्चों जैसी जिद पालकर देश की संसद को सब्जीमंडी बना देने वाले ऐसे नेताओं के कारण ही लोकतंत्र के भविष्य को लेकर शंकाएं होने लगती हैं। वैसे सत्तापक्ष भी इस मामले में दूध का धुला नहीं है। विपक्ष में रहते वह भी यही करता रहा। शीतकालीन सत्र वैसे भी छोटा होता है। महत्वपूर्ण विषयों पर विचार कर निर्णय लेने के बजाय व्यर्थ के मुद्दों पर संसद के समय को नष्ट करना लोकतंत्र का अपमान नहीं तो और क्या है?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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