खबर आ गई कि गत माह का जीएसटी अपेक्षा से कम जमा हुआ। पूरे रिटर्न भी नहीं भरे गए। इसके पीछे एक कारण सम्भवत: जीएसटी दरों में कमी के साथ प्रक्रिया में दी गई रियायत हो सकती है। लेकिन इससे राजस्व घट गया। राजकोषीय घाटा सीमा पार कर जाने से केंद्र सरकार को सरकारी सिक्युरिटीज से 50 हजार करोड़ कर्ज लेना पड़ रहा है। निश्चित रूप से ये अच्छी खबर नहीं है। मोदी सरकार के जिस आर्थिक प्रबंधन के कारण भारत की वैश्विक छवि में सुधार हुआ वह राजकोषीय घाटे को कम किये जाने पर आधारित था। जीएसटी की दरों में अभी और कमी का दबाव सरकार पर बना हुआ है। 2018-19 के बजट में जो कुछ हो जाए तो ठीक वरना लोकसभा चुनाव के कारण 2019-20 का बजट तो नीतिगत निर्णयों से मुक्त रहेगा। 2018 में छोटे बड़े मिलाकर आधा दर्जन राज्यों में विधानसभा चुनाव होना हैं। मोदी सरकार के ऊपर ये दबाव है कि वह अब लोक लुभावन कदम उठाकर भाजपा की संभावनाओं को बल प्रदान करे वरना 2018 के सेमी फाइनल में जरा सी चूक से 2019 के फाइनल का मज़ा किरकिरा हो सकता है। 2004 में वाजपेयी सरकार भी इसी तरह चली गई थी। सवाल ये है कि प्रधानमंत्री अब अच्छे दिन आने वाले हैं के नारे को फिर दोहराएंगे या ये बताने की स्थिति में होंगे कि अच्छे दिन किस रूप में आये हैं। शुरू में लगता था कि पुराने घाटे की भरपाई की आड़ में पेट्रोल - डीजल में की जा रही मुनाफाखोरी कुछ समय बाद बन्द कर दी जावेगीं तथा कच्चे तेल की कीमतों में वैश्विक गिरावट का लाभ भारतीय उपभोक्ता को भी मिलेगा किन्तु वैसा कुछ भी नहीं हुआ। महंगाई बढऩे के पीछे एक कारण परिवहन की अधिक लागत भी है। यदि मोदी सरकार अभी भी जीएसटी के अंतर्गत लाकर पेट्रोल-डीजल को उनकी सही कीमतों पर ले आए तो मानकर चला जा सकता है ये अर्थव्यवस्था को गतिशील बनाने में बेहद सहायक कदम होगा। सरकार में बैठे लोग ये तर्क देंगे कि इससे राजस्व घटेगा किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि ईंधन सस्ता होने का सीधा असर कारोबार में वृद्धि के तौर पर होगा जिससे कि खजाने में आने वाला कर संग्रह बढ़ जायेगा। सबसे बड़ा लाभ होगा विकास दर में आशातीत वृद्धि, जो रोजगार सृजन में भी मददगार बने बिना नहीं रहेगी इसी तरह सरकार को चाहिए वह रिजर्व बैंक को ऋणों पर ब्याज दर घटाने राजी करे जिससे घरेलू उद्योग अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में खड़े रह सकें। विशेषकर चीन के उत्पाद भारत में आने कम हों। हो सके तो सरकार को खैरात बांटने की बजाय इंफ्रास्ट्रक्चर के कार्यों को तेज कर ज्यादा से ज्यादा हाथों को काम मुहैया करवाना चाहिए। 2018 को भारत की अर्थव्यवस्था के लिए स्वर्णिम बताने वाला आकलन आने के तत्काल पश्चात केंद्र सरकर को काम चलाने के लिए 50 हज़ार करोड़ के कर्ज की जरूरत घड़ी की सुई के पीछे जाने का इशारा है। नए साल के जश्न को ये स्थिति फीका कर सकती है और भाजपा की सम्भावनाओं को भी।
-रवीन्द्र वाजपेयी
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