Wednesday 8 August 2018

करुणानिधि का अवसान एक युग की समाप्ति


यद्यपि वे राष्ट्रीय नेता कभी नहीं कहलाए किन्तु ये कहना गलत नहीं होगा कि देश के सुदूर हिस्से में बैठकर भी राष्ट्रीय राजनीति को अपने मुताबिक प्रभावित करने में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। तमिलनाडु की राजनीति के पितृपुरुष बन चुके  एम.करुणानिधि का गत शाम निधन हो गया। 1957 से लगातार विधायक रहे करुणानिधि एकमात्र सियासी व्यक्ति थे जिसने सवर्ण जातियों और आर्य संस्कृति के विरुद्ध विषवमन करने वाले द्रविड़ आंदोलन की शुरुवात देखी थी। आज भले ही द्रमुक और उससे टूटकर बनी अन्नाद्रमुक का रंग-ढंग काफी बदल गया हो लेकिन रामास्वामी पेरियार और बाद में अन्नादुरै जैसे द्रविड़ आंदोलन के पुरोधाओं के वैचारिक उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित करुणानिधि की लगातार छह दशक तक तमिलनाडु विधानसभा में मौजूदगी इस बात का प्रमाण है कि वे सत्ता में रहे या न रहे हों किन्तु जनता ने उन्हें सदैव महत्वपूर्ण माना। पांच मर्तबा उनका मुख्यमंत्री बनना उनके कद का साक्षात प्रमाण है । करुणानिधि को उनकी मृत्यु पर भले ही महान कहे जाने की रस्मअदायगी की जा रही हो तथा तमिलनाडु के सियासी महत्व के मद्देनजर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने की प्रतिस्पर्धा भी चल पड़ी हो लेकिन अपने सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में उन्होंने तमिलनाडु को देश की मुख्यधारा से अलग रखने का हरसम्भव प्रयास निर्लज्जता से किया और सवर्ण जातियों और हिन्दू धर्म के विरुद्ध प्रारम्भ हुए द्रविण आंदोलन में निहित नास्तिकतावाद को सदैव जीवंत रखा। बाद में जयललिता जरूर हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान रहीं, जिसके पीछे उनका कन्नड़ ब्राह्मण परिवार में जन्म लेना बड़ी वजह थी किन्तु करुणानिधि ने कभी अपनी मूल विचारधारा से समझौता नहीं किया । एक सोची.समझी चाल के तहत राज्य में हिंदी को घुसने से रोकने का ठोस प्रयास जारी रखा जिसके फलस्वरूप तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी आज भी राष्ट्रीय राजनीति और उससे जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों से अनजान बने हुए हैं । ये करुणानिधि की ही सोच थी जिसने द्रविड़ आंदोलन को तमिलनाडु और पाण्डिचेरी तक सीमित रखा । इसका लाभ ये हुआ कि 1967 में तमिलनाडु की सत्ता से अलग हुई काँग्रेस फिर कभी वापसी नहीं कर सकी । राजनीतिक अवसरवाद के भी करुणानिधि बड़े उदाहरण थे । इंदिरा जी द्वारा थोपे गए आपातकाल के वे विरोधी थे । श्रीलंका के लिट्टे नेता प्रभाकरण को अपना मित्र बताने का दुस्साहस भी उन्होंने खुलकर किया । उसके आन्दोलन को भी उनका खुला समर्थन था जिसके पीछे उनके मन में एक तमिल राष्ट्र बनाने की वैसी ही महत्वाकांक्षा थी जैसी शेख अब्दुल्ला कश्मीर को लेकर पाले रहे। राजीव गांधी की हत्या के समय वे मुख्यमंत्री थे। जांच के दौरान उनकी भूमिका पर भी उंगलियां उठीं किन्तु कालांतर में करुणानिधि ने कांग्रेस के साथ भी गठबंधन करने में संकोच नहीं किया। एक पटकथा लेखक के तौर पर जि़न्दगी शुरू करने वाले करुणानिधि की जीवनरूपी पटकथा भी तमिल फिल्मों की तरह नाटकीयता से भरपूर रही । तीन शादियां, कई बेटे-बेटी,परिवारवाद, भ्रष्टाचार जैसी तमाम बातें उनके साथ जुड़ीं। अपनी विरोधी जयललिता के प्रति वे सदैव कठोर रहे। उत्तर भारतीय संस्कृति को सिरे से नकारने के लिए उन्होंने सेतुबंध को तोडऩे के लिए सेतु समुद्रम योजना बनवाई । भगवान राम के अस्तित्व से इंकार करते हुए रामचरितमानस को बतौर कवि तुलसीदास की कल्पना कहकर उसका मजाक भी उड़ाया । बावजूद उसके वे कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा के करीब रहे क्योंकि गठबंधन की राजनीति ने तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियों की अहमियत बढ़ा दी। करुणानिधि के अवसान ने राष्ट्रीय दलों के सामने से वह बाधा हटा ली जिसकी वजह से बीते 61 वर्ष से उनका तमिलनाडु में वर्चस्व कायम नहीं हो सका। कांग्रेस तो फिर भी थोड़ी बहुत जमी रही लेकिन भाजपा तमाम कोशिशों के बावजूद घुटनों के बल चलने बाध्य हुई । जयललिता के न रहने के बाद करुणानिधि की मृत्यु ने इस राज्य में बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है जिसे भरने के लिए यूँ तो रजनीकांत और कमल हासन जैसे सुपरस्टार मैदान में उतर चुके हैं लेकिन द्रविड़ आंदोलन रूपी  विचारधारा का पुनरोदय हो पाना अब सम्भव नहीं होने से तमिलनाडु की सियासत चमकदार चेहरों के मोहपाश में वैसी नहीं बंध सकेगी जैसा करुणानिधि,एमजी रामचंद्रन और जयललिता के रहते संभव हो सका। जिस तरह जयललिता के बाद अन्नाद्रमुक में टूटन हुई वही स्थिति अब द्रमुक में बनेगी क्योंकि करुणानिधि की राजनीतिक विरासत के लिये उनके बड़े बेटे अजागिरी और छोटे बेटे स्टालिन में खींचातानी अवश्याम्भावी है। बेटी कनिमोझी भी एक धड़ा बन सकती हैं। इसीलिए अब वहां द्रविड़ आंदोलन की दोनों धाराओं के सूखने का दौर आ गया है । ये काम कब तक होगा, कहना मुश्किल हो सकता है किन्तु अकल्पनीय नहीं है । जिस तरह ज्योति बसु के बाद के बंगाल में वामपंथ हांशिये पर चला गया ठीक वैसे ही तमिलनाडु में भी द्रमुक और अन्नाद्रमुक का प्रभाव सिमटने के दिन आ गए हैं । कुछ समय के लिए भले ही रजनीकान्त और कमल हासन उभरकर सामने आएं लेकिन आने वाले कुछ सालों के भीतर तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियों का पुनरागमन सुनिश्चित है । कांग्रेस अथवा भाजपा में कौन इस शून्य को भरेगा ये आज कहना जल्दबाजी होगी लेकिन  जयललिता के बाद करुणानिधि के भी न रहने से द्रविड़ आंदोलन के अंत की शुरुवात हो चुकी है । किसी की मौत को अच्छा कहना मानवीय दृष्टिकोण से बेहद बुरा माना जाता है लेकिन तमिलनाडु की सियासत पर कुंडली मारकर बैठी द्रमुक और अन्नाद्रमुक के दो शीर्ष नेताओं के जल्दी-जल्दी निधन से उत्पन्न स्थितियां देश के दूरगामी हित में होंगी ये कहना वास्तविकता को स्वीकारना होगा । करुणानिधि के बारे में इतना तो कहना ही पड़ेगा कि वे एक संघर्षशील व्यक्ति थे जिसने एक युग को देखा ही नहीं अपने ढंग से जिया भी और हर तरह से प्रभावित भी किया । उनके अवसान से निश्चित रूप से एक दौर खत्म हो गया। इतिहास उन्हें किस रूप में याद रखेगा ये आने वाला समय तय करेगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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