Tuesday 14 August 2018

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर विशेष संपादकीय अनुचित दबावों के शिकंजे में फंसा लोकतंत्र

स्वाधीनता की वर्षगांठ का गौरवमयी अवसर फिर आ गया । पूरा देश इस मौके पर सब कुछ भूलकर  राष्ट्रभक्ति में डूब जाता है। रिक्शा और हाथ ठेला खींचने वाले तक छोटा सा तिरंगा लगाए अपनी राष्ट्रभक्ति को व्यक्त करते दिखाई देते हैं । यूँ भी आम हिंदुस्तानी ऐसे समय बड़ा ही भावुक हो जाता है । दिल्ली के लालकिले पर प्रधानमंत्री अपना रस्मी भाषण देंगे । चूंकि  2019 की गर्मियों में लोकसभा चुनाव होने हैं इसलिए उम्मीद की जा रही है कि नरेंद्र मोदी इस अवसर पर जनता के मन को प्रिय लगने वाली बातें कहेंगे । दरअसल यही हमारे देश की सबसे बड़ी विडंबना है कि सरकार में बैठे महानुभाव प्रत्येक कार्य चुनाव जीतने के उद्देश्य से करते हैं और श्री मोदी भी कोई अपवाद नहीं हैं । लेकिन विचारणीय बात ये है कि वोटों की पैदावार बढ़ाने के उद्देश्य से जो तुष्टीकरण रूपी रसायनिक खाद उपयोग की जा रही है उसने देश का स्वास्थ्य खराब कर दिया है । अभी हाल ही में केंद्र सरकार ने अनु.जाति/जनजाति कानून में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किये बदलाव संबंधी फैसले को जिस तरह पलट दिया उससे ये एहसास और प्रबल हो गया कि एक तरफ  तो सम्वेदनशील मसलों पर न्यायपालिका के फैसले को शिरोधार्य करने की प्रतिबद्धता हमारे राजनेता दोहराते हैं किंतु दूसरी तरफ  जो फैसला उनके राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिहाज से मनमाफिक न हो उसे संसद की सर्वोच्चता के नाम पर बेअसर कर दिया जाता है । शाहबानो संबंधी फैसले को संसद में पलटाने के लिए जो भाजपा आज तक कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने से बाज नहीं आती उसे वैसी ही गलती खुद करने में न कोई संकोच हुआ, न शर्म आई । स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर इस मुद्दे को छेडऩे का मकसद ये स्पष्ट करना है कि बहुमत प्राप्त सरकार में भी व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियां दूर करने का साहस नहीं है । यही बात न्यायपालिका पर भी लागू  है क्योंकि जिन मामलों में उसकी रुचि होती है उन्हें तो वह प्राथमिकता के आधार पर निबटाती है लेकिन जिन मुद्दों में देश का भविष्य और भला निहित है उन्हें टरकाया जाता है । न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु कॉलेजियम की व्यवस्था खत्म करना उसे स्वीकार नहीं था तो उसने संसद के फैसले को भी ठेंगा दिखा दिया किन्तु राम जन्मभूमि और कश्मीर में अलगाववाद की जन्मदात्री धारा 35 ए संबंधी फैसले देने में वह तरह - तरह के बहाने बनाकर समय खराब करती रहती है । कुल मिलाकर व्यवस्था से जुड़ा हर घटक किसी न किसी तौर पर दबाव में काम कर रहा है जिसकी वजह से पूरे देश में हर जगह अलग-अलग दबाव समूह पैदा हो गए हैं जो अपने निहित स्वार्थों की खातिर समूची व्यवस्था को तहस नहस करने पर आमादा है । देश में हर समय चुनावी माहौल रहने से इन दबाव समूहों को और बल मिलता है । ऐसे में इनकी भूमिका भी राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिए । दरअसल पूरे पांच वर्ष तक देश के किसी न किसी राज्य में चुनाव होना बड़ी समस्या बन चुकी है जिसे हल करने के लिए दलीय हितों से ऊपर उठकर सोचने का वक्त आ गया है । क्योंकि कहीं न कहीं चुनावी प्रक्रिया के चलते रहने से केंद्र सरकार एक कदम आगे दो कदम पीछे वाली मजबूरी में उलझी रहती है । चूंकि स्वाधीनता दिवस कोई राजनीतिक जलसा न होकर विशुद्ध राष्ट्रीय पर्व है , इसलिए इस मौके पर उन्हीं विषयों पर चिंता और चिंतन होना चाहिए जिनका सीधा संबंध किसी राजनीतिक दल या नेता की बजाय देश के भविष्य और भलाई से जुड़ा हुआ हो। इस वर्ष के अंत में कई राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव होने वाले हैं । वहीं आगामी वर्ष के पूर्वार्ध में लोकसभा के साथ कुछ राज्यों के चुनाव और उसके कुछ महीनों बाद ही कुछ राज्यों में चुनावी अखाड़ा सजेगा। इस तरह लोकसभा चुनाव में जो भी पार्टी या गठबंधन सत्ता में आएगा उसके लिए वह सिर मुंडाते ही ओले पडऩे जैसा होगा। स्वाधीनता दिवस पर यदि इस तरह के मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श शुरू हो सके तब इसकी सार्थकता और बढ़ जावेगी । हकीकत ये है कि हमारे लोकतंत्र को अनुचित दबावों से मुक्त नहीं कराया गया तो सत्ता भले ही बदलती रहे किन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी जो आज की स्थिति में सर्वाधिक जरूरी है । रही बात जनता की , तो वह राजनीति के अतिरेक से त्रस्त और वायदों की भूलभुलैया में फंसकर निराश हो चली है । इसके पहले कि यह निराशा आक्रोश में परिवर्तित हो जाये कुछ न कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे उसके मन में राजनेताओं के प्रति बढ़ता जा रहा अविश्वास खत्म हो । अन्यथा, अव्यवस्था का मौजूदा माहौल देश को अराजकता की गहरी खाई में धकेल देगा । स्वाधीनता दिवस पर कुछ पल देश के बारे में भी सोचने की अनुकम्पा करें इसी निवेदन के साथ इस पवित्र दिवस पर हार्दिक बधाई और अनन्त शुभकामनाएं।

-रवीन्द्र वाजपेयी
संपादक

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