Friday 17 August 2018

अटल जी, ये देश आपकी प्रतीक्षा करेगा

पूर्व प्रधानमंत्री और भारतरत्न सरीखे संबोधन उनके व्यक्तित्व के आगे गौण हो चुके थे। वे प्रधानमंत्री भले 1996 में बने लेकिन एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर काफी पहले लोगों के हृदय में जगह बना चुके थे। उस आधार पर ये कहना गलत नहीं होगा कि वे राष्ट्रीय नेताओं की श्रृंखला की अंतिम कड़ी थे। देश तो चलेगा और यहां का लोकतंत्र भी, जैसा अटल जी कहा करते थे, जीवित रहेगा परन्तु ऐसा कोई व्यक्तित्व दूर दराज तक नहीं दिखाई दे रहा जिसका राजतिलक राष्ट्रीय नेता के रूप में इस देश की जनता के हाथों से हो। अटल जी नहीं रहे। पार्टी और विचारधारा की सीमाओं से तो वे कई दशक पूर्व ऊपर आ चुके थे। बड़े नेता के कद को पीछे छोड़कर एक बड़े इंसान के रूप में स्थापित होना ही उनके व्यक्तित्व की विराटता का प्रमाण था। रास्वसंघ के एक साधारण से कार्यकर्ता के तौर पर अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूवात करने वाले अटल जी ने प्रधानमंत्री तक का सफर लंबी संघर्ष यात्रा के बाद तय किया था परन्तु जैसा कि व्यक्तिगत चर्चा के दौरान अनेक मर्तबा उन्होंने मुझसे भी कहा कि प्रधानमंत्री बनने की कल्पना और कोशिश उनके मस्तिष्क में कभी नहीं थी। 1996 में जब वे पहली मर्तबा इस पद पर आए तब भले ही बहुमत उनके पास नहीं था किन्तु जनमत उन्हें देश की बागडोर सौंपना चाहता था और 13 दिन के बाद जब उनकी सरकार गिरी तब भाजपा से ज्यादा देश दुखी हुआ जिसका प्रमाण 1998 में उनके बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनने के रूप में सामने आया। एक साधारण परिवार में जन्मे अटल जी में राजनीतिक महत्वाकांक्षा कभी नहीं आती यदि वे अखबार आर्थिक संकट में डूबकर बंद न होते जिनके जरिये बतौर पत्रकार उन्होंने जीवनयात्रा प्रारंभ की थी। जहां तक उनकी कविताओं का प्रश्न है तो ये उन्हें विरासत में मिली। उनके पूज्य पिता पं. कृष्ण बिहारी वाजपेयी भी बड़े ही सिद्धहस्त कवि थे। युवावस्था में लिखित हिन्दू तन-मन हिन्दू जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय और अमर आग है जैसी कविताएं उनकी प्रखर राष्ट्रवादी सोच का परिचायक थीं। 1951 में जनसंघ की स्थापना के बाद डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के निजी सचिव की भूमिका के साथ एक पूर्णकालिक राजनीतिक कार्यकर्ता और फिर नेता के रूप में उन्होंने जो सफर शुरु किया वह 2009 तक बतौर सांसद जारी रहा। अटल जी स्वाधीन भारत की राजनीति में सर्वश्रेष्ठ वक्ता के रूप में साठ के दशक में ही सुप्रसिद्ध हो चुके थे। प्रांजल हिन्दी में चमत्कृत कर देने वाली उनकी भाषण शैली ने 1957 में बतौर युवा सांसद पं. जवाहरलाल नेहरू तक को ये कहने के लिए मजबूर कर दिया कि इस युवा में उन्हें भविष्य का नेता दिखाई देता है और एक न एक दिन ये देश का प्रधानमंत्री बनेगा। उदारवादी लोकतांत्रिक सोच के कारण ही अनेक विश्लेषक उन्हें नेहरू-वादी राजनीति से प्रभावित बताते थे। नेहरू जी की मृत्यु पर दिया गया श्रद्धांजलि भाषण उनकी ऊंची सोच का अमिट दस्तावेज है। लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय मृत्यु के बाद दिल्ली में आयोजित शोकसभा में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान और विदेशमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो की मौजूदगी में उन्होंने कहा था कि आज भारत माँ की गोद भले ही सूनी हो गई लेकिन कोख सूनी नहीं हुई है। 1996 में प्रधानमंत्री की शपथ लेने के एक दिन पूर्व दूरदर्शन को दिए एक साक्षात्कार में जब एंकर ने उनसे पूछा कि आपकी सबसे बड़ी खासियत क्या है तब उन्होंने बड़ी ही सरलता से जवाब दिया था मैं कमर के नीचे वार नहीं करता। अपने समूचे राजनीतिक जीवन में उन्होंने कभी नीचे गिरकर कुछ हासिल करने का प्रयास नहीं किया। उनकी 13 दिनी सरकार को गिराने वाले तमाम नेता बाद में उनके साथ गठबंधन में शामिल हो गए तथा आज भी उनके व्यक्तित्व की विराटता के कायल हैं। अटल जी विगत लगभग 10 वर्षों तक बीमार रहे। 2004 के बाद उन्होंंने कोई चुनाव नहीं लड़ा। विस्मृति उन पर हावी हो चुकी थी। घर की चहारदीवारी से निकलकर वे केवल अस्पताल ही जाते थे किन्तु न उनका आकर्षण घटा न श्रद्धालुओं की उनके प्रति आस्था। बीते 2 माह से वे मृत्यु से जूझ रहे थे। 15 अगस्त की शाम प्रधानमंत्री के अस्पताल पहुंचते ही उनका स्वास्थ्य बिगडऩे का समाचार पूरे देश में फैल गया। भले ही उनकी सांसें चलती रहीं परन्तु मस्तिष्क तो कभी का मर चुका था। लेकिन उनके प्रति भावनाओं का जो ज्वार उमड़ पड़ा वह सत्ता और संपत्ति के मालिक बने बैठे तमाम लोगों के लिये ईष्र्या का कारण बन सकता है। दरअसल अटल जी ने ये प्यार अपने आचरण से कमाया था और यही वह विरासत है जो वे आने वाली पीढिय़ों के लिए बतौर नसीहत छोड़ गए हैं। कल से ही ये सुनाई दे रहा है कि एक युग समाप्त हो गया किन्तु मैं उससे भी आगे बढ़कर कहूंगा कि एक युग निर्माता चला गया। समन्वयवादी सोच का महान प्रवक्ता चिरनिद्रा मग्न हो चुका है। सार्वजनिक जीवन में ध्येयनिष्ठा का एक प्रमाणपत्र ओझल हो गया। राजनीति सदृश प्रदूषित हो चुके क्षेत्र में आने वाले ताजी हवा के झोके ने दिशा बदल ली। इसे विधि का विधान या क्रूर मजाक ही कहा जा सकता है कि जिस व्यक्ति की जिह्वा पर सरस्वती विराजमान थी, वह मूक होकर रह गया। मंच पर जिसके आते ही लाखों जन करतल ध्वनि और जय-जयकार किया करते थे वह बिस्तर रूपी शैय्या तक सीमित होकर रह गया। प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भी यदि वे काव्यपाठ करते होते तो साहित्याकाश में एक नक्षत्र की तरह चमकते रहते। उनके विचार सुनकर अपनी प्यास बुझाने लोग आतुर थे किन्तु व्याधियों ने उन्हें केवल इस रूप में जीवित रखा कि बस सांसें ही चलती रहीं। कल शाम वे भी साथ छोड़ गईं और अटल जी उस अटल सत्य के साथ चल पड़े जिसे मृत्यु कहा जाता है। स्वाधीन भारत का राजनीतिक इतिहास उनके बिना अधूरा रहेगा। पं. नेहरू के बाद वे ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्हें लोग प्यार करते रहे। गंभीर से गंभीर वातावरण को उनका अद्भुत हास्यबोध सरलता में बदल देता था किन्तु उनके कटाक्ष, व्यंग्य की वह विधा थी जो दर्द की बजाय मिठास का एहसास कराती थी। संसद की लायबे्ररी में उनके उन भाषणों का रिकार्ड है जब सदन की कार्यवाही का प्रसारण टेलीविजन से नहीं होता था। युवा पीढ़ी के जो भी लोग सार्वजनिक जीवन में जाना चाहते हों उन्हें उनका अध्ययन करना चाहिए। यू-ट्यूब के जरिये अटल जी को बोलते हुए सुनना भी सरल हो गया है। उनका कृतित्व उनकी वाणी के माध्यम से भविष्य का भी मार्गदर्शन करता रहेगा। अटल जी का अवसान एक व्यक्ति या राजनेता का जाना नहीं है। वे एक पथिक थे उस राष्ट्रवादी विचारधारा की राह के जो पथरीली और कांटों से भरी थी, धूल भरी आंधियोंं में लक्ष्य तक निगाह दौड़ाना भी मुश्किल था किन्तु वे न अटके, न भटके, न रुके, न ही थके और 'लक्ष्य तक पहुंचे बिना पथ पर पथिक विश्राम कैसाÓ का भाव लेकर चलते रहे। एक व्यक्ति जो एक दशक से लोगों की निगाहों से दूर रहा हो, जिसके संग कोई पद और उससे जुड़ा रूतबा न हो और जिसके पास किसी को कुछ देने का सामथ्र्य भी नहीं बचा हो उसके चले जाने पर यदि करोड़ों लोग दुखी हैं तब सहसा मन में से आवाज उठती है कि वह कोई महामानव ही होगा। उनके महाप्रयाण से उत्पन्न शून्य को भर पाना फिलहाल तो असंभव है क्योंकि उनकी विराटता दशकों की तपस्या से प्राप्त वरदान था। आज के दौर में उन जैसे बहुमुखी प्रतिभावान तपस्वी नजर नहीं आते। राजनीति व्यापार और सत्ता साध्य बन चुकी है। सिद्धांतों का सौदा होने लगा है और आदर्श दीवार पर मढ़कर टांग दिये गये हैं। ऐसे में अटल जी का अभाव हर पल महसूस किया जावेगा किन्तु उनकी मृत्यु पर शोक मनाने की बजाय आशाओं के उन दीपों को जलाये रखने की आवश्यकता है जिन्हेंंं उन्होंने बुझने नहीं दिया। रास्वसंघ की संस्कार शाला से दीक्षित होने के बाद पं. दीनदयाल उपाध्याय के साहचर्य ने अटल जी के जीवन को जो दिशा दी उससे वे कभी विमुख नहीं हुए। अपने गुरु और वैचारिक विरोधी डा. शिवमंगल सिंह 'सुमनÓ की ये पंक्तियां सदैव उन्हें पे्ररणा देती रहीं - हार में या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं, संघर्ष पथ पर जो मिला ये भी सही वो भी सही। यही कारण था कि जय और पराजय में पूरी तरह निर्विकार रहते हुए वे कत्र्तव्यपथ पर चलते रहे। आज उनका पार्थिव शरीर भी अग्नि के सान्निध्य में अवशेष होकर रह जाएगा। बरसों पहले उन्होंने लिख दिया था- लौटकर आऊंगा, कूच से मैं क्यों डरूं?
अटल जी आप जरूर लौटेंगे, ये देश आपकी प्रतीक्षा करेगा।
अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि।
- रवीन्द्र वाजपेयी
--संपादक

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