Friday 10 August 2018

एक बार फिर विपक्षी एकता की हवा निकली


लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के बाद गत दिवस राज्यसभा उपसभापति के चुनाव में सत्तारूढ़ गठबंधन को मिली कामयाबी से ये साबित हो गया कि विपक्षी एकता का गुब्बारा फूलने के पहले ही फूटने लगता है। अविश्वास प्रस्ताव के पहले कांग्रेस बहुत आत्मविश्वास से भरी थी। सोनिया गांधी ने तो एक दिन पहले इस बात का दावा किया कि उनके साथ संख्या बल है। शायद उन्हें उम्मीद रही होगी कि भाजपा से नाराज शिवसेना भी विपक्ष के साथ मतदान करेगी जो मोदी सरकार का दबदबा  कम होने का संकेत होता किन्तु वैसा हुआ नहीं। उसके बाद जब राज्यसभा के उपसभापति का चुनाव आया तब भी काँग्रेस को लगा कि वह सत्तारूढ़ गठबंधन के पास उच्च सदन में बहुमत नहीं होने का लाभ उठाकर इस महत्वपूर्ण पद को हथिया लेगी जिससे सरकार को कदम-कदम पर दिक्कतों का करना पड़े। शुरू-शुरू में शिवसेना और अकाली दल ने आंखें तरेरी भी क्योंकि उन्हें लगता था कि भाजपा इस पद पर उनकी पार्टी के किसी सदस्य को आसीन करवाएगी लेकिन ज्योंही नीतिश कुमार के कहने पर हरिवंश प्रसाद सिंह को राजग उम्मीदवार घोषित किया तब दोनों को लग गया कि भाजपा ने संख्याबल का इंतजाम कर रखा है इसलिए वे गुस्सा थूककर हरिवंश के समर्थन में आ खड़े हुए। कांग्रेस चाहती थी कि वह किसी विपक्षी दल के उम्मीदवार को मुकाबले में उतारकर बड़प्पन दिखाए। तेलुगु देशम और बीजू जनता दल पर डोरे डाल गए लेकिन वे जब कन्नी काट गए तब बीके हरिप्रसाद के रूप में कांग्रेस ने मोर्चा संभाला लेकिन विपक्षी एकता की उम्मीदें एक बार फिर धरी की धरी रह गईं। ये बात सही है कि विपक्ष सांकेतिक लड़ाई पहले भी लड़ता रहा है किंतु लोकसभा चुनाव में विपक्ष का महागठबंधन बनाने का जो प्रयास काँग्रेस की पहल पर चल रहा है उसे लगातार झटके लगने से ये आशंका बलवती हो रही है कि जैसा राहुल गांधी चाह रहे हैं वैसा होने की संभावना कम ही है। आम आदमी पार्टी द्वारा कल के मतदान में शामिल न होने से भी ये साबित हो गया कि अहं की टकराहट भाजपा विरोधी मतों के बंटवारे को रोकने में बड़ी बाधा बन रही है। यही वजह है ममता बैनर्जी तक ने अब तक  राहुल के नेतृत्व में काम करने की हामी नहीं भरी। चंद्राबाबू नायडू भी भाजपा से पंगा लेने के बावजूद कांग्रेस के जाल में फंसने को तैयार नहीं है। अखिलेश यादव और मायावती भी रुक-रुककर कांग्रेस को चिढ़ाते रहते हैं। करुणानिधि के बाद द्रमुक का रुख कब बदल जाए कहना मुश्किल है। कुल मिलाकर संसद के इसी सत्र में लगातार दो बार विपक्षी एकता की पोल खुलने से सत्तारूढ़ गठबंधन का हौसला जहां बुलंद है वहीं राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस अन्य विपक्षी दलों को उस तरह अपने पाले में नहीं खींच पा रही जैसा सोनिया गांधी की अगुआई में 2004 के लोकसभा चुनाव में होने से वाजपेयी सरकार की वापसी नहीं हो सकी। इस संबंध में उल्लेखनीय बात ये है कि एक तरफ  जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावी गोटियां बिठानी शुरू कर दीं वहीं कांग्रेस अभी भी हवा-हवाई ही नजर आ रही है। बीके हरिप्रसाद को मैदान में उतारने के बाद जैसी रणनीति होनी चाहिए थी वैसी कहीं से भी नजर नहीं आई। जिस बीजू जनता दल को कांग्रेस उपसभापति का पद देने तैयार थी वह खुलकर भाजपा के साथ चला गया। उद्धव ठाकरे भी एक तरफ  तो भाजपा के विरुद्ध ज़हर उगलने से बाज नहीं आते वहीं दूसरी तरफ वे केंद्र सरकार को टेका भी लगाते रहते हैं। अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान से दूर रहकर शिवसेना ने एक तरह से भाजपा की सहायता ही की क्योंकि प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने से विपक्ष का मनोबल ऊंचा हो जाता। इसी तरह कल के मतदान में यदि उसके सांसद हरिप्रसाद का साथ देते तो हरिवंश की जीत का अंतर कम होने से सरकार की किरकिरी हो सकती थी किन्तु कांग्रेस एक बार फिर चूक गई। राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बने काफी समय हो गया लेकिन वे अभी तक नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर खुद को स्थापित नहीं कर पा रहे और इसी वजह से विपक्ष के अनेक दल महागठबंधन को लेकर असमंजस में हैं। उप्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन करने का जो नुकसान अखिलेश यादव को हुआ उससे भी बाकी विपक्षी नेता सशंकित हैं। यही कारण है ममता बैनर्जी, नवीन पटनायक और चद्राबाबू नायडू जैसे विपक्षी दिग्गज राहुल को नेता मानने के लिए तैयार नहीं हैं। आने वाले कुछ महीनों में कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। यदि विपक्षी एकता का इसी तरह मजाक उड़ता रहा तब कांग्रेस के लिए भाजपा को पटकनी देना कठिन हो जाएगा। राहुल के बारे में ये धारणा प्रबल होती जा रही है कि वे शुरुवात तो जोरशोर से करते हैं किन्तु मुकाबले के आखिरी चरण में कमजोर पड़ जाते हैं। उप्र, गुजरात और कर्नाटक इसके उदाहरण हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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