Thursday 9 August 2018

खजाना लुटाकर चुनाव जीतना सुशासन नहीं


मप्र में चुनावी माहौल शबाब पर है। विपक्ष आक्रामक मूड में शिवराज सरकार की नाकामियों को जोरशोर से उठा रहा है। वहीं भाजपा ताबड़तोड़ रैलियों के जरिये ब्रांड शिवराज को भुनाने में जुटी है। जन आशीर्वाद यात्रा में उमड़ रही भीड़ से भाजपा जहां उत्साहित है वहीं विपक्ष के अनुसार प्रशासन की मदद से प्रायोजित भीड़ एकत्र की जा रही है। स्थानीय निकायों के कुछ उपचुनाव में काँग्रेस को मिली सफलता से सत्तारूढ़ दल में घबराहट है, भले ही वह इसे व्यक्त न कर रहा हो। लेकिन मुख्यमंत्री जिस तरह खैरात बाँट रहे हैं उससे लगता है उन्हें भी ये समझ में आने लगा है कि मुकाबला उतना आसान नहीं है जितना भाजपा वाले बता रहे हैं। गत दिवस उनकी सरकार ने किसानों पर बकाया बिज़ली बिल संबंधी प्रकरण वापिस लेने के आदेश पारित कर एक लाख किसानों को उपकृत कर दिया। इसके पहले गरीब वर्ग भी बिजली चोरी के आरोपों से मुक्त किया जा चुका है। 200 रु में महीने भर बिजली देने का ऐलान भी हो ही चुका है। इस तरह के मुफ्त उपहार चुनावी राजनीति का स्थायी हिस्सा बन गए हैं। इसलिए केवल शिवराज सिंह चौहान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके पहले के मुख्यमंत्री और सरकारें भी सरकारी खज़ाना लुटाकर ऐसी ही राजशाही उदारता दिखाती रही हैं। मुफ्त बिजली की सौगात मप्र में स्व.अर्जुन सिंह के कार्यकाल में शुरू हुई थी। एक बत्ती कनेक्शन और जमीनों के पट्टे जैसे उपहारों को बांटकर अर्जुन सिंह तो गऱीबों के मसीहा बन बैठे लेकिन मप्र विद्युत मंडल की रईसी कंगाली में बदल गई। इसी के साथ मप्र में सरकारी जमीन पर कब्जा करने की संस्कृति भी पनपी। गऱीबों की बदहाली दूर करना बुरा नहीं है लेकिन मुफ्तखोरी की संस्कृति के कारण राज्य सरकार का खजाना खाली हो चुका है और वह कई लाख करोड़ के कर्जे में फंसी है। वेतन बांटने तक के लाले पड़े हुए हैं। इस सबका कारण ऐसे लोक-लुभावन निर्णय हैं जिनसे एक खास वर्ग को खुश करने के चक्कर में बाकी के कंधों पर बोझ बढ़ा दिया जाता है। उदाहरण के तौर पर बिजली को ही लें तो भले ही शिवराज सिंह के शासन काल में मप्र पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह सरकार के दौर के अंधेरे युग से बाहर आ गया हो और बिजली आपूर्ति की स्थिति में जबरदस्त सुधार होने के अलावा प्रदेश बीमारू राज्य की श्रेणी से निकलकर विकासशील राज्यों की कतार में खड़ा हो गया हो किन्तु इसकी आर्थिक स्थिति चिंताजनक है। सस्ती और मुफ्त बिजली बांटकर भले ही शिवराज सरकार चुनाव जीतने की तैयारी कर रही हो लेकिन इस खैरात से बाकी बिजली उपभोक्ताओं की जेब काटने का कारोबार चल पड़ा है। बिजली विभाग शहरी घरेलू और व्यावसायिक उपभोक्ताओं पर अनाप-शनाप बिल थोपकर उनका गुस्सा बढ़ा रहा है। बिजली चोरी के  प्रकरण जबरिया लादकर एक बहुत बड़े वर्ग की नाराजगी मोल लेने की जो मूर्खता की जा रही है वह भाजपा की चुनावी सम्भावनाओं को पलीता लगाने का आधार बन सकती है। लोकतन्त्र एक कल्याणकारी शासन व्यवस्था है जिसमें साधनहीन वर्ग को शासन का सहयोग और संरक्षण दोनों मिलना चाहिए किन्तु इसके लिए आर्थिक संतुलन बनाए रखना भी जरूरी है। शिवराज सिंह इन दिनों जिस तरह की उदारता दिखा रहे हैं उससे लगता है उन्हें किसानों और गरीब वर्ग की नाराजगी का एहसास हो चला है वरना डेढ़ दशक से चले आ रहे भाजपाई शासन में जनहित के जिन कामों का दावा किया जा रहा है उनके बाद बिजली चोरी के मामलों को वापिस लेने की क्या जरूरत पड़ गई ये समझ से परे है। मुख्यमंत्री एक सुलझे और सरल व्यक्ति होने के साथ ही एक कुशल राजनेता भी हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में वे ही भाजपा के चेहरे के तौर पर पेश किए जा रहे हैं। उस नाते पार्टी को सत्ता में वापिस लाने का दायित्व भी उन्हीं पर है किंतु इसका ये मतलब कतई नहीं कि खजाने को दोनों हाथों से उलीच दिया जाए। बिजली चोरी और वसूली के प्रकरणों में होने वाला फर्जीबाड़ा किसी से छिपा नहीं है। बिजली महकमे के अधिकारी-कर्मचारी इसे लेकर ब्लैकमेल भी करते हैं। बावजूद इसके थोक के भाव एक लाख प्रकरण वापिस लेने से आने वाले समय में नई समस्याओं के सामने आने का खतरा बढ़ जाएगा। भाजपा नेतृत्व को ये बात समझनी चाहिये कि सुशासन का अर्थ दबाव में आकर काम करना कतई नहीं है। सिर्फ  चुनाव जीतने के लिए जिस तरह की घोषणाएं और फैसले किये जा रहे हैं वे भले ही भाजपा को सत्ता में वापिस लौटा लाएं किन्तु कालांतर में वे नई सरकार के लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े करने का कारण बने बिना नहीं रहेंगे। और फिर विचारणीय बात ये भी है कि इस तरह के उपाय पूरी तरह अस्थायी होते हैं तथा जरूरी नहीं है कि मतदाता उनसे पूरी तरह प्रभावित हो ही जाए। वरना तो सत्ता में रहकर खैरात बांटने वाली पार्टी कभी चुनाव हारे ही न। यूपीए सरकार ने मनरेगा में अरबों का बजट रखा परन्तु 2014 में उसको जनता ने नकार दिया। उ.प्र. की सपा सरकार ने भी मतदाताओं को खुश करने के लिए उपहारों की भीड़ लगा दी लेकिन नतीजा जबर्दस्त पराजय के रूप में सामने आया। और भी इस तरह के उदाहरण हैं जिनसे साबित हो जाता है कि अब लोग ठोस काम चाहते हैं और मतदान करते समय उन्हें ही याद रखते हैं। यदि मुफ्त बिजली जमीनों के पट्टे तथा ऐसी ही अन्य योजनाएं कारगर रहतीं तब तो कांग्रेस म.प्र. में कभी हारती ही नहीं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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