Saturday 18 August 2018

काश! ये माहौल आगे भी बना रहे

दिल्ली की सड़कों पर कल लाखों की भीड़ एक ऐसे नेता को अंतिम विदाई देने उमड़ पड़ी जिसे उसने बीते एक दशक से न देखा और न ही सुना था। देश की राजसत्ता में सबसे बड़े चेहरे के तौर पर प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के साथ अनेक राज्यों के मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री भी अंतिम यात्रा के पूरे मार्ग में पैदल चले। उनमें से अधिकतर ऐसे होंगे जो अपने घर या दफ्तर के भीतर छोड़ दें तो 100 कदम भी शायद ही चलते होंगे। पूरा देश शोकमग्न था। टीवी चैनलों ने अपने सभी कैमरे और संवाददाता उन ऐतिहासिक क्षणों को प्रसारित करने लगा दिये। स्टूडियो में चल रही गरमागरम बहसें कल बंद रहीं। क्या समर्थक और क्या विरोधी सभी पूर्व प्रधानमंत्री तथा भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी के अवसान से दुखी थे। सारे राजनीतिक मतभेद एक बात पर आकर खत्म हो गए  कि अटल जी अजातशत्रु थे। वैचारिक भिन्नता के बावजूद उनकी स्वीकार्यता और सम्मान निर्विवाद था। सोशल मीडिया पर कुछ सिरफिरे या यूं कहें कि कुंठित लोगों को छोड़ दें तो भाजपा का घोर विरोधी भी बिना लाग लपेट के अटल जी के गुणगान में लगा था। सत्ता और संगठन से पूरी तरह दूर ही नहीं बेखबर हो चुके अटल जी की सांसारिक मौजूदगी केवल उनके शरीर के तौर पर ही रह गई थी। दुनिया में होते हुए भी वे उससे बहुत दूर जा चुके थे। बावजूद उसके उनकी प्रशंसा का समुद्र उफान ले रहा था। उनकी समन्वयवादी राजनीति, शालीनता, सौजन्यता और बड़प्पन का बखान करने के लिए शब्द कम पड़ रहे थे। एक अभूतपूर्व वातावरण पूरे देश में था जिसमें शोक से ज्यादा श्रद्धा थी, आंसुओं के साथ आभार था। एक अभूतपूर्व और काफी हद तक अकल्पनीय नजारा देखा और महसूस किया गया। महात्मा गांधी, पं. नेहरू, इंदिरा जी और राजीव गांधी को अंतिम विदाई देने के लिए भी भारी जनसमूह दिल्ली में उमड़ा था किन्तु वे सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय और प्रासंगिक थे जबकि अटल जी राजनीति तो दूर की बात रही निजी तौर पर भी पूरी तरह अलग-थलग होने के बाद भी यदि जनता की स्मृतियों में जीवन्त रहे तब आज के राजनेताओं के सामने एक बड़ा प्रश््रन है कि जब उनकी शान में कसीदे पढऩे में तो पार्टी और विचारधारा की संकुचित सीमाएं तोड़कर मुखरित होने में वे तनिक भी नहीं हिचके तो क्या वजह है जो राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त कटुता को दूर कर देश के विकास में एक सहमति बनाने से उन्हें रोक देती है? ये प्रश्न भाजपा से भी उतना ही है जितना अन्य दलों से। बीते दो दिनों से यदि देश केवल अटल मय रहा तो इसकी वजह न उनका पूर्व प्रधानमंत्री होना रहा और न ही भारत रत्न से अलंकृत होने के कारण उनकी वजनदारी बढ़ी। ये जरूर कहा जा सकता है कि यदि केन्द्र तथा विभिन्न राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं होती तब शायद सरकारी तामझाम उस तुलना में न हुआ होता किन्तु इसी के साथ ये कहना गलत नहीं होगा अटल जी चूंकि व्यक्ति से व्यक्तित्व बन चुके थे इसीलिए उनके प्रति सम्मान के लिए सरकारी संसाधनों की जरूरत नहीं थी। यही वजह है कि जब हर कोई कह रहा है कि वाजपेयी के न रहने से उत्पन्न शून्य नहीं भर सकता तब इस बात का जवाब भी तलाशा जाना चाहिए कि आखिर वाजपेयी शैली का नेता बनने और वैसी ही शालीन राजनीति करने से किसी को किसने रोका है? देश वही है, राजनीतिक पार्टियां भी कमोवेश वही हैं, अधिकतर नेता भी वही हैं और संसदीय प्रणाली भी अपरिवर्तित है। तब क्या बात है कि अटल जी की प्रशंसा को पराकाष्ठा तक ले जाने वाले स्वनामधन्य नेताओं में एक भी ऐसा नहीं है जिसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व से लेश मात्र भी ये एहसास होता हो कि वह अटल जी का प्रशंसक ही नहीं अपितु उनका सच्चा अनुयायी भी है। ये बात सही है कि पीढ़ीगत बदलाव के चलते राजनेताओं की चाल-ढाल बदली है किन्तु चरित्र बदल जाए ये जरूरी तो नहीं। पांच दशक के राजनीतिक जीवन का 80 फीसदी से ज्यादा समय विपक्ष में गुजारने के बाद भी यदि अटल जी का कद लम्बे समय तक सत्ता में बने रहे लोगों से बहुत ऊंचा था तब क्यों नहीं वे सत्ता का आकर्षण छोड़ उस कद के अनुरूप स्वयं को ढालने का प्रयास करते? अटल जी एक युगपुरुष थे किंतु उनके न रहने से वे संस्कार और सौजन्यता भी दम तोड़ दें जो उनकी पहिचान थे, ये जरूरी तो नहीं। सच्चाई ये है कि आज देश की राजनीति में चारित्रिक बदलाव की जरूरत है क्योंकि मतभेद बढ़ते-बढ़ते पहले तो मनभेद बने किन्तु अब शत्रुता में बदलते जा रहे हैं। संपर्क और संवाद में सहजता खत्म होती जा रही है। संसद जिस तरह महत्वहीन होने लगी है वह एक बड़े खतरे के तौर पर सामने है। इस स्थिति के लिये कौन ज्यादा कसूरवार है ये विवाद का विषय भले हो किन्तु निष्पक्ष आंकलन करें तो राजनीतिक परिदृश्य में जितने भी दल और उनके नेता हैं वे सभी किसी न किसी रूप में दोषी हैं। इसलिये अटल जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि देश की राजनीति का वह स्वर्णिम युग वापिस लौटे जब विपक्षी शत्रु नहीं होते थे। कल अटल जी का एक पुराना भाषण सुनने मिला जिसमें वे कह रहे थे कि लोकतंत्र वह व्यवस्था है जिसमें बिना सेना की मदद लिये भी सत्ता बदली जा सकती है तथा बिना कटुता पैदा किये विरोध संभव है। उनके निधन से रिक्त हुआ स्थान भरना किसी एक व्यक्ति के लिये तो शायद संभव न हो सके क्योंकि वटवृक्ष का विस्तार एक-दो साल में नहीं होता किन्तु सभी पार्टियां चाहें तो देश और लोकतंत्र के हित में संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर मौजूदा वातावरण में गुणात्मक बदलाव करते हुए सकारात्मक सुधार ला सकती हैं। देश आज जिस मोड़ पर खड़ा है उसमें आपसी समन्वय एवं सहयोग सर्वोच्च प्राथमिकता है। अटल जी के अवसान के बाद जो राजनीतिक सौजन्यता एवं परिपक्वता नजर आई उसे बनाए रखने की नितांत आवश्यकता है वरना संसदीय प्रजातंत्र के नाम पर चल रहा फूहड़पन देश के लिये मुसीबत बन जाएगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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