Sunday 25 February 2024

उप्र में 80 फीसदी सीटों पर कांग्रेस के न लड़ने से कार्यकर्ता और समर्थक निराश



उ.प्र में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच लोकसभा चुनाव की सीटों के बंटवारे की गुत्थी सुलझने को इंडिया गठबंधन की बड़ी सफलता प्रचारित किया जा रहा है। इसके अंतर्गत अखिलेश यादव ने कांग्रेस को महज 17 सीटें दी हैं जबकि वह 21 मांग रही थी। इस समझौते के बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच दिल्ली , हरियाणा , गुजरात और गोवा में भी सीटों का बंटवारा तय हो गया। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण राज्य उ.प्र ही है जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होकर जाता है। 80 सीटों वाले इस राज्य ने देश को सबसे अधिक प्रधानमंत्री दिए। स्व अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी क्रमशः म.प्र और गुजरात के मूल निवासी होने के बावजूद प्रधानमंत्री तभी बने जब उन्होंने उ.प्र से लोकसभा चुनाव जीता। और ये भी कि इस राज्य में ज्यादा सीटें जीतने पर ही भाजपा को केंद्र की सत्ता मिली। 2014 की मोदी लहर में भाजपा को यहां 71 और 2019 में 62 सीटें मिली थीं जिसके कारण वह स्पष्ट बहुमत हासिल करने में कामयाब हुई। 

       इस बार विपक्ष का प्रयास है कि भाजपा को उ.प्र में घेरकर उसकी सीटें कम की जाएं ताकि वह बहुमत से पीछे रहे। शुरुआत में इंडिया गठबंधन में सपा और कांग्रेस के अलावा रालोद भी था । लेकिन जयंत चौधरी अचानक इससे दूर हो गए। बहरहाल , सपा और कांग्रेस द्वारा सीटें बांटने के बाद इंडिया की स्थिति तो स्पष्ट हो गई किंतु अभी भाजपा , अनुप्रिया पटेल , जयंत चौधरी , ओमप्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के बीच सीटों का आवंटन नहीं होने से एनडीए की मोर्चेबंदी साफ नहीं हो सकी। हालांकि उसमें अधिकतर सीटें भाजपा ही लड़ेगी और ज्यादा से ज्यादा 10 सीटें सहयोगियों को दी जाएंगी। दूसरी तरफ राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्य में मात्र 20 फीसदी सीटों पर लड़ेगी जिनमें केवल रायबरेली उसके पास है। जो 17 सीटें सपा ने उसे दी हैं उनमें आज की स्थिति में कांग्रेस के जीतने की संभावनाएं बहुत ही कम हैं । सबसे बड़ी बात ये हुई की मात्र 17 सीटें मिलने के कारण बाकी की 63 में कांग्रेस परिदृश्य से बाहर हो गई। वैसे भी उसका मत प्रतिशत चुनाव दर चुनाव घुटता चला गया जिससे संगठन भी बेहद कमजोर हो गया। इसीलिए ये माना जा रहा है कि वह पांच सीटें जीत ले तो आश्चर्य होगा। रायबरेली से सोनिया गांधी के न लड़ने के फैसले के बाद अब तो उसे लेकर भी पार्टी निराश है। 

      हालांकि अखिलेश भी कांग्रेस की खस्ता हालत से परिचित हैं और इसीलिए वे उसके साथ गठबंधन से हिचक रहे थे । लेकिन जयंत चौधरी के भाजपा की ओर झुकने के बाद सपा प्रमुख कांग्रेस को अपने साथ जोड़ने बाध्य हो गए । लेकिन इस गठजोड़ के बाद भी भाजपा को रोक पाना इंडिया के लिए कठिन है क्योंकि सपा और बसपा 2019 में जब मिलकर लड़े तब दोनों ने मिलकर 15 सीटें जीती थीं । इस बार बसपा एकला चलो की नीति अपनाए हुए है। ये भी कहा जा रहा है कि ऐसा वह भाजपा के दबाव में कर रही है। चूंकि कांग्रेस का समर्थन या विरोध चुनाव परिणाम को प्रभावित करने लायक बचा नहीं इसलिए सपा भी बुरी तरह फंस गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव में उसके साथ रहे ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य साथ छोड़ चुके हैं। वहीं पल्लवी पटेल भी खुलकर विरोध कर रही हैं। भाजपा ने दलित और ओबीसी वर्ग में अपनी पकड़ को जहां मजबूत किया वहीं राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा होने के बाद सवर्ण मतदाता थोक के भाव उसके साथ नजर आ रहा है। एक बात और जो इंडिया के साथ ही सपा को भी नुकसान पहुंचा रही है वह है किसी वरिष्ट नेता का न होना। 2019 में मुलायम सिंह की भौतिक उपस्थिति के कारण सपा को कुछ राहत थी जिससे वह इस बार वंचित है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का आभामंडल भी पूरे प्रदेश में भाजपा की ताकत है। 

        दरअसल सपा के साथ सीटों का बंटवारा कांग्रेसजनों को ही नागवार गुजर रहा है। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने तो खुलकर अपनी नाराजगी जाहिर भी कर दी है जबकि अन्य कुछ नेता दबी जुबान असंतोष जताते हुए अलग रास्ता तलाश रहे हैं। वैसे भी उ.प्र में पार्टी के पास कोई बड़ा चेहरा बचा ही नहीं है । यदि अमेठी और रायबरेली से गांधी परिवार का कोई सदस्य नहीं लड़ा तब इस राज्य में उसका सफाया होने की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता । 80 फीसदी लोकसभा सीटों पर अपना प्रत्याशी नहीं होने से उसके कार्यकर्ता और समर्थक दिशाहीन होकर रह गए हैं। हालांकि राजनीति के जानकार ये भी कह रहे हैं कि अखिलेश ने कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल कर एक तीर से कई निशाने साध लिए। पहला तो बसपा को इंडिया में आने से रोक लिया और दूसरा 67 सीटों पर कांग्रेस के विरोध की संभावना को खत्म करने में भी कामयाब हो गए। कुल मिलाकर इस समझौते से समाजवादी पार्टी भले ही अपनी चार - पांच सीटें बचाने में कामयाब हो जाए किंतु कांग्रेस के हाथ खाली ही रहेंगे। और इसके लिए गांधी परिवार की अकड़ ही जिम्मेदार है। जो काम प्रियंका वाड्रा ने चार दिन पहले किया वह हफ्ते दो हफ्ते पहले कर लिया जाता तब शायद अखिलेश न्याय यात्रा के उ.प्र में घुसते ही उसके साथ जुड़ते जिसका फायदा इंडिया को होता। लेकिन सीटों का बंटवारा तब हुआ जब यात्रा राज्य से बाहर निकलने को है। आगरा में अखिलेश का उसमें शामिल होना भी महज चेहरा दिखाना होगा। 

      उ.प्र में कांग्रेस का पक्ष प्रभावशाली ढंग से रखने वाले आचार्य प्रमोद कृष्णम के भाजपा के साथ जुड़ने से भी पार्टी को बड़ा झटका लग गया। लोकसभा चुनाव नजदीक आते तक कांग्रेस से नेताओं के बाहर निकलने सिलसिला जारी रहने की संभावना बढ़ती जा रही है। कांग्रेस समर्थकों का मानना है कि यदि पार्टी अकेले दम पर लड़ती तो पूरे प्रदेश में उसकी उपस्थिति महसूस की जाती । उस स्थिति में भी वह अमेठी और रायबरेली के अलावा और किसी सीट की उम्मीद नहीं कर सकती थी और सपा से गठजोड़ के बाद भी वह वहीं अटकी हुई है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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