Tuesday 9 April 2024

निवेशकों का उत्साह मोदी सरकार की वापसी का संकेत

लांकि शेयर बाजार के उतार - चढ़ाव को  चुनाव परिणामों का संकेत समझ लेना पूरी तरह सही तो नहीं कहा जा सकता किंतु देश में उदारीकरण आने के बाद  विदेशी निवेशक भी भारतीय बाजारों में पूंजी निवेश करने लगे हैं। इसका कारण भारत का बड़े उपभोक्ता बाजार की स्थिति से निकलकर निर्यातक की भूमिका में आना है। पहले केवल सॉफ्टवेयर निर्यात में भारत का दबदबा था किंतु अब मोबाइल  और दवाओं के अलावा  खाद्यान्न तथा रक्षा सामग्री का बड़े पैमाने पर निर्यात होने से वैश्विक  अर्थव्यवस्था में भारत एक महत्वपूर्ण  हिस्सेदार के तौर पर उभरा है। कोविड काल में जब दुनिया के ज्यादातर  संपन्न और शक्तिशाली देश आर्थिक मोर्चे पर मुसीबतों का सामना कर रहे थे तब भारत में रिकार्ड मात्रा में विदेशी पूंजी का आना इस बात को प्रमाणित करने पर्याप्त है कि वह न सिर्फ राजनीतिक स्थिरता अपितु आर्थिक दृष्टि से भी सुदृढ़ होने की ओर अग्रसर है। कोविड की विदाई होते - होते दुनिया रूस - यूक्रेन युद्ध के कारण नई परेशानी में फंस गई। और फिलहाल इजराइल और फिलिस्तीनियों के बीच गाज़ा पट्टी में जारी युद्ध समस्या बना हुआ है। भारत इन सभी संकटों से खुद को बचाकर जिस तरह आर्थिक तौर पर दुनिया भर के निवेशकों को आकर्षित कर रहा है उससे इतना तो स्पष्ट है उन्हें इस बात का विश्वास हो चला है कि लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार की वापसी सुनिश्चित है।  राजनीति की नब्ज पर हाथ रखने वाले भी अब दबी जुबान ही सही किंतु ये कहने लग गए हैं कि भले ही भाजपा को 370 और एनडीए को 400 सीटें मिलने का दावा यथार्थ में न बदले किंतु विपक्ष को सत्ता मिलने की संभावना  लगातार क्षीण होती जा रही है। इसका सबसे बड़ा कारण आपसी समझ का अभाव है। कहने को इंडिया नामक गठबंधन अस्तित्व में जरूर आ गया किंतु  उसमें शामिल पार्टियां अपने निजी हितों को लेकर जिस प्रकार से अड़ियल रवैया दिखाती आईं हैं उसकी वजह से भले ही राज्य विशेष में गठबंधन का कोई घटक भाजपा का मुकाबला कर रहा हो किंतु उसे संयुक्त विपक्ष का स्वरूप नहीं मिल पा रहा। भाजपा के विरुद्ध एक साझा उम्मीदवार खड़ा करने की मुहिम भी उतनी असरकारक नजर नहीं आ रही।  इस वजह से एक विपक्षी दल के वोट दूसरे को स्थानांतरित होना मुश्किल लगता है। और फिर नीतिगत मुद्दों पर भी एक स्वर नहीं सुनाई देने से  दिशाहीनता उजागर होने लगी है। कांग्रेस द्वारा जारी न्यायपत्र की भाजपा द्वारा की गई आलोचना तो समझ में आती है किंतु इंडिया के घटक दल सीपीएम के नेता केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने भी उस पर तीखी टिप्पणियां कर डालीं । इसी तरह राहुल गाँधी अपनी सभाओं में जिन वायदों और गारंटियों का जिक्र कर रहे हैं उनको गठबंधन के सदस्यों की ओर से समर्थन नहीं मिलना भी सवाल खड़े कर रहा है। यही वजह है कि प्रसिद्ध  स्तंभकार और चुनाव विश्लेषक भी अब इस बात की संभावना व्यक्त करने लगे हैं कि आएंगे तो मोदी ही। प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक प्रशांत किशोर ने भी कहना शुरू कर दिया है कि भाजपा 300 से अधिक सीटें लेकर सत्ता में लौटेगी। उन्होंने श्री गाँधी पर जिस प्रकार की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां कीं उससे ये लगने लगा है कि वे एक बार फिर असफल साबित होने जा रहे हैं। 1977 के बाद जब नई - नवेली जनता पार्टी मैदान में उतरी तब उसका कोई संगठनात्मक ढांचा तक न था। लेकिन राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की लंबी कतार जरूर थी। कहने को इंडिया के मंच पर भी विभिन्न पार्टियों के नेता नजर आते हैं किंतु उनमें न भावनात्मक एकजुटता है और न ही सैद्धांतिक। इस वजह से गठबंधन जिस मजबूत स्थिति में दिखना चाहिए था वह न हो सका। कांग्रेस को सबसे बड़े दल के नेता के तौर पर गठबंधन में कसावट लानी चाहिए थी किंतु वह चूक गई। यही वजह है कि श्री गाँधी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार घोषित नहीं किये जा सके। कांग्रेस  के बारे में वैसे भी ये बात सामने आ चुकी है कि वह बहुमत तो दूर की बात है अपनी वर्तमान स्थिति में सुधार कर ले तो वह बड़ी उपलब्धि होगी। यह  अवधारणा जितनी व्यापक होगी विपक्ष का उतना नुकसान होगा। कुल मिलाकर श्री गाँधी दो - दो बड़ी यात्राएं करने के बावजूद श्री मोदी की तुलना में बहुत कमजोर साबित हो रहे हैं। कांग्रेस से नेताओं का लगातार पलायन उसी वजह से हो रहा है। चुनाव 7 चरणों में होने से प्रचार अभियान लम्बा चलेगा जो विपक्ष के लिए समस्या बन गया है। भाजपा दक्षिण के जिन राज्यों में कमजोर है, वहाँ भी पूरी ताकत झोंक रही है जबकि भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों में  कांग्रेस आधे - अधूरे मन से लड़ती दिख रही है। सोनिया गाँधी की अस्वस्थता भी उसके लिए नुक्सानदायक है। अमेठी और रायबरेली जैसी सीटों पर उम्मीदवार चुनने में उदासीनता अच्छा संकेत नहीं है। 

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 रवीन्द्र वाजपेयी

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