Wednesday 17 April 2024

ईवीएम पर संदेह के बावजूद विपक्ष द्वारा जीत का दावा विरोधाभासी

म से चुनाव करवाने के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में गत दिवस हुई बहस आगे भी जारी रहेगी। वोटिंग  मशीन में बटन दबाने के बाद जो पर्ची निकलती है वह इस बात की पुष्टि करती है कि मतदाता द्वारा जिस प्रत्याशी को मत दिया गया वही उस पर्ची में अंकित हुआ। लेकिन ईवीएम का विरोध करने वालों को संदेह है कि ऐसा होता नहीं है। अर्थात बटन जिस चिन्ह का दबाया जाता है पर्ची भले उसकी नजर आये किंतु मत भाजपा को जाता है। इसलिए पर्चियाँ भी गिनी जानी चाहिए । कुछ लोगों का कहना है कि मतदान की प्रामाणिकता बनाए रखने के लिए पुरानी मतपत्र व्यवस्था पर वापस लौटना ही एकमात्र उपाय है। इसके पक्ष में अनेक देशों का उदाहरण भी अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया गया जहाँ आज भी मतपत्र से मतदान होता है। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता द्वारा जर्मनी का उल्लेख किये जाने पर न्यायाधीश ने पूछ लिया कि वहाँ की आबादी कितनी है ? साथ ही ये भी बताया कि उनके गृहराज्य प. बंगाल की जनसंख्या जर्मनी से अधिक है। चुनाव आयोग द्वारा दिये आंकड़े के अनुसार भारत में 97 करोड़ मतदाता हैं। यदि मतपत्र से चुनाव करवाए जाएं तो मतगणना में 12 दिन लगेंगे। इस बारे में चुनाव आयोग अनेक अवसरों पर स्पष्टीकरण दे चुका है। पिछले चुनाव के बाद ईवीएम  में गड़बड़ी बताने वालों को उसने  अपना आरोप साबित करने के लिए आमंत्रित किया किंतु तब विपक्षी दल या ईवीएम विरोधी संगठन उदासीन रहे। चुनाव जीतने वाले किसी भी विपक्षी प्रत्याशी और उनकी पार्टी ने कभी ईवीएम पर सवाल उठाया हो ये भी सुनने में नहीं आया। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ईवीएम के सबसे बड़े विरोधी हैं किंतु विधानसभा चुनाव में उनके पुत्र की जीत होने पर वे इसे जनता की जीत बताते रहे। सबसे चौंकाने वाली बात है कांग्रेस के न्याय पत्र (घोषणा पत्र) में ईवीएम से चुनाव न करवाने का वायदा गायब  है। इससे स्पष्ट है कि उसका विरोध महज राजनीतिक स्टंट है। अन्य विपक्षी पार्टियां भी हारने पर तो ईवीएम पर ठीकरा फोडती हैं किंतु विजय हासिल होने पर वे उसे दोष देना भूल जाती हैं। जहाँ तक बात चुनावों में  निष्पक्षता की है तो उसकी जरूरत और अहमियत दोनों से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। ईवीएम को भी चुनाव सुधार का हिस्सा मानकर ही लागू किया गया था। इसके उपयोग के बाद मतदान का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जो एक सकारात्मक उपलब्धि है। बीते 25 साल से ईवीएम के जरिये चुनाव करवाए जाते रहे। 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में इसी से कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आया। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सत्ता भी ईवीएम से ही निकली। हिमाचल, बिहार,  म.प्र, छत्तीसगढ़ , राजस्थान, प. बंगाल, तमिलनाडु, केरल , कर्नाटक झारखंड और तेलंगाना में भी बीते सालों में गैर भाजपाई  पार्टियां सत्ता हासिल करने में सफल रहीं किंतु किसी ने ईवीएम के विरुद्ध एक शब्द तक नहीं कहा। चुनाव आयोग और सरकार का साफ कहना है कि ईवीएम में यदि छेड़छाड़ साबित की जाए तो उसमें सुधार किया जा सकता है।लेकिन महज शिगूफा छोड़ते रहने से सिवाय भ्रम फैलने के और कुछ नहीं होता। कांग्रेस इसीलिए ईवीएम मुक्त चुनाव का वायदा करने से पीछे हट गई । लेकिन एक तरफ तो  राहुल गाँधी से लेकर अन्य जो  नेता ईवीएम पर आशंका व्यक्त कर रहे हैं वही दूसरी ओर भाजपा को बहुमत नहीं मिलने का दावा करने से भी बाज नहीं आ आ रहे। इस विरोधाभासी रवैये के कारण ही ये कहा जाने लगा है कि विपक्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में अपनी हार का अनुमान लगाने के बाद अभी से बहाने तलाशने में जुट गया है। ये सवाल भी उठने लगा है कि यदि परिणाम इच्छानुसार न आये तो विपक्ष के जीते हुए उम्मीदवार क्या त्यागपत्र दे देंगे? और भी अनेक सवाल हैं । ऐसा लगता है नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाये जाने के दावों के साथ ही ईवीएम में गड़बड़ी करने का आरोप लगाना अपनी असफलता छिपाने के लिए बलि के बकरे ढूढ़ने जैसा है। 2 दिन बाद जबकि मतदान का पहला चरण संपन्न होने वाला हो तब ऐसे विवाद उठाना विघ्नसंतोषी मानसिकता का प्रमाण नहीं तो और क्या है ? 


- रवीन्द्र वाजपेयी


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