Thursday 8 April 2021

राष्ट्रीय आपात्काल घोषित कर एक साल के लिए सभी चुनाव रोके जाएँ



कोरोना का दूसरा हमला पहले से ज्यादा शक्तिशाली है | गत वर्ष जब प्रधानमन्त्री ने अचानक देशव्यापी  लॉक डाउन की घोषणा की तब उसके तरीके और औचित्य को लेकर ढेर सारे सवाल उठे |  लेकिन इस साल बीते एक महीने में जिस तरह से संक्रमण ने सुरसा जैसा  मुंह फैलाया उसके बावजूद लॉक डाउन लगाने  के फैसले  को प्रदेश और स्थानीय प्रशासन के जिम्मे छोड़ने पर केंन्द्र सरकार से पूछा जा रहा है कि जब संक्रमितों का दैनिक आंकड़ा 1 लाख  25 हजार से भी ज्यादा हो चुका है जिसमें आगे भी वृद्धि की पूरी सम्भावना है तब भी वह इस बारे  में उदासीन क्यों  है ? जाहिर है पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव राष्ट्रव्यापी लॉक डाउन नहीं लगाने का कारण  हो सकते हैं किन्तु जब असम , पुडुचेरी , तमिलनाडु  और केरल में प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है तब बंगाल  छोडकर बाकी राज्यों के बारे में तो  फैसला लिया ही  जा सकता है | वैसे जिस वजह से केंद्र सरकार देश भर में लॉक  डाउन लगाने से पीछे हट रही है वह है अर्थव्यवस्था | गत वर्ष अनेक महीनों तक अधिकांश  उद्योग - व्यापार बंद पड़े रहने से अर्थव्यवस्था के  चिंताजनक स्थिति में आने से  विकास दर नकारात्मक दिशा में बढ़ गई | दिवाली के समय  लॉक डाउन हटने पर आर्थिक गतिविधियों ने दोबारा गति पकड़ी जिसका असर जीएसटी संग्रह में लगातार हुई वृद्धि के रूप में सामने आया | लेकिन फरवरी के बीच से ही कोरोना ने  वापिसी का संकेत  दे दिया | शुरू में लग रहा था कि महाराष्ट्र सहित  कुछ राज्यों में ही उसका असर  रहेगा लेकिन देखते  - देखते पूरा देश उसकी गिरफ्त में आ गया | इस बार उसकी गति बहुत तेज होने से चिकित्सा प्रबंध कम पड़ने लगे हैं | कहीं वेंटीलेटर की कमी है तो कहीं ऑक्सीजन की | अस्पतालों में बिस्तरों का अभाव होने से मरीजों को घर पर रहकर इलाज करने की सलाह  दी जा रही है | गम्भीर मरीजों को लगाये जाने वाले रेमडेसिवर इंजेक्शन की उपलब्धता भी पर्याप्त नहीं है | ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि जिस तरह सरकार  कोरोना की वापिसी   को लेकर निश्चिन्त हो चली  थी उसी तरह चिकित्सा जगत भी उसके पलटवार को लेकर बेफिक्र सा था | आम जनता की लापरवाही तो हमारे राष्ट्रीय चरित्र को दर्शाती ही  है | ऐसे में कोरोना को भी तेजी से पांव फैलाने का अवसर मिल गया | दरअसल जैसे ही टीकाकरण शुरू हुआ वैसे ही आम जनता में  ये अवधारणा प्रबल हो उठी कि उनके पास कोरोना से बचाव का रक्षा कवच आ गया है | लेकिन अभी तक जितने लोगों को टीके लगे हैं उस गति से तो ये काम पूरा होने में लंबा समय लगेगा | ऐसे में जो सामान्य तरीके हैं वे ही बचाव में सहायक होंगे जिनकी उपेक्षा करने का दुष्परिणाम देश भोग रहा है | टीका लगने के बाद भी अनेक लोगों को लापरवाही महंगी पड़ी है | लेकिन जनता को कसूरवार ठहराने मात्र से काम नहीं चलेगा क्योंकि राजनीति भी  उसे लापरवाह बनाने में सहायक है | मसलन राजनीतिक जलसों में कोरोना शिष्टाचार की जिस बेहयाई और दबंगी से धज्जियाँ उडाई जाती हैं वह भी संक्रमण के फैलाव की बड़ी वजह है | चुनाव वाले राज्यों में तो लगता ही नहीं कि कोरोना का कोई डर है | दिल्ली उच्च न्यायालय पूछ रहा है कि प्रचार करने वाले नेता मास्क क्यों नहीं  लगा रहे ? राजनीति का आलम ये है कि प्रधानमन्त्री द्वारा कोरोना  पर विचार करने बुलाई गई आभासी बैठक में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी हिस्सा नहीं लेंगीं | पहले भी ऐसा हो चुका है | हाल ही में पंजाब सहित कुछ राज्यों में राजनीतिक जलसों पर भी रोक लगाई गयी है | 2 मई को पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद आगामी वर्ष के मुकाबलों के लिए मैदान सजने लगेगा | राजनीतिक दलों के अपने स्वार्थ हैं | लेकिन मौजूदा हालात में लोगों की जान के साथ अर्व्यथवस्था को  बचाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए | इसके लिए ज़रूरी है राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर कम से कम एक साल तक के लिए सभी प्रकार के चुनाव पर रोक लगे | इससे सरकार के संसाधन तो बचेंगे ही उद्योग - व्यापार जगत पर राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे का दबाव भी कम होगा | सबसे बड़ा लाभ  केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर समन्वय कायम हो सकेगा |  दुर्भाग्य से हमारे देश में राजनेता चाहे सत्ता में बैठे हों या विपक्ष में , उनकी  नजर सदैव अगले चुनाव पर ही  रहती है | जिन राज्यों में  चुनाव हो रहे हैं या होने वाले हैं वहां के सभी नेता कोरोना को भूलकर वोट बटोरने की तरकीबें तलाशने में जुटे हैं और इस दौरान कोरोना संबंधी सावधानियों को  रद्दी की टोकरी में फेंक  दिया जा रहा है  | इस समस्या का हल केवल यही  है कि एक वर्ष तक देश को चुनाव के संक्रमण से मुक्त रखा जावे | लोकसभा के चुनाव तो अभी दूर हैं लेकिन  जिन राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल इस दौरान खत्म हो रहे हों वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया जावे | हालाँकि राजनीति के दुकानदारों को इसमें लोकतन्त्र के लिये खतरा  नजर आने लगेगा लेकिन चुनावों के दौरान जिस तरह की लापरवाही देखने मिलती है वह महामारी का कारण बन जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये | जनता की सुरक्षा को खतरे में डालकर करवाए जाने वाले चुनाव सत्ता की वासना मात्र हैं | जितना पैसा चुनावों में बर्बाद  किया जाता है उसका आधा भी कोरोना से बचाव पर खर्च किया जावे तो इस मुसीबत से जल्द छुटकारा मिलने के साथ ही  हजारों लोगों की ज़िन्दगी बच सकती है |

- रवीन्द्र वाजपेयी

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