Friday 10 November 2023

75 प्रतिशत आरक्षण : नीतीश का नया झुनझुना


बिहार विधानसभा ने आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 75 फीसदी करने संबंधी नीतीश सरकार के विधेयक को मंजूरी दे दी। विपक्ष में बैठी भाजपा ने भी इस विधेयक का समर्थन किया। यद्यपि वह जानती थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकतम 50 आरक्षण की सीमा तय कर रखी है और ये भी कि विधान परिषद की स्वीकृति मिलने के बावजूद केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल इस विधेयक को मंजूरी नहीं देंगे । फिर भी आरक्षण विरोधी होने के आरोप से बचने मजबूरीवश उसने नीतीश के इस राजनीतिक दांव का समर्थन किया। जातिगत जनगणना और जातीय - आर्थिक सर्वे के बाद नीतीश द्वारा अचानक 75 फीसदी आरक्षण का जिन्न बोतल से निकालकर विपक्ष को झटका देने की चाल तो चल दी किंतु वे भूल गए कि जाट , गुर्जर और मराठा जैसी जातियों को आरक्षण दिए जाने का फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने 50 प्रतिशत की सीमा से ज्यादा होने पर रोक दिया था। मौजूदा व्यवस्था में 10 फीसदी आरक्षण आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबके के लिए है जिसे मिलाने से वह 60 प्रतिशत होता है किंतु नीतीश ने उसमें 15 प्रतिशत की वृद्धि करने का निर्णय कर डाला। दरअसल जातिगत जनगणना के आंकड़े उनके गले की फांस बनने लगे थे। जिनके सार्वजनिक होते ही अनेक छोटी - छोटी जातियां उनको पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिलने से आंदोलित होने लगीं। लोकसभा चुनाव के पहले अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के उद्देश्य से नीतीश ने अचानक जो पैंतरे दिखाने शुरू किए उनके पीछे एक तीर से अनेक निशाने साधने की कोशिश है। अव्वल तो वे लालू परिवार को ये एहसास करवाना चाह रहे हैं कि अभी भी राज्य की राजनीति पर उनकी पकड़ कमजोर नहीं हुई है और दूसरा वे राष्ट्रीय राजनीति में ओबीसी के सबसे बड़े चेहरे बनकर सामाजिक न्याय के पुरोधा बनना चाह रहे हैं। इसके अलावा उनके ताजा राजनीतिक दांव के पीछे जो एक और वजह राजनीतिक प्रेक्षक समझ पा रहे हैं वह है उनके सुशासन बाबू की छवि का तार - तार हो जाना। कुछ समय पहले वे न जाने किस झोंक में तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री घोषित कर बैठे थे। इसी तरह पिछले विधानसभा चुनाव के अंतिम चरण के मतदान के पहले नीतीश ने आखिरी चुनाव जैसी बात कहकर भावनात्मक पांसा चला था। उस चुनाव में जनता दल (यू) पिछड़ गया और पहली बार भाजपा बड़े भाई की भूमिका में आ गई। हालांकि मुख्यमंत्री नीतीश ही बनाए गए किंतु जल्द ही वे अपने पुराने साथी लालू प्रसाद के साथ जुड़ गए । उसके बाद उनके और भाजपा के बीच कड़वाहट बढ़ती ही गई जिसके कारण वे उसे चिढ़ाने के लिए हर वह फैसला लेने पर उतारू हैं जो उसके साथ रहते करने में परेशानी महसूस करते थे। राजनीति और कानून के जानकार स्पष्ट तौर पर कह रहे हैं कि 75 फीसदी आरक्षण का फैसला केवल झुनझुना है जिसका लागू होना बिना संविधान संशोधन के असंभव है। देश के अनेक राज्यों में यह मुद्दा अनिर्णीत पड़ा हुआ है । लेकिन इससे अलग हटकर विषय ये है कि आरक्षण की पात्रता का निर्धारण करने की प्रक्रिया वास्तविक स्थिति से पूरी तरह अलग हटकर राजनीति से प्रेरित और निर्देशित है। नीतीश और उन जैसे अन्य राजनेता पिछड़ी और दलित जातियों के सामाजिक , शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान की बजाय इन वर्गों का राजनीतिक दोहन करने से आगे की सोच नहीं रखते । यही कारण है कि जो जातियां अपने को पिछड़ा कहलवाना अपमान समझती थीं वे भी अब आरक्षण के लिए आंदोलित हो रही हैं। नीतीश हालांकि पिछड़ी जाति से ताल्लुकात रखते हैं लेकिन उनकी छवि जातिवादी नेता की नहीं रही। भले ही वे जिन लोगों के साथ आगे बढ़े वे सभी कालांतर में जातिवादी सियासत में उलझ गए जबकि उन्होंने अपनी छवि अलग हटकर बनाई थी। लेकिन अचानक वे नए अवतार में आ गए हैं। इसका एक कारण ये भी है कि राहुल गांधी जिस तरह से जातिगत जनगणना के पैरोकार बनकर उभरे उससे वे आशंकित हो उठे हैं। इसीलिए ये जानते हुए भी कि 75 प्रतिशत आरक्षण का फैसला लागू नहीं हो सकेगा , उन्होंने ये दांव चल दिया। सही बात ये है कि दलित और पिछड़ों की राजनीति करने वाले राजनेता ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हैं जो उन वर्गों के उत्थान के नाम पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करते हैं। नीतीश को बिहार के सभी वर्गों का समर्थन मिलता रहा है। लेकिन जिन लालू के जंगल राज से उन्होंने बिहार को आजाद करवाने के लिए लंबा संघर्ष किया आखिरकार वे उन्हीं के मकड़जाल में फंसकर अपनी पुण्याई को गंवाते जा रहे हैं।

- रवीन्द्र वाजपेयी 


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