Saturday 18 May 2019

क्षेत्रीय पार्टियों के सामने कांग्रेस लाचार

लोकसभा चुनाव के अंतिम चरण का चुनाव प्रचार रुक जाने के बाद राजनीतिक दलों के नेताओं को कितना आराम मिला  ये तो वे ही जानते होंगे लेकिन जनता को बड़ी राहत मिल गई है। बीते अनेक महीनों से टीवी चैनलों और अखबारों में लोकसभा चुनाव को लेकर चल रही बहस ही छाई रहती थी। लेकिन इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और कि इतने लम्बे प्रचार के बावजूद कोई भी पार्टी जनमानस को पूरी तरह से प्रभावित नहीं कर सकी। भाजपा का दावा अपने बलबूते 300 से ज्यादा सीटें जीतने का भले हो लेकिन आंध्र, तेलंगाना, तमिलनाडु और काफी हद तक केरल में उसका प्रभाव न के बराबर या  बेहद सीमित है। रही बात बंगाल और उड़ीसा की तो वहां भले ही भाजपा ने अपने आप को स्थापित कर लिया हो लेकिन 23 मई को ही ये पता चल पायेगा कि उसकी कोशिशें किस हद तक कामयाब हुईं। इसके अलावा  भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनी जो प्रभावशाली उपस्थिति बीते पांच वर्षों में दर्ज करवाई वह कितनी ठोस है ये भी परिणामों से स्पष्ट हो जाएगा। सबसे बड़ी बात ये रही कि भाजपा का समूचा प्रचार अभियान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर केन्द्रित हो गया। लेकिन ये नई बात नहीं है क्योंकि 2014 में भी पार्टी अबकी बार मोदी सरकार का नारा बुलंद करके ही सत्ता में आई थी। उसी नारे को इस चुनाव में फिर एक बार मोदी सरकार के तौर पर दोहरा दिया गया। चौंकाने  वाली बात ये रही कि नीतीश कुमार, उद्धव ठाकरे, प्रकाश सिंह बादल और रामविलास पासवान जैसे एनडीए के बड़े नेताओं  तक ने इस पर ऐतराज नहीं जताया कि मोदी सरकार की जगह एनडीए सरकार क्यों नहीं कहा गया?  इससे ये तो स्पष्ट हो गया कि उन सभी ने ये मान लिया कि राष्ट्रीय स्तर पर श्री मोदी ही मतदाताओं को प्रभावित कर सकते हैं। लेकिन ये भी संभव है कि उनकी खामोशी परिस्थितिजन्य हो और यदि भाजपा बहुमत से पीछे रही तब वे उसी  तरह नखरे दिखाने लग जायेंगे जैसा शिवसेना ने बीते पांच साल तक किया। बहरहाल भाजपा और उसके सहयोगियों के बीच के रिश्तों की मजबूती के लिए भी अंतिम नतीजों के लिए इन्तजार करना होगा। लेकिन दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को देखें तो पूरे चुनाव अभियान में उसकी तरफ  से कहीं भी ये एहसास नहीं हुआ कि वह पूर्ण बहुमत के लिए आशान्वित है। ये भी ध्यान देने योग्य बात है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद भी कांग्रेस का प्रभाव क्षेत्र सिमटता ही जा रहा है। उप्र और बिहार में वह घुटनों के बल चलने मजबूर है। ये कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस केवल उन्हीं  राज्यों में भाजपा के साथ सीधे मुकाबले  में है जहां वे दोनों ही प्रमुख ताकतें हैं। जहां भी क्षेत्रीय दलों की वजनदारी है वहां कांग्रेस या तो अप्रासंगिक होकर रह गई  या फिर पिछलग्गू बनने मजबूर हो गई। केवल पंजाब ही अपवाद है जहां अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दल के बाद भी कांग्रेस सीधे मुकाबले में रहती है वरना मप्र, उप्र, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ और कुछ हद तक दिल्ली में ही वह वैकल्पिक शक्ति बची है। इसका प्रभाव ये हुआ कि भाजपा ने तो श्री मोदी को बिना लागलपेट के दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर दिया लेकिन कांग्रेस आज तक इस बारे में या तो चुप है या फिर घुमा-फिराकर बात कर रही है। स्मरणीय है उसकी सबसे निकटस्थ सहयोगी एनसीपी के नेता शरद पवार तक ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावना को सिरे से नकार दिया। भविष्य में भाजपा विरोधी गठबंधन जिन  नेताओं के बलबूते बनाने की उम्मीद कांग्रेस को है उनमें से ममता बैनर्जी, अखिलेश यादव और मायावती आदि ने भी प्रधानमंत्री पद कांग्रेस के खाते में डालने की बात नहीं कही। और तो और बिहार के तेजस्वी यादव भी इस बारे में मौन ही रहे। इस प्रकार ये स्पष्ट हो गया कि जिन सूबों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व कायम है वहां कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये पर चली गई है। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि जहां कोई और पार्टी शक्तिशाली है वहां राष्ट्रीय राजनीति के दोनों धुरंधरों को जनता भाव नहीं देती। तमिलनाडु इसका सबसे पुराना और आंध्र प्रदेश सबसे नया उदाहरण है। जहां भाजपा और कांग्रेस दोनों अपने पैरों पर खड़े होने की हैसियत नहीं रखते। ये भारतीय राजनीति का वह पहलू है जिसे भले ही  संघीय ढांचे की मजबूती के तौर पर अच्छा कहा जाता हो लेकिन देश की एकता और अखंडता के लिहाज से ये बेहद घातक स्थिति है। बीते कुछ महीनों में आंध्र और बंगाल की राज्य सरकारों ने केन्द्रीय सत्ता को जिस अंदाज में चुनौती दी उसे भाजपा और कांग्रेस से उपर उठकर सोचने की जरूरत है। ममता बैनर्जी द्वारा श्री मोदी को प्रधानमंत्री नहीं मानने जैसे सार्वजानिक बयान की कांग्रेस द्वारा निंदा नहीं किया जाना भी उसके राष्ट्रीय पार्टी होने के लिहाज से आश्चर्यजनक है। समूचे परिदृश्य का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर जो बात सामने आई है वह ये है कि कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी की रूप में अपनी स्थिति को लगातार खोती जा रही है। खुदा न खस्ता 23 मई को भी यदि वह 100 सीटों के भीतर ही सिमटकर रह गई तब सपा-बसपा भविष्य में उसके लिए उप्र की अमेठी और रायबरेली सीटें भी छोड़ेंगे इसमें संदेह है। दो दिन पहले गुलाम नबी आजाद द्वारा प्रधानमंत्री पद हेतु दावेदारी छोडऩे के 24 घंटे बाद ही फिर से कांग्रेस ने जिस तरह से दोबारा दावा प्रस्तुत किया उस पर किसी भी गैर भाजपा विपक्षी पार्टी ने ध्यान नहीं दिया। इसी से साबित हो जाता है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व किस तरह अनिर्णय में उलझा हुआ है। 19 मई को अंतिम चरण के मतदान के तुरंत बाद आने वाले एग्जिट पोल से अंतिम नतीजे काफी हद तक स्पष्ट हो जायेंगे। लेकिन एक बात तय है कि फिर एक बार मोदी सरकार का नारा सफलीभूत हुआ तब कांग्रेस के भविष्य पर लगे प्रश्नचिन्ह और भी गहरे हो जायेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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