लोकसभा चुनाव के छटवें चरण के मतदान का प्रचार आज शाम बंद हो जाएगा। अभी तक की जो स्थिति है उसमें एक बात साफ़ उभरकर आई है कि पूरा परिदृश्य मोदी समर्थन और मोदी विरोध पर केन्द्रित हो गया है। कहने को कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर का विपक्षी दल होने के नाते भाजपा का विकल्प कहलाना चाहिए था किन्तु कुछ राज्यों को छोड़कर शेष देश में क्षेत्रीय दल मोदी लहर को निष्प्रभावी करने के लिए संघर्षरत हैं। यही वजह रही कि 2018 के अंत में अपने अधिपत्य वाले तीन राज्यों की सरकार कांग्रेस के हाथ गंवाने वाली भाजपा शीघ्र ही न सिर्फ लड़ाई में लौट आई बल्कि छत्तीसगढ़ छोड़कर बाकी दो में वह कांग्रेस से काफी आगे बताई जा रही है। केवल पंजाब वह राज्य है जहां कांग्रेस की बढ़त नजर आ रही है। इस कारण चुनाव परिणामों को लेकर व्याप्त अनिश्चितता के बावजूद दो ही संभावनाएं नजर आ रही हैं। पहली नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दोबारा भाजपा नीत एनडीए की सरकार और दूसरी कांग्रेस के सहयोग से मिली जुली सरकार जिसका नेता कौन होगा ये फिलहाल कोई नहीं बता सकता। लेकिन दूसरी सम्भावना तब ही जन्म ले सकेगी जब भाजपा बहुमत से इतनी पीछे रह जावे कि बाहरी समर्थन के बाद भी सरकार बनाना संभव नहीं हो । कुछ लोग ये हवा उड़ा रहे हैं कि उस स्थिति में भाजपा श्री मोदी की जगह किसी और चेहरे को आगे लाकर समर्थन बटोर लेगी किन्तु इसकी संभावना बहुत ही क्षीण है क्योंकि मोदी-शाह की जोड़ी इतनी आसानी से किसी और के झंडे तले खड़ी नहीं होगी और विपक्ष में बैठकर खिचड़ी सरकार के पतन की राह देखना पसंद करेगी। यद्यपि सट्टा बाजार सहित चुनाव की भविष्यवाणी करने वाले अन्य लोग भी ये मान रहे हैं कि कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तब भाजपा को कम से कम 230-240 सीटें तो मिल ही जायेंगीं और उस स्थिति में एनडीए के पास श्री मोदी ही विकल्प बचेंगे। लेकिन भाजपा यदि 200 से नीचे आ गई तब जरुर बाजी उसके हाथ से खिसक सकती है। इन तमाम अटकलों के बीच कोई भी ये कहने को तैयार नहीं है कि कांग्रेस 125 या उससे ऊपर सीटें ले जायेगी। और उस सूरत में वह अपना प्रधानमंत्री बना सकेगी इसकी संभावना न के बराबर है। यही वजह है कि मतदान के चार चरण पूरे होने के बाद ही उप्र से ये आवाज उठने लगी कि अखिलेश यादव मायावती का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाकर खुद को उप्र के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रस्तावित करेंगे। लेकिन इस मुहिम पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आना इस बात का संकेत है कि अखिलेश की इकतरफा सोच को शेष विपक्ष की स्वीकृति फिलहाल नहीं है। रही बात कांग्रेस की तो सपा-बसपा गठबंधन के साथ कुछ दिनों से जिस तरह से तनातनी चल रही है उसे देखते हुए कांग्रेस सीधे-सीधे उप्र दूसरों के लिए छोड़ देगी ये सोचना आसान नहीं है। जिस तेजी से प्रियंका वाड्रा चुनावी मैदान में सक्रिय हुईं उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने अभी से 2024 के चुनाव हेतु तैयारी शुरू कर दी है जिसका संकेत स्वयं प्रियंका पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच दे चुकी हैं। इस प्रकार विपक्ष के पास खिचड़ी सरकार का नेतृत्व करने लायक जो चेहरे बच रहते हैं वे ममता बैनर्जी और शरद पवार ही हैं। लेकिन ये भी तभी संभव है जब ममता बंगाल में 2014 की तरह तृणमूल को सफलता दिलवा पाएं। वहां भाजपा ने जिस आक्रामक शैली में मोर्चा संभाल रखा है उसके कारण तृणमूल की सीटें घटने के आसार बताए जा रहे हैं। यदि ऐसा हुआ तब ममता की वजनदारी कम हो जायेगी। रह बात शरद पवार की तो वे विपक्ष की निर्विवाद पसंद हो सकते हैं किन्तु उसके लिए उन्हें महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को मात देनी पड़ेगी जो आसान नहीं है। दरअसल अखिलेश और मायावती को लग रहा है कि उप्र की 50-55 सीटें यदि गठबंधन के हाथ लग गईं तब पूरी विपक्षी राजनीति उनकी मु_ी में होगी। इन सबसे हटकर अनेक ऐसे भी लोग हैं जो उक्त समूची संभावनाओं को बुद्धिविलास मानते हुए दावा कर रहे हैं कि विपक्ष की तरफ से कोई सर्वसम्मत प्रधानमंत्री प्रत्याशी पेश नहीं किये जाने से पूरे देश में ये अवधारणा प्रबल हो गई कि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में यदि गैर भाजपाई सरकार बन भी गई तब वह चलेगी नहीं और देश राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में फंसकर रह जायेगा। देवेगौड़ा और गुजराल सरकार को कांग्रेस द्वारा अकारण गिराए जाने की स्मृतियाँ लोगों के दिमाग में ताजा है और यही वह वजह है जिसके कारण श्री मोदी के प्रति मतदाताओं के मन में आकर्षण नजर आता है। अमेठी जैसी कांग्रेस की पारम्परिक सीट पर भी युवा पीढ़ी के मतदाता जिस तरह खुलकर बदलाव की बात करते दिखे वह साधारण बात नहीं है क्योंकि यहाँ गांधी परिवार देवताओं की तरह पूजा जाता रहा है। भाजपा विरोधी माने जाने वाले अनेक राजनीतिक विश्लेषक भी ये मान रहे हैं कि किसी सक्षम विकल्प के अभाव में श्री मोदी को वह तबका भी मत देता दिख रहा है जो चुनाव पूर्व तक उनसे असंतुष्ट नजर आता था। ये भी कहने वाले कम नहीं है कि पिछली बार मतदाता कांग्रेस को हटाने के लिए तत्पर था वहीं 2019 में श्री मोदी को वापिस लाने वाला जनादेश आएगा जिसे सकारात्मक भी कहा जा सकता है। यद्यपि पक्के तौर पर अंतिम परिणाम की भविष्यवाणी करना बहुत कठिन है लेकिन ये तो कहना ही पड़ेगा कि समूचे चुनाव का एकमात्र मुद्दा मोदी बनकर रह गए हैं। भाजपा इसमें अपने लिए भारी सफलता देख रही है लेकिन कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें भारतीय राजनीति के पूरी तरह से व्यक्ति केन्द्रित हो जाने में खतरों का पूर्वाभास भी होने लगा है।
- रवीन्द्र वाजपेयी
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