Monday 13 May 2019

कम मतदान और ज्यादा सुविधाएं !

छटवें चरण का मतदान भी संपन्न हो गया। जो आंकड़े आये उसके अनुसार सबसे कम मतदान उस उप्र में हुआ जहां राजनीति की चर्चा सबसे ज्यादा होती है और जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ होकर जाता है। 80 सीटों  वाले इस राज्य में 55 फीसदी से कम मतदान हुआ जो 2014 की तुलना में मामूली सा ज्यादा रहा । पिछले चरण में अमेठी, रायबरेली और लखनऊ जैसी चर्चित सीटों पर औसतन 53 फीसदी लोगों ने मताधिकार का उपयोग किया। लखनऊ में तो अब तक का ये सबसे अधिक मतदान रहा। इसी तरह गत दिवस मप्र की राजधानी भोपाल में लगभग 66 फीसदी मतदान होने पर कहा गया  कि ये 1957 से अब तक का सबसे अधिक मतदान है। वहीं देश की राजधानी दिल्ली में पिछले चुनाव से 5 फीसदी कम मतदान हुआ। टीवी चैनल पर चल रही एक चर्चा में एक वरिष्ठ पत्रकार ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि रविवार को मतदान होने से मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग घर-गृहस्थी के कार्यों में उलझ गया। यदि मतदान और  किसी दिन होता तब उससे एक अतिरिक्त अवकाश मिलता। इसी तरह एक विश्लेषक ने भीषण गर्मी के मौसम में मतदान की आलोचना की और सुझाव दिया कि मतदान का समय शाम 6 बजे तक करने की बजाय रात 8 बजे तक होना चाहिए था ताकि मतदाता गर्मी से बच सकें। और भी सुझाव आये मतदान बढ़ाने के। लेकिन रोचक बात ये है कि मप्र की जिस भोपाल सीट का चुनाव सर्वाधिक चर्चित रहा और जहां शिक्षित मतदाताओं की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है, से ज्यादा मतदान राजगढ़ में 74,  विदिशा में 71 और गुना में 70 फीसदी हुआ।  देश की राजधानी दिल्ली और मप्र की राजधानी भोपाल की अपेक्षा निकटवर्ती छोटे शहरों में जिनके साथ ग्रामीण आबादी जुडी हुई है, मतदान के प्रति अधिक उत्साह इस बात का प्रमाण है कि राजधानी के काफी हाऊसों  में बैठा बुद्धिजीवी पांच साल तक तो राजनीति पर मगजमारी करता है लेकिन निर्णय के क्षणों में सुस्त पड़ जाता है। वरना क्या कारण है कि दिल्ली, लखनऊ और भोपाल जैसे शहरों में छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में मतदान का प्रतिशत नीचे रहता है। उप्र और बिहार राजनीतिक  दृष्टि  से देश में सबसे जागरूक राज्य माने जाते  है जहां हिन्दू-मुस्लिम के साथ ही जातीय समीकरण पूरे चुनाव पर हावी रहते हैं लेकिन इस चुनाव में वहां अब तक हुए मतदान में जैसी  राजनीतिक चेतना दिखनी चाहिए थी वैसी नजर नहीं आई। लखनऊ जैसे विकसित महानगर में यदि 53 फीसदी मतदान अब तक का सबसे ज्यादा है तो ये समूची राजनीतिक बिरादरी के लिए विचारणीय विषय होना चाहिए। इसी तरह भोपाल और दिल्ली राजधानी होने के नाते विकास का अतिरिक्त बजट तो हजम कर जाते हैं लेकिन प्रदेश और देश के भविष्य के फैसले की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी छोटे और पिछड़े कहे जाने वाले कस्बों से कम रहती है। चुनाव आयोग ने मतदान बढ़ाने के लिए जो जागरूकता अभियान चलाया और मतदान केन्द्रों पर बढिया इंतजाम किया उसने समाज के एक बड़े तबके की उदासीनता तो दूर की लेकिन जिस सुशिक्षित वर्ग से शत-प्रतिशत मतदान की अपेक्षा की जाती है और जो शहरों में सुविधाजनक जिंदगी गुजारता है वही सरकार का चयन करते समय आरामपसंद हो जाता है। कभी-कभी तो ये लागता है कि मतदान का जो प्रतिशत बढ़ता भी है उसमें पहली और दूसरी बार मत देने वाले युवाओं का खासा योगदान है। वरना तो 50 फीसदी का आंकड़ा भी बड़ा हो जायेगा। इस दृष्टि से बंगाल की तारीफ़  करनी होगी जहां हर चरण में 80 फीसदी या उससे भी ज्यादा मतदाताओं ने अपने अधिकार का उपयोग किया जबकि वहां का राजनीतिक वातावरण काफी तनावपूर्ण है। टेलीविजन के आने के बाद राजनीतिक चर्चाएं और बहस के साथ ही ज्वलंत मुद्दों पर जनता का ध्यान पूर्वापेक्षा ज्यदा आकर्षित होने लगा है। महिलाएं भी अब खुलकर सियासी और राष्ट्रीय महत्व के अन्य मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करने लगी हैं। ग्रामीण इलाके भी अब शहरों में होने वाली गतिविधियों से बेखबर नहीं रहते। सबसे बड़ी बात ये हुई कि, लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़ी है। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने वालों की बढ़ती संख्या इसका प्रमाण है। इतना सब होने के बाद भी यदि देश और प्रदेश की राजधानी में मतदान का प्रतिशत 55 से 65 फीसदी रहे तब इसे दिया तले अँधेरा कहना गलत नहीं होगा। कुछ बरस पहले तक मतदाता सूचियों से नाम कट जाने की शिकायतें आम थीं लेकिन चुनाव आयोग ने इसमें काफी सुधार किया है। और तो और मतदाता पर्चियां तक घर-घर पहुँचाने की समुचित व्यवस्था भी कर दी गयी। बावजूद उसके दिल्ली, बेंगुलुरु, मुम्बई, लखनऊ और भोपाल जैसे शहरों में मतदान का साधारण प्रतिशत सोचने के लिए बाध्य करता है। सता में बैठे लोगों को भी इस बारे में ये सोच विकसित करनी चाहिए कि जिन वीआईपी  सीटों और राजधानियों सहित महानगरों में 75 फीसदी से कम मतदान हो उनके विकास को वरीयता न दी जाए। अधिक मतदान करने वाले पिछड़े क्षेत्रों की विकास परियोजनाओं को प्राथमिकता देने की नीति इस मामले में कारगर हो सकती है। जितना मतदान उतना विकास का नारा भी चुनाव का हिस्सा बनना चाहिए।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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