Friday 24 May 2019

विचार शून्यता बनी विपक्ष की हार का कारण

जनादेश 2019 की समीक्षा एक-दो दिन में नहीं की जा सकती। पूरे परिणाम देश की जानकारी में आ चुके हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से अरुणाचल तक का राजनीतिक वृत्तांत स्पष्ट हो चूका है। नरेंद्र मोदी दोबारा सत्ता में लौटे हैं और वह भी भाजपा की 303 सीटों के विशाल आंकड़े के साथ। भाजपा के नेतृत्व में एनडीए ने भी 350 की संख्या प्राप्त कर नेहरु-इंदिरा युग की याद ताजा कर दी। राजनीतिक प्रेक्षक श्री मोदी को पंडित नेहरु और इंदिरा जी की श्रेणी का नेता बताकर उनका यशोगान करने में जुटे हैं। कांग्रेस की कमजोरियों का बखान भी हो रहा है। लेकिन ये परिणाम केवल कांग्रेस की ही नहीं अपितु विपक्ष के उस खेमे की शिकस्त है जिसने राष्ट्रवाद की अवधारणा को साम्प्रदायिकता से जोड़कर उसका उपहास और अपमान किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गत दिवस हार स्वीकार करते हुए कहा कि ये दो विचारधाराओं का संघर्ष है। लेकिन चुनाव का हल्ला शांत हो जाने के बाद क्या वे अपनी पार्टी की विचारधारा को स्पष्ट कर सकते हैं ? देश की सबसे बड़ी पार्टी की विचारधारा क्या है ये उसके नेता ही स्पष्ट नहीं कर सकते तब जनता से क्या अपेक्षा की जाए। दुर्भाग्य की बात ये है कि सत्ता की लालच में तकरीबन सभी पार्टियां कांग्रेस की तरह से विचार शून्य हो गईं। यहाँ तक कि नई राजनीति की प्रतिनिधि बनकर उभरी आम आदमी पार्टी तक सियासत के उसी गंदे नाले में डूब गयी जिसे साफ करने का वायदा और दावा उसने किया था। कांग्रेस की देखा सीखी वंशवाद की बयार भी खूब बही और जाति तथा क्षेत्र के नाम पर मैदान में उतरीं तमाम पार्टियां निजी पारिवारिक संपत्ति बनकर रह गईं। इस चुनाव ने केवल गांधी परिवार के वर्चस्व को ही नहीं अपितु अन्य पार्टियों में चल रही कुनबेबाजी की जड़ें भी खोदने का साहस जनता ने कर दिखाया। ज्योतिरादित्य सिंधिया, डिम्पल यादव, मीसा भारती, शिबू सोरेन, एचडी देवगौड़ा और उनके पौत्र , हुड्डा पिता-पुत्र. वैभव गहलोत और उन जैसे तमाम खानदानों को कूड़ेदान में फेंकने का निर्णय भारतीय राजनीति में उत्पन्न उस नई सोच का परिणाम है जो वंशवाद के साथ ही जाति की जंजीरें तोडऩे के लिए प्रयासरत है। उस दृष्टि से नरेंद्र मोदी बधाई के विशेष पात्र हैं जिन्होंने विकास और जनकल्याण की राजनीति को विजय का आधार बनाते हुए तमाम स्थापित धारणाओं को ध्वस्त कर दिया। उनकी ही तरह उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी व्यर्थ के प्रपंचों से उपर उठकर रचनात्मक राजनीति करते हुए जनता के मन में लगातार जगह बनाए रखने में कामयाब हुए हैं। इस चुनाव का रोचक पहलू ये है कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव की लहर के बावजूद उनकी बेटी निजामाबाद से भाजपा उम्मीदवार से हार गई। इस प्रकार मतदाताओं ने अनेक मिथक तोड़ दिए। उप्र और बिहार में जातिवादी गठजोड़ की धज्जियां उड़ गई। कटिहार से तारिक अनवर की पराजय ने मुस्लिम मतों के तिलिस्म को भी बेअसर कर दिया। बिहार में लालू परिवार और पार्टी साफ़ हो गई वहीं उप्र में मुलायम का कुनबा घरेलू यादवी संघर्ष में कमजोर हो गया। मायावती का दलितवाद भी हाँफता नजर आया। सबसे बड़ी बात रही बंगाल में ममता बैनर्जी के अहंकार की धज्जियां उडऩा। सत्ता की चाहत में बहुसंख्यक समुदाय को ठेंगे पर रखने के उनके पागलपन को जनता ने जोरदार झटका दिया। वामपंथी बीते पांच वर्ष में राष्ट्रवादी ताकतों के विरुद्ध वैचारिक विद्रोह को भड़काने में जुटे रहे। दुर्भाग्यवश राहुल गांधी उनके जाल में फंस गये जिसकी वजह से कांग्रेस का रहा-सहा वैचारिक आधार भी जाता रहा। 2014 में हुई हार के बाद कांग्रेस ने जो एंटोनी कमेटी बनाई उसने हिंदुत्व को उसका कारण बनाया। उसके बाद राहुल गांधी ने सौम्य हिंदुत्व नामक प्रयोग करते हुए मंदिरों और मठों में पूजा पाठ शुरू कर दिया। अचानक वे जनेऊधारी ब्राह्मण बनकर अपना गोत्र बताते घूमने लगे। उनके शिवभक्त होने का प्रचार भी किया जाने लगा जिसे साबित करने के लिए वे कैलास मानसरोवर की तीर्थ यात्रा भी कर आये लेकिन जनता ने उस सबको पाखंड मानकर उपेक्षित कर दिया। जबकि दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को सफलतापूर्वक जनता के मन में बिठाते हुए तुष्टीकरण की राजनीति के खतरों को उजागर कर दिया। रही सही कसर पूरी हो गयी आतंकवाद के विरुद्ध छेड़ी गई लड़ाई पर सवाल खड़े करने के मूर्खतापूर्ण निर्णय से। कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष ने सैन्य कार्रवाई के सबूत मांगकर अपने आपको जनता की नजर में बुरी तरह से गिरा लिया। लेकिन इन सबसे अविचलित श्री मोदी अपनी उन योजनाओं को लोगों तक पहुँचाने में लगे रहे जिनसे उन्हें सीधा फायदा मिला। राहुल गांधी ने अपना अधिकांश समय राफेल सौदे और अनिल अम्बानी पर खर्च कर दिया जिसे आम मतदाता समझ ही नहीं सका । चौकीदार चोर की उनकी रट की वजह से जनता ने उन्हें गम्भीरता से लेना बंद कर दिया। बाकी विपक्षी दलों ने भी श्री मोदी की घेराबंदी में अपनी ऊर्जा और समय तो नष्ट किया लेकिन वे भाजपा विरोधी एक मोर्चा बनाने की बुद्धिमत्ता दिखाने से चूक गए। लेकिन सबसे बड़ा कारण बना हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद को लेकर श्री मोदी की जबरन आलोचना। कड़े निर्णय लेने के बाद उन पर डटे रहने की नीति ने प्रधानमन्त्री की छवि एक सक्षम नेता के तौर पर स्थापित की। भ्रष्टाचार का एक भी आरोप उन पर और उनकी सरकार पर विपक्ष साबित नहीं कर सका। उनके विदेशी दौरों का मजाक उड़ाकर राजनीतिक रोटी सेंकने की राहुल की नीति भी लोगों को पसंद नहीं आई। उलटे उनसे मिले कूटनीतिक फायदों ने श्री मोदी को वैश्विक स्तर का नेता बना दिया। देश के जनमानस पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा जिसने विपक्ष को निहत्था कर दिया जो आखिर तक कोई एक चेहरा बतौर विकल्प नहीं दे सका। ये विजय निश्चित रूप से नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और करिश्माई नेतृत्व की सफलता है। इसकी वजह से ये भी कहा जा रहा है कि उनका कद पार्टी से उपर हो गया लेकिन ये सोच गलत है। नरेंद्र मोदी एक विचार यात्रा के पथिक हैं जिसका उद्देश्य देश की सुरक्षा, समृद्धि और सम्मान में वृद्धि है। पूर्वोत्तर भारत के दुर्गम इलाकों में भाजपा का उदय उसी का हिस्सा है जिसे समझ पाना राहुल, अखिलेश, तेजस्वी जैसों के बस की बात नहीं है। नरेंद्र मोदी जैसे कद्दावर नेता को परास्त करने के लिए कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी समान गैर जिम्मेदार तत्वों का सहारा लेने की नीति ने राहुल गांधी की अपरिपक्वता को प्रमाणित कर दिया। आजादी के बाद नेहरु जी और इंदिरा जी के इर्द गिर्द वामपंथी बुद्धिजीवियों का एक घेरा था। दुर्भाग्य से राहुल भी उसी में घिर गये। ये तबका राष्ट्रवादी शक्तियों को कमजोर करने में लगा रहता है। जिसके अनेक उदाहरण बीते पांच वर्षों में देखने आये। उस दृष्टि से ये चुनाव परिणाम राष्ट्रीय राजनीति को चुनावी जीत-हार से ऊपर उठाकर राष्ट्रवादी विचारधारा के मजबूत होने की घोषणा है। कांग्रेस अभी भी गांधी परिवार के मोहपाश से मुक्त नहीं हो सकी तब उसका भविष्य अच्छा नहीं कहा जा सकता। अन्य जाति और क्षेत्र आधारित पार्टियां भी यदि जनादेश के मर्म को नहीं समझीं तब इतिहास का कूड़ेदान ही उनकी जगह होगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment