Tuesday 28 May 2019

अगला लक्ष्य साम्यवाद मुक्त भारत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसदीय दल का नेता चुने के बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में पूरे एनडीए नेतृत्व के सामने अपने लम्बे भाषण में राजनीतिक विचारधाराओं का जिक्र करते हुए कहा कि आज की राजनीति में गांधी , लोहिया और दीनदयाल नामक तीन धाराओं से निकले लोग हैं। उनका आशय मुख्यत: कांग्रेस , समाजवादी खेमा और भाजपा से था। सामान्य तौर पर राजनीतिक विश्लेषक इन्हीं तीन का उल्लेख किया करते हैं। दक्षिण भारत की विशिष्ट शैली को छोड़ दें तो अधिकांश राजनेता और पार्टियों का उद्गम स्थल यही हैं। कुछ क्षेत्रीय दल जैसे तेलगु देशम , तृणमूल कांग्रेस , टीआरएस (तेलंगाना राज्य परिषद), वाई एसआर कांग्रेस जहां कांग्रेस से अलग होकर बने वहीं लालू , मुलायम , शरद यादव , रामविलास पासवान, देवेगौड़ा आदि समाजवादी शिविर से निकले। बीजू जनता दल में कांग्रेस और समाजवादी दोनों का समावेश है। भाजपा की अपनी मौलिक पहिचान है जिसके मूल में हिंदूवादी राष्ट्रवाद है जिसका कुछ अंश शिवसेना में भी देखा जा सकता है। अकाली दल और छोटे-छोटे दूसरे क्षेत्रीय दल मुख्यधारा में नहीं हैं इसलिए उनका वैचारिक आधार उल्लेखनीय नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री ने एक प्रमुख वैचारिक शाखा का उल्लेख नहीं किया जिसे साम्यवादी या वामपंथी कहा जाता है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि कांग्रेस यद्यपि राजनीतिक तौर पर भाजपा की प्रमुख प्रतिद्वंदी है लेकिन वैचारिक दृष्टि से उसका मुकाबला वामपंथ से ही है क्योंकि जो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व भाजपा का सैद्धांतिक आधार है उसे वामपंथ पूरी तरह से नकार देता है। राष्ट्रवाद को वह संकुचित सोच और धर्म को अफीम मानता है। आज़ादी के पहले से ही देश में वामपंथ की जड़ें जम चुकी थीं। उन्होंने गांधी जी और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को लेकर जो कहा वह इतिहास का अमिट हिस्सा है। आज़ादी के बाद तेलंगाना का सशस्त्र विद्रोह वामपंथियों के भारत विरोधी दुस्साहस का उदाहरण था। सोवियत संघ की बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित पं नेहरू की सरकार ने जब केरल की नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त किया तब उसके पीछे उनके मन में साम्यवादी खतरे से उत्पन्न भय ही होगा। हालांकि नेहरू जी के इर्दगिर्द सदैव वामपंथ में दीक्षित लोगों का जमावड़ा रहा जिनमें वीके कृष्णा मेनन का नाम प्रमुख था। जब वामपंथियों को लगा कि वे भारत में रूस और चीन जैसी क्रांति नहीं करवा सकेंगे तब उन्होंने नक्सलवाद जैसा छद्म रास्ता अपनाया लेकिन उसके बाद भी वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सके। बंगाल और केरल के अलावा देश के विभिन्न राज्यों में जहां उनका प्रभाव क्षेत्र रहा वहां से उनके सांसद चुनकर आते रहे किन्तु अब वे सुनहरे दिन बीत चुके हैं और साम्यवाद कुछ बुद्धिजीवियों के अलावा शहरी नक्सलियों तक सीमित रह गया है। हालांकि माओवाद अभी भी हिंसा के जरिये अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता रहता है लेकिन धीरे-धीरे उसका प्रभाव भी घट रहा है। क्योंकि बीते पांच वर्ष में उनको विदेश से मिलने वाली सहायता पर काफी रोक लगी है। वहीं बुद्धिजीवियों की जमात में घुसे वामपंथियों की भी जमकर फजीहत होने से वे रक्षात्मक होने को बाध्य हो गए हैं। जेएनयू जैसे उनके अड्डों की असलियत भी जिस तरह राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा बनी उससे वामपंथी पूरी तरह बेनकाब हो गए। इसका परिणाम लोकसभा चुनाव में साम्यवादियों के सफाए के तौर पर सामने आया। बेगूसराय में कन्हैया कुमार को देश भर के साम्यवादियों ने अपनी प्रतीकात्मक लड़ाई का हिस्सा बनाना चाहा किन्तु वह कामयाब नहीं हुआ। बंगाल और केरल में भी वामपंथी कुछ खास नहीं कर सके। शायद यही वजह रही कि नरेंद्र मोदी ने उन्हें उल्लेख करने लायक तक नहीं समझा। हो सकता है भाजपा की रणनीति ही वामपंथियों को पूरी तरह उपेक्षित करने की हो किन्तु ये बात भी सही है कि केरल में सरकार होने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवाद अब हाशिये से भी बाहर होने लगा है। त्रिपुरा और बंगाल में वह अस्तित्वहीन हो चला है। अन्य राज्यों में एक भी लोकसभा सीट ऐसी नहीं है जिसे वामपंथियों का अभेद्य गढ़ कहा जा सके। त्रिपुरा और बंगाल में भाजपा का अभ्युदय वामपंथ के विकल्प के तौर पर ही हो सका है। भाजपा भी जानती है कि उसका अंतिम वैचारिक संघर्ष वामपंथियों से ही होगा। नरेंद्र मोदी केवल भाजपा के चुनावी चेहरे नहीं बल्कि वैचारिक प्रतीक भी हैं जो अटल बिहारी वाजपेयी की शैली से अलग विचारधारा के प्रस्तुतीकरण में बेहद मुखर और कठोर भी हैं। ऐसा लगता है अपने दूसरे कार्यकाल में श्री मोदी कांग्रेस मुक्त भारत की जगह वामपंथ मुक्त भारत पर ध्यान केंद्रित करेंगे लेकिन ये काम बिना शोर -शराबे के होगा क्योंकि साम्यवाद राजनीतिक ताकत बनने की स्थिति खोता जा रहा है। यही बात है 23 मई के बाद से ही छद्म वामपंथियों ने रुदन-क्रंदन शुरू कर दिया है। सोशल मीडिया पर घृणा का प्रसार तेज कर दिया गया है। भय के नए भूत पैदा करने का अभियान भी शुरू हो चुका है। इसका असर क्या होगा ये कहना कठिन है क्योंकि उदारीकरण के बाद की नई पीढ़ी में साम्यवाद को लेकर कोई आकर्षण नहीं है। कांग्रेस और भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियों को धराशायी करने के बाद नरेंद्र मोदी वामपंथ की जड़ों में मठा डालने से बाज नहीं आएंगे। उस दृष्टि से आगामी पांच साल बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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