Saturday 11 May 2019

पित्रोदा : संचार के विशेषज्ञ हैं सियासत के नहीं

पहले स्व. राजीव गांधी और अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के निकट सलाहकार कहे जाने वाले सैम पित्रोदा द्वारा दो दिन पहले 1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद दिल्ली में हुए सिख नरसंहार को लेकर की गई टिप्पणी जो हुआ सो हुआ को लेकर मचे विवाद ने पूरी पार्टी को पिछले पैरों पर खड़े होने मजबूर कर दिया। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी तो ऐसे अवसरों को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहते। उन्होंने फौरन इसे चुनावी मुद्दा बना लिया। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के अलावा जहां 12 और 19 मई को मतदान होने वाला है वहां सिख मतदाता कांग्रेस के खिलाफ  न चले जाएं इस डर से राहुल ने फौरन श्री पित्रोदा के बयान को उनकी निजी  राय बताते हुए पार्टी को उससे अलग किया और उन्हें माफी मांगने भी कह दिया। पंजाब के मुख्यमंत्री कै. अमरिंदर सिंह भी उस बयान के विरुद्ध मुखर हो उठे। राहुल ने तो 1984 के सिख दंगों को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए खेद जताया वहीं पार्टी ने पूरी तरह श्री पित्रोदा के बयान से पल्ला झाड़ते हुए उन्हें अकेला छोड़ दिया। चारों तरफ  से फजीहत होने के बाद हालाँकि श्री पित्रोदा ने माफी मांगते हुए अपनी कमजोर हिन्दी का हवाला देकर बचने की कोशिश की लेकिन उनके बयान से कांग्रेस को जो नुकसान होना था वह तो हो ही गया। यदि ऐसा नहीं होता तब राहुल श्री पित्रोदा को लताड़ते हुए माफी मांगने को नहीं कहते जो कि न सिर्फ  उनके सलाहकार और विदेशी दौरों के आयोजक बल्कि राजनीतिक गुरु भी कहलाते हैं। ऐसे में उनकी कही गई राजनीतिक बात को श्री गांधी से जोड़कर देखा जाना स्वाभाविक है। यही वजह रही कि प्रधानमन्त्री ने बिना देर किये श्री पित्रोदा की टिप्पणी को कांग्रेस के सिख विरोधी रवैये से जोड़ते हुए चुनावी लाभ लेने का दांव चल दिया। प्रतिक्रियास्वरूप देश के कई शहरों में सिख संगठन कांग्रेस के विरोध में सड़कों पर भी उतर आये। चुनाव का आखिऱी चरण आते-आते तक कांग्रेस के लिए ये मुसीबत  घातक हो सकती है। सरकार बनाने का दावा तो वह छोड़ ही चुकी है। कल मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने फिर दोहरा दिया कि कांग्रेस की सीटें 2014 की तुलना में तीन गुनी बढ़ेंगी। यदि इसे मान भी लें तब उसका आंकड़ा तकरीबन 130 के इर्दगिर्द सिमटकर रह जाएगा। ऐसे में श्री पित्रोदा का बयान दूबरे में दो आसाढ़ वाली स्थिति का कारण बन सकता है। लेकिन इससे भी अलग हटकर देखें तो कांग्रेस के कतिपय प्रवक्ता बड़बोलापन दिखाते हुए समय-समय पर इस तरह की टिप्पणियाँ कर देते हैं जिनसे पार्टी को शर्मसार होने के साथ नुक्सान भी उठाना पड़ता है। श्री पित्रोदा के तकनीकी ज्ञान और वैश्विक दृष्टिकोण को चुनौती देना तो गलत होगा  लेकिन इस तरह के व्यक्ति राजनीति में नादाँ की दोस्ती जी का जंजाल वाली कहावत को चरितार्थ करने का माध्यम बन जाते हैं। मौजूदा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने मणिशंकर अय्यर को तो मुंह बंद रखने की नसीहत देकर एक तरह से अज्ञातवास पर भेज दिया लेकिन सैम पित्रोदा जैसे लोग उनकी कमी पूरी करने में आगे-आगे हो रहे हैं। वैसे ये समस्या दूसरी पार्टियों में भी है लेकिन कांग्रेस को ये बीमारी ज्यादा नुक्सान देती है। जल्दबाजी में कुछ भी बोलने की धुन में राहुल गांधी ने चौकीदार चोर के नारे को सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से जोडऩे की गलती कर दी जिसके लिए उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने जमकर डांट पिलाते हुए बिना शर्त  माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया। भाजपा के आलोचक प्रधानमन्त्री पर भाषा का स्तर गिराने का जो आरोप लगाते हैं वह अपनी जगह सही भी है लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह की शब्दावली विपक्ष द्वारा प्रयुक्त की गई वह भी शोभनीय नहीं कही जा सकती। बेहतर हो राहुल गांधी इस बात को समझें कि आक्रामकता भी अनुशासित न हो तो आत्मघाती बन जाती है। क्रिकेट में छह रनों के लिये गेंद को सीमा रेखा पार करवाने के फेर में उसे उछालकर मारने वाला बल्लेबाज सही फुटवर्क के अभाव में कैच आउट हो जाता है। सियासत में भी जो नेता अपनी जुबान पर लगाम नहीं लगाते वे पार्टी के लिए समस्याएं खड़ी करते हैं। सैम पित्रोदा अपने क्षेत्र के महारथी होंगे। स्व. राजीव गांधी के कार्यकाल में वे प्रकाश में आये और देश में संचार क्रांति के सूत्रधार भी बने लेकिन राजीव जी की मृत्यु उपरान्त कांग्रेस में उन्हें वैसा महत्व नहीं मिला। राहुल के उदय के बाद वे फिर से सक्रिय नजर आने लगे और उनके विदेशी दौरों के आयोजन के बाद देश में रहकर भी कांग्रेस के नीति निर्धारकों में शामिल हो गए।  उनकी सलाह और रणनीति ने कांग्रेस को कितना लाभान्वित किया ये तो वे ही बेहतर जनते होंगे लेकिन दो दिन पहले दिया उनका बयान कांग्रेस के लिए नई मुसीबतें खड़ा कर गया। जिस तरह धनुष से निकला तीर वापिस नहीं लौटता ठीक वैसे ही जुबान से निकले शब्द भी वापिस नहीं लिए जा सकते। राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने प्रवक्ताओं का चयन सोच-समझकर किया करें। पार्टी की नीतियों और विचारधारा को समझने वालों की बजाय राजनीति को पेशा बनाने आये पेशेवरों को ऐसे मामलों में दूर रखना ही अच्छा होता है। दुर्भाग्य से लगभग सभी दल तथाकथित ग्लैमर युक्त नवागन्तुकों से प्रभावित होकर उन्हें पार्टी का पक्ष रखने का काम दे देते हैं जो अंतत: बन्दर के हाथ में उस्तरा वाली परिस्थिति बना दते हैं। सैम पित्रोदा उसका ताजा उदाहरण बन गये हैं।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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