Monday 18 October 2021

बाहरी मजदूरों की हत्या कश्मीरी पंडितों को डराने का षडयंत्र



 जब पूरे देश का ध्यान लखीमपुर खीरी और दिल्ली की सिन्धु सीमा पर निहंगों द्वारा एक दलित की हत्या पर केन्द्रित है तब कश्मीर घाटी में आतंकवाद के नए संस्करण की शुरुवात हो गयी है | बीते कुछ दिनों से सुरक्षा बलों की बजाय आम नागरिकों की हत्या की जा रही है | इनमें विशेष रूप से दूसरे राज्यों से घाटी में आकर रोजी – रोटी कमा रहे श्रमिक हैं जिनका  राजनीति से कोई लेना - देना नहीं है | गत दिवस दो बिहारी मजदूरों को घर में घुसकर गोली मार दी गई | हालांकि सुरक्षा बल भी आतंकवादियों को निशाना बना रहे हैं तथा कोई बड़ा हमला भी नहीं हुआ है लेकिन ज्योंही  कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास का सिलसिला शुरू हुआ , आतंकवादियों ने बाहरी मजदूरों को अपना लक्ष्य बनाकर भय का माहौल निर्मित कर दिया | परिणामस्वरूप जो कश्मीरी पंडित हाल ही में अपने घर लौटे थे वे बोरिया - बिस्तर समेटकर जाने लगे और जो आने की तैयारी कर रहे थे , उन्होंने इरादा बदल दिया | आतंकवादी भारत सरकार की पुनर्वास योजना  को भांप गये थे , इसीलिये उन्होंने घाटी में कार्यरत मजदूरों सहित अन्य लोगों की जान लेना शुरू कर दिया | चूँकि बाहरी मजदूर अक्सर किसी साधारण जगह पर रहते हैं और उनके लिए अपनी सुरक्षा का प्रबंध करना भी आसान नहीं होता इसलिए आसानी से आतंकवादियों के  शिकार हो जाते हैं | कुछ दिन पहले राज्य के पुलिस प्रमुख ने कहा था कि आतंकवादी  स्थानीय युवकों को पैसों का लालच देकर  साधारण लोगों की हत्या करवा रहे हैं | उनकी आवाजाही पर सुरक्षा बलों को संदेह भी नहीं होता | और वारदात करने के बाद वे सरलता से लोगों में घुल मिल जाते हैं | दरअसल घाटी में आतंकवादियों के जाल को तहस - नहस करने के लिए सुरक्षा बलों द्वारा चलाये जा रहे अभियान की वजह से अब वे बड़ी वारदात करने की बजाय छोटी घटनाओं के जरिये दहशत पैदा करने की रणनीति पर चल रहे हैं | हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला का दावा  है कि  ताजा घटनाओं  के पीछे स्थानीय कश्मीरियों का हाथ नहीं है |  उनके ऐसा कहने के पीछे भी निहित उद्देश्य है क्योंकि  सरकारी विद्यालय में घुसकर एक सिख महिला प्राचार्या और हिन्दू शिक्षक के पहिचान पत्र से  गैर मुस्लिम होने की पुष्टि करने के बाद उनकी हत्या की  घटना के बाद सुरक्षा बलों ने एक हजार से ज्यादा संदिग्धों की धरपकड़ कर डाली | डा. अब्दुल्ला ने अप्रत्यक्ष रूप से इन गिरफ्तार लोगों की तरफदारी की है  | घाटी के राजनीतिक दल इस बात को समझ चुके हैं कि अनुच्छेद 370 की वापिसी असम्भव है | लेकिन उन्हें ये भी गंवारा नहीं है कि घाटी का मुस्लिम बहुल स्वरूप बदल जाए | इसीलिये बाहरी लोगों की हत्या की आलोचना करने के बावजूद न तो अब्दुल्ला और न ही मुफ्ती परिवार खुलकर आतंकवाद के विरुद्ध मैदान में उतरने के संकेत दे रहा है | प्राप्त जानकारी के अनुसार घाटी में पांच लाख मजदूर अन्य राज्यों से आकर कार्यरत हैं | घाटी के 90 फीसदी निर्माण कार्यों में यही मजदूर कार्य करते हैं | इनको घाटी से भगाना आतंकवादियों का उद्देश्य नहीं है अपितु  इनके बीच में से कुछ को निशाना बनाकर कश्मीरी पंडितों के घाटी में पुनर्वास को रोकना उनकी कार्ययोजना का हिस्सा है |  ध्यान देने योग्य बात ये भी है कि बहार का मौसम होने से घाटी इस समय सैलानियों से गुलज़ार रहा करती है | इस साल पर्यटकों की रिकॉर्ड संख्या आने से पुराने दिन लौटने का एहसास होने लगा था | होटल , परिवहन , हस्तकला व्यवसाय आदि में वृद्धि से  स्थानीय रोजगार भी बढ़ा वहीं  अलगाववादी संगठनों पर बंदिश से भी भारत विरोधी गतिविधियाँ शिथिल पड़ीं | सबसे बड़ी बात ये हुई कि घाटी के लोगों को भयमुक्त वातावरण  का एहसास होने लगा था | लेकिन इसी बीच अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत कायम हो जाने से घाटी में आतंकवाद की उखड़ती सांसें लौटने लगीं | हालाँकि सीमा पर चौकसी से पहले जैसी घुसपैठ तो नहीं हो पा रही लेकिन पाक अधिकृत  कश्मीर से आतंकवादी मौका पाते ही सीमा के इस पार आ जाते हैं जिसमें स्थानीय लोगों का सहयोग रहता है | ये कहना गलत न होगा कि घाटी के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाले  कश्मीरियों के लिए आतंकवादियों और हथियारों को उस पार से इस पार लाने में सहायता करना एक तरह से रोजी - रोटी का हिस्सा है | ये इलाके इतने दुर्गम हैं कि कदम – कदम पर चौकसी भी नामुमकिन है | इस नई शैली के आतंकवाद के प्रति सुरक्षाबलों को भी नई रणनीति बनानी होगी | घाटी में पर्यटन के पुराने दिन लौटने के बाद   कश्मीरी पंडितों के मन में ये विश्वास जागने लगा था कि वे अपनी जन्मभूमि में दोबारा बस सकेंगे | लेकिन अलगाववादी ताकतें इसके दूरगामी नतीजों का आकलन कर परेशान हो उठीं  और अन्य राज्यों से आये गरीब मजदूरों को निशाना बनाकर उनको भयभीत करने में जुट गए | वे अपने उद्देश्य में कितने सफल होंगे ये पक्के तौर पर तो कह पाना मुश्किल है किन्तु इससे  पता चलता है कि आतंकवादी अब हताश हो उठे हैं | घाटी में आतंकवाद के चरमोत्कर्ष के दौरान भी बिहार , छत्तीसगढ़ , पंजाब आदि के श्रमिक काम करते रहे किन्तु उनको आतंकवादियों ने निशाना नहीं बनाया | मौजूदा संदर्भ में घाटी के राजनीतिक नेताओं को भी ये समझना चाहिए कि जब तक स्थितियां सामान्य नहीं होंगीं तब तक राज्य में चुनाव भी  संभव नहीं होगा | इसके साथ ही स्थानीय नागरिकों विशेष तौर पर व्यवसायी समुदाय को इन हत्याओं के विरुद्ध मुखर होना चाहिए वरना घाटी में  पटरी पर लौटता व्यवसाय और रोजगार फिर  चौपट होकर रह जाएगा | रही बात कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास  की तो आतंकवादी और उनकी पीठ पर हाथ रखने वाले राजनीतिक नेता कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन घाटी को अपनी मिल्कियत बनाये रखने की उनकी चाल  टिकने वाली नहीं | कश्मीरी जनता को अपने नेताओं की असलियत भी  समझनी चाहिए  जो  अपने स्वार्थ के लिए घाटी के विकास को तिलांजलि देते रहे |            

  -रवीन्द्र वाजपेयी                          

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