Tuesday 21 February 2023

नीतीश विपक्षी एकता के फेर में अपनी पार्टी ही तुड़वा बैठे



कुछ ही दिन पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का ये बयान काफी  चर्चित हुआ था कि कांग्रेस साथ दे दे तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 100 सीटों पर सिमट जाएगी। इसके पहले नीतीश स्पष्ट कर चुके थे कि वे प्रधानमंत्री की दौड़ में नहीं हैं और राहुल गांधी के बन जाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन उसके बाद वे ये कहते भी सुने गए कि विपक्ष गठबंधन कर चुनाव में उतरे और बहुमत आने के बाद प्रधानमंत्री का फैसला किया जाए। उनके इस पैंतरे से कांग्रेस को खटका हो गया और इसीलिए उसने अभी तक नीतीश के बयान पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त  नहीं की। असल में बाकी विपक्षी दलों में से राहुल की प्रधानमंत्री बनाने की आवाज नहीं उठने से कांग्रेस भी चौकन्नी है जिसे ये लगता था कि श्री गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद समूचा विपक्ष उनको अपना एकक्षत्र नेता स्वीकार कर लेगा। लेकिन द्रमुक को छोड़कर अन्य किसी गैर भाजपा दल ने इस बारे में कुछ भी कहने से परहेज कर रखा है। यहां तक कि नीतीश की सहयोगी लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद तक खुलकर कुछ नहीं बोल रही। विपक्षी गठबंधन और उसके नेतृत्व के मसले पर कांग्रेस अपने रायपुर अधिवेशन में संभवतः निर्णय लेगी या हो सकता है कुछ नेताओं को अन्य दलों से बात करने का दायित्व सौंपे। लेकिन इस बीच विपक्ष को एकजुट कर भाजपा को परास्त करने की मुहिम छेड़ने वाले नीतीश के घर में ही फूट पड़ गई और उनके निकट सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा ने कुछ दिनों तक नाराज बने रहने के बाद गत दिवस जनता दल (यू) छोड़कर राष्ट्रीय लोक जनता दल बनाने की घोषणा कर डाली। हालांकि श्री कुशवाहा इतने ताकतवर तो नहीं कहे जा सकते कि नीतीश की सरकार को खतरा पैदा कर सकें किंतु उनके सजातीय मतदाताओं पर उनका प्रभाव अवश्य है।इस झगड़े के पीछे जनता दल ( यू ) में उत्तराधिकार का मसला था। दरअसल उपेंद्र चाहते थे नीतीश उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने का ऐलान करें किंतु  जब उन्होंने तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री बनाने का बयान दिया तो वे रूष्ट हो गए और कई दिन चली तनातनी के बाद आखिरकार किनारा कर गए। उनके इस फैसले के बाद बिहार में एनडीए के फिर मजबूत होने की राह प्रशस्त हो गई है। जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार चिराग पासवान और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी दोबारा भाजपा की गोद में जाने तैयार हैं। इस तरह बिहार से विपक्ष की एकता की बजाय बिखराव की शुरुवात हो गई। उ.प्र  में भी सपा ने अब तक राहुल को लेकर कोई आश्वासन नहीं दिया और बसपा भी एकला चलो की नीति पर है। सबसे बड़ी बात ममता बैनर्जी का इस महत्वपूर्ण मुद्दे से कन्नी काट जाना है। इस वर्ष जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उनमें छत्तीसगढ़ और राजस्थान ही कांग्रेस शासित हैं। यदि उत्तर पूर्व के राज्य वह जीत जाए तो भी उसका राष्ट्रीय राजनीति पर विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसा लगता है विपक्षी दल उक्त दो राज्यों के परिणाम देखने के बाद ही ये तय करेंगे कि वे राहुल का नेतृत्व स्वीकार करें अथवा नहीं । यदि कांग्रेस छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बनाते हुए भाजपा से म.प्र भी छीनने में सफल हो जाती है तब ये अवधारणा मजबूत होगी कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद से कांग्रेस और विशेष रूप से राहुल का ग्राफ उठा है। अन्यथा क्षेत्रीय दल उससे दूरी बनाकर अपना जनाधार पुख्ता करने में लग जायेंगे। ऐसे में सबसे ज्यादा फजीहत होगी नीतीश कुमार की जो भाजपा से इतनी दूर निकल आए हैं कि एनडीए में वापसी लगभग नामुमकिन है वहीं उपेंद्र कुशवाहा के अलग हो जाने से वे और कमजोर हो चले हैं जिससे लालू प्रसाद और उनके बेटे उन पर हावी होने की कोशिश करते हुए इस बात का प्रयास करेंगे कि लोकसभा चुनाव के पहले ही उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में भेजकर राज्य की सत्ता पर काबिज हो जाएं। ये भी हो सकता है कि भाजपा महाराष्ट्र जैसा खेला करते हुए नीतीश को उद्धव ठाकरे वाली स्थिति में पहुंचा दे। बहरहाल आज की स्थिति में नीतीश की स्थिति बहुत ही नाजुक हो गई है। चौबे जी छब्बे बनने चले और दुबे बन गए वाली कहावत उन पर चरितार्थ हो रही है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


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