Friday 24 February 2023

पहले कांग्रेस खुद को सक्षम विपक्ष तो साबित करे



कांग्रेस का 85 वां राष्ट्रीय अधिवेशन आज से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में प्रारंभ हो रहा है। मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष बन जाने के बाद पार्टी को गतिशील बनाने का यह प्रयास न सिर्फ कांग्रेस अपितु प्रजातंत्र के लिए भी शुभ संकेत है । देश के समक्ष इस समय चिंता के जो विषय हैं उनमें से एक  मजबूत विपक्ष का अभाव भी है। कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है जिसने आजादी के आंदोलन का नेतृत्व किया। स्वाधीन भारत में लंबे समय देश और प्रदेशों पर  उसने राज किया । ये कहना भी गलत नहीं है कि वामपंथियों को छोड़कर शेष सभी राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकले। समाजवादी आंदोलन के अलावा आज की भाजपा के  पूर्ववर्ती जनसंघ के संस्थापक डा.श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी पंडित नेहरू के मंत्रीमंडल से स्तीफा देकर बाहर आए थे।कहने का आशय ये कि आजादी के बाद विपक्ष का जो स्वरूप बना वह कांग्रेस से वैचारिक मतभेदों से ही उभरा । और इसीलिए लंबे समय तक भारतीय  राजनीति में कांग्रेस संस्कृति शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा। ये कहना  भी गलत नहीं है कि कांग्रेस ने ही बाकी दलों को सत्ता के लिए जाति और धार्मिक तुष्टीकरण के फार्मूले सिखाए जिसका उसे जबर्दस्त नुकसान हुआ। कालांतर में उभरे क्षेत्रीय दलों में भी अधिकतर उसी से टूटकर या फिर उसकी नीतियों से नाराज होकर बने। धार्मिक तुष्टीकरण के लिए अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा एवं भाषावार प्रांतों का गठन कांग्रेस की उन गलतियों में से है जिनका नुकसान देश भुगत रहा है। इनकी वजह से क्षेत्रीयतावाद के अलावा धार्मिक कट्टरता को भी धीरे धीरे बढ़ावा मिला।इन सबकी वजह से कांग्रेस का प्रभाव क्षीण होते होते ये स्थिति बन गई कि वह राज्यों की  सत्ता से अलग होते  होते केंद्र की सत्ता भी गंवा बैठी। यहां तक कि लोकसभा में मान्यता प्राप्त विपक्ष बनने की पात्रता भी उससे छिन गई । लेकिन इसका दुष्परिणाम ये हो रहा है कि राष्ट्रीय सोच रखने वाले विपक्ष का अभाव हो गया तथा छोटे छोटे दल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं पाल बैठे । यही वजह है कि ममता बैनर्जी और के. सी.राव जैसे नेता तक कांग्रेस के झंडे तले भाजपा विरोधी विपक्षी मोर्चा बनाने में आगे पीछे हो रहे हैं। ममता तो पहले ही खुद को नरेंद्र मोदी का  विकल्प घोषित कर चुकी हैं । कांग्रेस अधिवेशन के शुरु होने के पहले ही तृणमूल कांग्रेस की मुखर सांसद महुआ मोइत्रा का ये बयान ध्यान देने योग्य है कि उनकी पार्टी ही भाजपा का विकल्प है। ये सब देखते हुए कांग्रेस को इस अधिवेशन के जरिए ये स्पष्ट करना होगा कि वह चुनाव पूर्व विपक्षी गठबंधन में बड़े भाई की भूमिका में रहते हुए राहुल गांधी को श्री मोदी के मुकाबले पेश करने का दबाव बनाएगी या फिर गठबंधन को बहुमत मिलने के बाद ही प्रधानमंत्री का मसला हल होगा। इसके साथ ही कांग्रेस को ये भी स्पष्ट करना होगा कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण पर उसका क्या रवैया रहेगा।बीते कुछ वर्षों में  पार्टी नर्म हिंदुत्व को अपनाने का प्रयास तो कर रही है किंतु वह आधा अधूरा प्रतीत होता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने विभिन्न धार्मिक केंद्रों पर पूजा अर्चना की । लेकिन पार्टी चाहकर भी भाजपा की तरह खुलकर धार्मिक और अन्य संवेदनशील मुद्दों पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त नहीं कर पाती। उ.प्र ,  बिहार , प.बंगाल जैसे बड़े राज्यों में वह घुटनों के बल पर है। वर्तमान  में  वह राजस्थान , म. प्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ और हिमाचल में ही भाजपा से सीधे मुकाबले में है। बाकी के राज्यों में उसे क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू बनना पड़ता है । इसका सबसे बड़ा कारण कांग्रेस का राष्ट्रीय पार्टी की तरह व्यवहार  न करना ही है। ज्वलंत मुद्दों पर नीतिगत अस्पष्टता और वैचारिक भटकाव की वजह से आज देश की सबसे पुरानी पार्टी   अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। यदि वह चाहती है कि 2024 के  चुनाव में नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सके तो उसे राहुल गांधी का मोह छोड़कर नीतिगत साहस दिखाना होगा। उसे उन कारणों का ईमानदारी से विश्लेषण करना चाहिए जिनकी वजह से उसका पराभव शुरू हुआ। दुर्भाग्य से आज भी  गांधी परिवार के अभिनंदन पत्र का वाचन करने वाले चंद नेता ही उस पर हावी हैं । भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल पूरे समय  जिस तरह रास्वसंघ और सावरकर को गालियां देते रहे उससे उनको और कांग्रेस दोनों को कुछ हासिल नहीं हुआ। धारा 370 और समान नागरिक संहिता जैसे विषयों पर पार्टी का रुख जनभावनाओं के विपरीत होने से वह एक कदम आगे और दो कदम पीछे वाली स्थिति में पहुंच जाती है । कांग्रेस को ये मुगालता छोड़ना होगा कि भारत छोड़ो यात्रा से राहुल गांधी इतने लोकप्रिय और ताकतवर हो गए हैं कि सभी विपक्षी दल उनको अपना नेता मान लेंगे। सत्ता की लालसा छोड़ उसको इस अधिवेशन के जरिए खुद को सक्षम विपक्ष के तौर पर पेश करना होगा क्योंकि फिलहाल तो देश को उससे यही अपेक्षा है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


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