Wednesday 1 February 2023

जनसंख्या को दुधारू गाय बनाना जरूरी: मुफ्तखोरी उत्पादकता पर भारी



पहले श्रीलंका और अब पाकिस्तान में जरूरी चीजों की किल्लत के साथ ही अर्थव्यवस्था औंधे मुंह गिरने से हालात बेकाबू नजर आ रहे हैं।।श्रीलंका में तो राष्ट्रपति को देश छोड़कर भागना तक पड़ा और जनता राष्ट्रपति भवन में घुस गई। विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो जाने से पेट्रोल डीजल का आयात अवरुद्ध हो गया। संकट के उस दौर में भारत ने बड़े भाई की भूमिका का निर्वहन किया जबकि श्रीलंका की सरकार चीन के प्रभाव में आकर भारत के व्यापारिक और सामरिक हितों की उपेक्षा करती  रही। ये पड़ोसी देश इस आर्थिक बदहाली से उबर पाता उसके पहले ही पाकिस्तान नामक दूसरे पड़ोसी देश में भी तकरीबन वैसे ही हालात उत्पन्न हो गए। खाने पीने की चीजों के अभाव के अलावा पेट्रोल डीजल के दाम आसमान छू रहे हैं। कर्ज देने वाले  विदेशी संस्थानों के दबाव में मुद्रा का अवमूल्यन करने से विदेशी मुद्रा का संग्रह खलास होने को है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष , अमेरिका और सऊदी अरब खैरात की बजाय कड़ी शर्तों पर कर्ज देने पर अड़े हैं। इसका कारण पाकिस्तान द्वारा पिछला कर्ज समय पर न लौटाना है। उक्त दोनों देशों में राजनीतिक अस्थिरता के साथ घटिया आर्थिक प्रबंधन के कारण अर्थव्यवस्था जमीन पर आ गिरी। उनकी दशा देखकर हमारे देश में भी चिंता व्यक्त की जाने लगी है। जानकार लोगों का मानना है कि मुफ्त उपहार बांटने का सिलसिला न रुका तो कुछ वर्षों बाद सरकार के लिए आर्थिक प्रबंधन कठिन हो जायेगा। उदाहरण के लिए गत वर्ष गर्मी जल्दी शुरू होने से गेहूं का उत्पादन  कुछ कम हुआ। ऊपर से यूक्रेन और रूस में युद्ध लंबा खिंच गया जो गेहूं के सबसे बड़े निर्यातक हैं । लेकिन जंग ने उसमें बाधा उत्पन्न कर दी जिससे विश्व भर में हमारे गेंहू की मांग बढ़ गई। किसान को अच्छी कीमत और सरकार को विदेशी मुद्रा का लालच जागा । लेकिन कुछ समय  बाद ही निर्यात रोकना पड़ा क्योंकि घरेलू बाजार में आटा महंगा हो गया। साथ ही अन्य कृषि उत्पाद भी महंगे हुए। अमेरिकी नीतियों के कारण रुपए का विनिमय मूल्य भी डालर के मुकाबले कमजोर होने से व्यापार घाटा अनुमान से बढ़ गया। गत वर्ष खुले बाजार में दाम ऊंचे होने से किसानों ने अपना अनाज सरकारी खरीद के बजाय वहां बेचा जिससे  सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए किया जाने वाला भंडारण लक्ष्य से कम रहा । इस वर्ष भी रबी फसल आने से पूर्व ही ग्रामीण अंचलों से खबर आ रही है कि किसान बजाय सरकार के  खुले बाजार में अपना उत्पाद बेचेगा। इधर आटे के दामों को नीचे लाने के लिए सरकार ने अपने संग्रह में से 30 लाख टन गेहूं बाजार में बेचने की घोषणा कर डाली।  बाजार की हलचल से लगता है इस साल सरकारी खरीदी और कम रहेगी जिससे मुफ्त खाद्यान्न योजना को चलाते रहना बेहद मुश्किल होगा।  भले ही सरकार अगले तीन साल तक के अन्न भंडारण का दावा कर रही है लेकिन जो वैश्विक आसार हैं  उनके मद्देनजर उसके दावों और योजनाओं को अमली जामा पहिनाना बहुत कठिन होगा । कुछ जानकार लोग आगामी वर्षों में खाद्यान्न संकट की आशंका भी जता रहे हैं । उनका मानना है कि आगामी लोकसभा चुनाव तक तो मुफ्त खाद्यान्न योजना जारी रखना सरकार में बैठे लोगों की मजबूरी है। उसके अलावा सरकार के गैर उत्पादक खर्चे भी अर्थव्यवस्था के कंधे झुकाने में मददगार साबित हो रहे हैं।  कुछ विपक्षी राज्यों द्वारा पुरानी पेंशन  योजना लागू करने के फैसले की आलोचना विपक्ष समर्थक अर्थशास्त्री भी कर रहे हैं क्योंकि इससे सरकार का खजाना खाली हो जायेगा। जिन राज्यों में चुनाव होना है वे और केंद्र सरकार विभिन्न ऐसी योजनाएं चला रहे हैं जिनका सीधा असर उनके खजाने पर पड़ रहा है किंतु  बंद करने की बजाय  उनकी संख्या और बढ़ाकर  माल़ ए मुफ्त दिल ए बेरहम वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। बात चूंकि श्रीलंका और पाकिस्तान से शुरू हुई इसलिए हमें भी उन गलतियों से बचना चाहिए जो अर्थव्यवस्था को गर्त में डालती हैं और इसके लिए जरूरी है देश के निर्माण में सबके योगदान की। दुर्भाग्य से हम अभी इस लक्ष्य से दूर हैं। सवाल ये है कि बिना रोजगार के सभी से काम लेना कैसे मुमकिन होगा ? इस बारे में विचारणीय मुद्दा ये है कि केवल सरकारी नौकरी को रोजगार का समानार्थी मान लेना आज की दुनिया में बेमानी है और जब भारत जैसे देश में कुशल के साथ ही अकुशल श्रमिकों का भी जबर्दस्त अभाव है तब बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों की सत्यता पर संदेह होता है। हमारी अर्थव्यवस्था आज भी कृषि प्रधान है । लेकिन एक तरफ तो कृषि कार्य हेतु श्रमिक नहीं मिलते दूसरी तरफ काम की तलाश में ग्रामीण मजदूर शहर का रुख करते देखे जा सकते हैं। इन हालातों में सरकारों को ये देखना चाहिए कि उनकी कल्याणकारी योजनाएं आगे पाट पीछे सपाट तो साबित नहीं हो रहीं। कहा जा रहा है कारोबार के लिए सर्वत्र अनुकूल वातावरण है । सबसे बडी बात मानव संसाधनों की प्रचुरता है  , तब जनसंख्या में चीन को पीछे छोड़ने के  करीब आ चुका हमारा देश आर्थिक ढांचे में उससे आगे क्यों नहीं निकल पा रहा ये चिंता के साथ चिंतन का भी विषय है। दरअसल अधिकारों को लेकर तो बीते 75 वर्षों में लोगों में जागरूकता आई है किंतु कर्तव्य अर्थात कार्य संस्कृति के बारे में अभी भी बेहद लापरवाही भरा रवैया है। ये शोचनीय प्रश्न है कि सत्ता में आने वाली हर पार्टी रोजगार देने के वायदे पर युवाओं का समर्थन हासिल करती है किंतु उन्हें ये समझाने में विफल रहती है कि रोजगार का अर्थ शासकीय नौकरी ही नहीं अपितु अन्य कार्यों से आजीविका चलाने से है। कोरोना काल में जब लॉक डाउन की वजह से सब कुछ बंद था तब छोटे कारोबारियों विशेष रूप से रोजाना कमाने वालों ने जिस तरह वैकल्पिक रोजगार के तौर तरीके ढूंढकर घर चलाया दरअसल वही भविष्य का चित्र है। स्टार्ट अप नामक नई संस्कृति के परिणाम बहुत  संतोषजनक नहीं होने पर भी उम्मीद जगाते हैं क्योंकि इनके माध्यम से ढर्रे से हटकर आजीविका अर्जित करने की मानसिकता उत्पन्न हुई है। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों से शिक्षित होकर निकले अनेक युवाओं ने एकदम अलग तरह के काम में हाथ आजमाया और वे जल्द ही उदाहरण बनकर  उभरे। दरअसल कुछ नया करने का साहस ही उद्यमिता की पहली सीढ़ी है जिस पर चढ़े बिना युवा पीढ़ी अपना भविष्य नहीं बना सकती।  वित्तीय विशेषज्ञ भी ये मान रहे हैं कि बेरोजगारी बड़ी समस्या तो है लेकिन लाइलाज भी नहीं। और आखिर कब तक 80 करोड़ लोगों को मुफ्त में खाद्यान्न दिया जाता रहेगा। यदि हमने अपनी विशाल जनसंख्या को उत्पादन से नहीं जोड़ा तो वह ऐसी गाय बनकर रह जायेगी जो खाती तो है किंतु दूध नहीं देती। प्रति व्यक्ति आय के साथ प्रति व्यक्ति उत्पादकता पर जोर देना समय की मांग है । वर्ना वोट बैंक की राजनीति श्रमिकों की कमी और बेरोजगारी जैसे बेमेल आंकड़े पेश करती रहेगी और मुफ्त अनाज प्राप्त करने के बाद उसे किराने वाले को बेचकर शराब पीने का सिलसिला जारी रहेगा। मुफ्तखोरी के दूरगामी घातक परिणामों का आकलन करना बेहद जरूरी है।

रवीन्द्र वाजपेयी 


No comments:

Post a Comment