Monday 27 February 2023

खुद को भाजपा का विकल्प साबित करने पर रहेगा कांग्रेस का फोकस



रायपुर में कांग्रेस के 85 वें अधिवेशन  में राजनीतिक , आर्थिक और अन्य प्रस्ताव पारित हुए। अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे सहित अनेक नेताओं ने वर्तमान परिदृश्य पर विचार व्यक्त किए। लेकिन  पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और  राहुल गांधी के भाषण पर सबकी निगाहें लगी थीं। इसके पीछे भी कारण ये था कि पार्टी लंबे समय से अनिश्चितता में फंसी थी। 2019 में नरेंद्र मोदी के दोबारा सत्ता में आने के बाद राहुल ने अध्यक्ष पद त्याग तो दिया किंतु गांधी परिवार ने  कमान अपने पास ही रखी और श्रीमती गांधी कार्यकारी अध्यक्ष बन गईं। हालांकि राहुल लगातार दोहराते रहे कि  परिवार का कोई सदस्य उक्त पद पर नहीं बैठेगा। लेकिन  संगठन पर पूरा नियंत्रण उसी का बना रहा। उस दौरान कांग्रेस को अनेक राज्यों  के चुनावों में  मुंह की खानी पड़ी । पंजाब उसके हाथ से निकल गया। प.बंगाल में तो उसका सफ़ाया हो गया। उत्तराखंड और गोवा में भी निराशा हाथ लगी। पंजाब में तो पार्टी  विभाजित हो गई और वही कहानी राजस्थान में दोहराए जाने के हालात हैं। जहां गांधी परिवार के विश्वस्त अशोक गहलोत ने हाईकमान को अंगूठा दिखाकर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से इंकार करते हुए राज्य की सत्ता न छोड़ने का ऐलान कर दिया। गहलोत समर्थक विधायकों ने  सामूहिक  त्यागपत्र देकर सरकार गिराने तक की स्थिति बना दी और हाइकमान असहाय बना रहा। लेकिन इसके पहले से ही पार्टी में असंतोष के स्वर उठने लगे थे। जी 23 नामक समूह ने  अध्यक्ष सहित कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव हेतु पत्र लिखकर उसे सार्वजनिक भी कर दिया । बिना किसी का नाम लिए परिवारवाद के विरुद्ध टिप्पणियां होने लगीं। जाहिर था  राहुल की विफलताओं के मद्देनजर जी 23 ने ऊर्जावान नेतृत्व को आगे बढ़ाने का अभियान छेड़ा। लेकिन असफलता हाथ लगने पर उनमें से अनेक पार्टी छोड़कर चलते बने। कैप्टन अमरिंदर सिंह , सुनील  जाखड़ , गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल , आरपीएन सिंह वे नाम हैं जो बीते दो साल में पार्टी छोड़ बैठे। गुजरात में हार्दिक पटेल भी उसी कतार में शामिल हो गए । इससे निपटने के लिए गांधी परिवार ने पार्टी अध्यक्ष के  चुनाव का ऐलान और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा जैसे दो कदम उठाए। पहले का मकसद असंतुष्टों को ये बताना था कि उसकी संगठन पर काबिज रहने की मंशा नहीं है। लेकिन जब श्री गहलोत पीछे हटे तो श्री खरगे पर दांव लगा दिया गया। उधर राहुल यात्रा पर निकल पड़े ये दर्शाने के लिए मानो वे पूरी तरह निर्लिप्त हों। हालांकि श्रीमती गांधी के श्री खरगे के साथ खड़े हो जाने से पूरी पार्टी को ये संदेश दे दिया गया कि प्रथम परिवार उनके साथ है। इसीलिए  शशि थरूर  बड़े  अंतर से हारे क्योंकि वे जी 23 समूह का हिस्सा थे। उसके बाद योजनाबद्ध तरीके से पूरा फोकस राहुल की यात्रा पर केंद्रित किया गया और इसीलिए यात्रा की चर्चा और प्रभाव कम होने के पहले ही अधिवेशन का आयोजन भी किया गया। जिसमें श्रीमती गांधी ने यात्रा को टर्निंग प्वाइंट बताकर ये जता दिया कि कांग्रेस को विजय पथ पर ले जाने की क्षमता उनके बेटे में ही है और उसे ये दायित्व देकर वे कार्यमुक्त हो रही हैं। भाषण प्रियंका का भी हुआ किंतु  केंद्र बिंदु राहुल रहे। उन्होंने वैसे तो लोकसभा में दिए अपने भाषण को ही लगभग दोहराया किंतु 52 साल में भी अपना घर न होने जैसी बातें करते हुए उपस्थित कांग्रेसजनों  के भावनात्मक दोहन का दांव भी चला। कांग्रेस वर्किंग कमेटी के चुनाव को टालते हुए श्री खरगे को मनोनयन का अधिकार देना इस बात का प्रमाण है कि  भले ही अध्यक्ष का चुनाव कर लिया गया किंतु पार्टी की  सर्वोच्च संस्था के लोकतंत्रीकरण की बात गांधी परिवार को मंजूर नहीं है। चुनाव न कराने का कारण भी ये सुनने में आया कि विभिन्न  राज्यों में विधानसभा  चुनाव होने से चुनाव कराना पार्टी में फूट का कारण बन सकता है। हालांकि जी 23 में बचे खुचे नेताओं ने फिलहाल भले ही मौन साध रखा हो लेकिन ज्यादा समय तक ये स्थिति नहीं रहेगी। राजस्थान में विधानसभा चुनाव सिर पर हैं किंतु गहलोत और पायलट का झगड़ा यथावत है। दूसरे राज्यों में भी संगठन की स्थिति अच्छी नहीं है। छत्तीसगढ़ में टी. एस.सिंहदेव मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के विरुद्ध मौके की तलाश कर रहे हैं वहीं म.प्र में मुख्यमंत्री के चेहरे पर बवाल है। लेकिन इस सब पर ध्यान दिए बिना भारत जोड़ो यात्रा के दूसरे चरण की घोषणा कर दी गई। त्रिपुरा ,मेघालय और नागालैंड विधानसभा चुनाव की भी गुजरात जैसी उपेक्षा की गई । ऐसा लगता है कांग्रेस का पूरा ध्यान राहुल के नेतृत्व को चमकाते हुए आगामी लोकसभा चुनाव पर लगा है। इसीलिए विपक्ष के साथ गठबंधन की कोई चर्चा नहीं हुई। उल्टे जयराम रमेश ये बोल गए कि इस साल 9 राज्यों के चुनाव को देखते हुए इस बारे में बात करने का ये समय नहीं है। इस प्रकार कांग्रेस के इस  बहुप्रतीक्षित अधिवेशन का सार यही है कि  जिस सर्वोच्च आसंदी पर अभी तक श्रीमती गांधी विराजमान थीं उस पर अब राहुल बैठेंगे।और विपक्ष से गठबंधन इसी शर्त पर होगा कि सब उनके नेतृत्व में लड़ने को तैयार हों। जहां तक बात कार्यसंस्कृति  की है तो उसमें किसी परिवर्तन का कोई संकेत नहीं मिला। आने वाले दिनों में कांग्रेस अरुणाचल से गुजरात तक की श्री गांधी की यात्रा पर पूरा ध्यान लगायेगी। ये सोचकर कि इससे उसके आंतरिक झगड़े तो दबे रहेंगे ही साथ ही अन्य विपक्षी दलों को भी ये संदेश जाएगा कि वही राष्ट्रीय दल है इसलिए भाजपा को रोकने की शक्ति उसी में है। पहली यात्रा से उसका उत्साह निश्चित तौर पर बढ़ा है लेकिन दूसरी यात्रा जिन राज्यों से गुजरेगी वहां क्षेत्रीय दल काफी ताकतवर हैं । इसलिए आने वाले कुछ महीने राष्ट्रीय राजनीति में बेहद महत्वपूर्ण रहेंगे । विशेष रूप से कांग्रेस की भूमिका पर सबकी नजर रहेगी।

रवीन्द्र वाजपेयी 


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