Thursday 9 February 2023

खतरनाक मोड़ की तरफ बढ़ रही रूस और यूक्रेन की जंग



रूस और यूक्रेन की जंग को एक साल होने जा रहे हैं | सैन्य क्षमता की तुलना करें तो यूक्रेन को कुछ दिनों में ही घुटने टेक देना चाहिए थे क्योंकि रूस जैसी महाशक्ति का मुकाबले करने की क्षमता और साधन  उसके पास नहीं थे | यद्यपि युद्ध का माहौल एकाएक नहीं बना | रूस अनेक सालों से अपने इरादे जाहिर करता आ रहा था | 2014 में क्रीमिया बंदरगाह पर कब्जा करने के साथ ही उसने पूरी दुनिया को बता दिया कि वह किस सीमा तक जा सकता है | बात शायद इतनी न उलझती  यदि यूक्रेन रूस की सारी शर्तें मानते हुए  उसका पिट्ठू बन जाता | लेकिन उसने अपनी सुरक्षा की खातिर अमेरिका प्रायोजित नाटो सैन्य संधि से जुड़ने का जो प्रयास किया उससे रूस के कान खड़े हो गए | भले ही सोवियत संघ के हिस्से रहे तमाम देश अब प्रभुसत्ता संपन्न देश बन गये लेकिन रूस ये नहीं चाहता कि वे अमेरिका के प्रभाव में जाएं क्योंकि  इससे न सिर्फ उसकी सुरक्षा बल्कि आर्थिक हित भी प्रभावित होते हैं | यूक्रेन की देखा सीखी पूर्वी यूरोप के कुछ और देशों ने  नाटो से जुड़ने में रूचि दिखाई जिससे रूस के राष्ट्रपति पुतिन को खतरा महसूस होने लगा । लेकिन यूक्रेन चूंकि बड़ा देश है अतः उसके अमेरिकी खेमे में जाने से उन्हें ज्यादा डर लगा | इसीलिये उसके उन सीमावर्ती  प्रान्तों में जहां रूसी भाषा बोली जाती है रूस ने अलगाववादी आन्दोलन खड़े करवाए और फिर बहाना  बनाकर गत वर्ष फरवरी में विधिवत आक्रमण कर दिया | चूंकि उस समय तक यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बना था लिहाजा अमेरिका युद्ध में सीधे शामिल नहीं  हो सकता था और फिर वह एक साल पहले ही  अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाकर निकला था । इसलिए राष्ट्रपति वाईडन  अपनी  सेना  दूसरे देश की धरती पर भेजने से पीछे हट गये | लेकिन यूक्रेन को यदि अकेला छोड़ दिया जाता तब रूस सीधे सीधे यूरोप के मुहाने पर आकर बैठ जाता जो अमेरिका को मंजूर नहीं था | इसलिए उसने और उसके साथी देशों ने यूकेन को सैन्य सामग्री देने की नीति अपनाई | आर्थिक तथा अन्य सहायता भी दिल खोलकर दी गयी | इसके बलबूते ही यूक्रेन बर्बादी झेलते हुए भी रूस के सामने डटा हुआ है | लेकिन अब जबकि युद्ध की वर्षगांठ आने को है तब दो तरह की संभावनाएं सुनने में आ रही हैं | पहली तो ये कि रूस और यूक्रेन के बीच समझौता  हो जाये जिसके अंतर्गत यूक्रेन रूस के व्यापारिक हितों के अनुकूल अपनी भूमि और बंदरगाहों का उपयोग करने की सुविधा उसे दे और नाटो की सदस्यता का इरादा त्यागते हुए उसका अघोषित उपनिवेश बन जाए | लेकिन ऐसा करते समय पुतिन ये भी चाहेंगे कि वहां के मौजूदा राष्ट्रपति जेलेंस्की हट जाएँ और मास्को समर्थक पिट्ठू सत्ता संभाले | हालाँकि इसके लिए अमेरिका कितना तैयार होता है ये कह पाना कठिन है | दूसरी संभावना ये है कि रूस यूक्रेन को पूरी तरह पराजित कर उस पर कब्जा करने के बाद कठपुतली सरकार वहाँ बनवा दे जैसा सोवियत संघ के ज़माने में हुआ करता था | यद्यपि ऐसा करने के लिये रूस को और आक्रामक होकर निर्णायक लड़ाई लड़नी होगी जिसमें सैनिकों की बलि के अलावा सैन्य सामग्री  भी काफी खर्च होगी | इसमें दो मत नहीं है कि इस जंग में यूक्रेन  आर्थिक तौर पर तबाह हो गया है | पूरा देश खंडहर में तब्दील होने से तमाम सुविधाएं और व्यवस्थाएं चौपट हो गईं हैं | लाखों लोग देश छोड़कर जा चुके हैं | जनता पूरी तरह हलाकान है | हजारों लोग मारे जा चुके हैं | उधर रूस भी कम परेशान नहीं है |  उसका विदेशी व्यापार  ठप्प पड़ा है  |आर्थिक प्रतिबंधों के कारण उसे अपना कच्चा तेल और  गैस , भारत तथा चीन को सस्ते दाम पर बेचना पड़ रहा है | जनता भी पुतिन से नाराज हो रही है | स्टालिन के ज़माने जैसी हत्याएं भी सुनने में आ रही हैं | कुल मिलाकर वह भी बुरी तरह उलझ गया है | लेकिन इस युद्ध का  अंजाम क्या होगा इसे लेकर  पूरी दुनिया परेशान है । हालांकि अमेरिका , ब्रिटेन और जर्मनी यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति जारी रखने के संकेत दे रहे हैं लेकिन कहीं न कहीं उन्हें भी ये युद्ध निरर्थक लगने लगा है।और इसी कारण स्थितियां खतरनाक मोड़ लेने की ओर बढ़ रही हैं।द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान पर किया गया परमाणु हमला इसका उदाहरण है। रूस इस हद तक जायेगा या नहीं और अमेरिका किस सीमा तक यूक्रेन को मदद देता रहेगा ये बड़े सवाल हैं। कोरोना के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ा गई है ऊपर से इस युद्ध ने सब उलट पलट कर दिया । संरासंघ की लाचारी भी उभरकर सामने आ चुकी है । भारत ने हालांकि युद्ध में किसी  का साथ  न देकर कूटनीतिक कौशल तो दिखा दिया किंतु इससे हमारे आर्थिक हित भी प्रभावित हो रहे हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया को पुतिन के रूप में हिटलर नजर आ रहा है। और डर इसी बात का है कि जीत न मिलने की हालत में वे वह कदम न उठा लें जिसका डर है। वैसे भी बीते एक साल में वे अनेक बार परमाणु हमले की चेतावनी दे चुके हैं। दरअसल विश्व समुदाय के साथ पुतिन का संवाद न के बराबर है। भारत और चीन ही वे देश हैं जिनसे उनका संपर्क है लेकिन दोनों तटस्थ बने हुए हैं। संरासंघ भी मिट्टी का माधो साबित हो चुका है। उसके अलावा भी जो संगठन हैं वे भी बीच बचाव की बजाय दूर से तमाशा देख रहे हैं जबकि इस समय दुनिया में शांति की जरूरत है।ऐसे में  ये युद्ध जल्द न रुका तो इसका अंत हिरोशिमा और  नागासाकी जैसी  विभीषिका उत्पन्न कर सकता है जिसके बाद आग और फैल जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।

रवीन्द्र वाजपेयी 


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