Thursday 23 February 2023

दिल्ली नगर निगम में हंगामा प्रजातंत्र के लिए अशुभ संकेत




दिल्ली नगर निगम  चुनाव के परिणाम  दिसंबर 2022 में हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधान सभा के नतीजों के पहले ही आ चुके थे । उन दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद मंत्रीमंडल भी बन गया लेकिन दिल्ली को महीनों के इंतजार के बाद कल किसी तरह से  नया महापौर मिल सका। इसके पहले दो तीन बार नव निर्वाचित पार्षदों की बैठक हुई किंतु हंगामे की वजह से सदन स्थगित करना पड़ा। ये कहना गलत न होगा कि इस मामले में भाजपा की तरफ़ से की गई अड़ंगेबाजी अनावश्यक और अनुचित थी। 12 मनोनीत पार्षदों को मताधिकार दिलाकर तोड़फोड़ के जरिए महापौर बनवाने की उसकी कोशिश के नैतिक और व्यवहारिक दोनों पक्ष कमजोर थे। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया जिसके कड़े निर्देश के बाद अंततः उपराज्यपाल को चुनाव करवाने बाध्य होना पड़ा और तनावपूर्ण वातावरण में आखिरकार सदन में स्पष्ट बहुमत प्राप्त  आम आदमी पार्टी अपना महापौर और उपमहापौर चुनवाने में सफल हो गई। भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार खड़ा किया जाना सांकेतिक विरोध के लिहाज से गलत नहीं था लेकिन उसके बाद स्थायी समिति के चुनाव के लिए सदन  में हुए होहल्ले ,मारपीट और तोड़फोड़ को देखकर प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा रखने वाले हर किसी का मन दुखी होगा । विपक्ष संसदीय तरीकों से सत्ता पक्ष पर दबाव बनाए उसमें कुछ भी गलत नहीं है । लेकिन  ये जानते हुए भी कि वह अल्पमत में है और सत्ता पक्ष का एक भी निर्वाचित सदस्य  उसके साथ आने तैयार नहीं है , तब बिना ठोस आधार के महापौर के चुनाव में रुकावट पैदा करने से दिल्ली के मतदाताओं को  दो माह तक महापौर से वंचित रहना पड़ा। उसके बाद स्थायी समिति के चुनाव में भी हंगामा और मारपीट की परिस्थिति उत्पन्न करना अच्छा नहीं है। आम आदमी पार्टी दूध की धुली है और उसके सारे व्यवहार लोकतंत्र की कसौटी पर खरे साबित हुए ये कहना तो सही नहीं है किंतु दिल्ली की जनता ने उसे लगातार दो बार विधानसभा में भारी बहुमत दिया तो लोकसभा में बुरी तरह से परास्त भी किया। इससे ये एहसास होता है कि राष्ट्रीय राजधानी के मतदाता एक तरफ जहां आम आदमी पार्टी की प्रदेश सरकार से संतुष्ट हैं वहीं उन्होंने देश की सत्ता चलाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को उपयुक्त समझा। इसी तरह 2015 में आम आदमी पार्टी को प्रदेश की सत्ता सौंपने के बावजूद 2017 में तीनों नगर निगमों में भाजपा को बहुमत प्रदान कर दिया। इस बार तीनों को मिलाकर एक नगर निगम बनाकर चुनाव हुए जिसमें भाजपा से छीनकर जनता ने आम आदमी पार्टी को बहुमत दे दिया। हालांकि वह विधानसभा चुनाव जैसा भारी भरकम न होकर काम चलाऊ ही है जिससे आम  आदमी पार्टी का सिर भी न चढ़े। दरअसल अरविंद केजरीवाल ये दावा कर रहे थे कि भाजपा को 20 सीटें भी मिल जाएं तो बहुत होगा किंतु  उनकी पार्टी जहां 134 सीटें जीत सकी वहीं भाजपा को 106 सीटें मिलने से मजबूत विपक्ष की स्थिति बन गई । कांग्रेस के 9 और 3 निर्दलीय पार्षद जीते। इस प्रकार मतदाताओं ने विधानसभा के बाद आम आदमी पार्टी को नगर निगम भी सौंपने का फैसला किया किंतु भाजपा को  100 से अधिक सीटें देते हुए  विपक्ष को भी मज़बूत बना दिया। अब इसके बाद तोड़फोड़ के जरिए बहुमत हासिल करने और महापौर के चुनाव को रोकने के लिए उठाए गए कदम रचनात्मक विपक्ष की भूमिका के मद्देनजर किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है । जब ऐसी ही हरकत विपक्ष संसद में करता है तो भाजपा उसकी निन्दा करती है किंतु जहां उसे विपक्ष में बैठना होता है वहां उन्हीं तरीकों का इस्तेमाल करने में वह नहीं  झिझकती । आम आदमी पार्टी को भाजपा अपने लिए चुनौती मान रही है किंतु बेहतर होगा वह राजनीतिक और वैचारिक  तौर तरीके आजमाकर उसके विस्तार को रोकने का प्रयास करे। साथ ही उसे उन कमियों को  दूर करना होगा जिनकी वजह से दिल्ली के मतदाताओं  ने उसे दो बार विधानसभा और एक बार नगर निगम चुनाव में शिकस्त दी। राष्ट्रीय परिदृश्य पर निगाह डालें तो निश्चित रूप से भाजपा बहुत शक्तिशाली है लेकिन अनेक राज्यों में अभी भी वह उस तुलना में कमजोर है। जिन राज्यों में उसे लोकसभा चुनाव में भारी सफलता मिलती रही उनके  मतदाताओं ने प्रदेश की सत्ता किसी और पार्टी को दे दी तो इससे खीजने की बजाय आत्मावलोकन करना चाहिए। उस दृष्टि से दिल्ली नगर निगम में महापौर चुनाव हेतु अब तक का घटनाक्रम अच्छा संकेत नहीं है। जब नगर निगम में ये सब हो रहा है तब विधान सभा और संसद में होने वाले हंगामों को देखकर ये स्वीकार करने में कुछ भी गलत नहीं है कि सत्ता का नशा राजनीतिक दलों पर इस कदर तक चढ़ चुका है कि वे लोकतंत्र के मंदिर तक को अपवित्र करने में भी नहीं लजाते ।


रवीन्द्र वाजपेयी 

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