Thursday 1 July 2021

बेहतर होता अदालत मुआवजे की न्यूनतम राशि तय कर देती



कोरोना चूँकि अपरिचित और अप्रत्याशित  वैश्विक महामारी है इसलिए सरकार और  स्वास्थ्य सेवाएं उसके सामने लाचार नजर आईं | इलाज और बचाव के तरीके खोजते - खोजते उसका दूसरा हमला भी हो गया जो पहले से ज्यादा घातक होने से लाखों लोगों की जान ले गया | इलाज के लिए लोग भटकते रहे | हालाँकि करोड़ों ऐसे भी रहे जो कोरोना संक्रमण के बावजूद  घर में रहते हुए ही ठीक हो गए | लेकिन सभी ऐसे भाग्यवान नहीं थे | अस्पताल में भर्ती होने वाले लोग भी बड़ी  संख्या में चल बसे , वहीं हजारों अस्पताल में दाखिला पाने की जद्दोजहद  में बिना इलाज ही दम तोड़ बैठे | अप्रैल और मई के बीते दो महीने तक पूरे देश में मौत का मंजर छाया रहा | अनेक मर्तबा तो ऐसा लगा मानो व्यवस्था नाम की कोई चीज ही नहीं बची |  इस दौरान जनता ने चिकित्सा इंतजामों की कमी  के साथ ही निजी अस्पतालों का असंवेदनशील नजरिया  भी देखा |  सरकारी तन्त्र उसके समक्ष जिस तरह  घुटनाटेक नजर आया उसकी वजह से आम जन के मन में व्यवस्था के प्रति जबरदस्त गुस्सा व्याप्त है | स्वास्थ्य बीमा के अलावा , सीजीएचएस और आयुष्मान कार्ड सुविधा प्राप्त मरीजों तक को अधिकतर निजी अस्पताल वालों  ने बिना लाखों रूपये की अग्रिम  नगद राशि जमा करवाए भर्ती करने से मना कर दिया | मुसीबत के उन क्षणों में शासन और प्रशासन  कड़े - कड़े निर्देश तो प्रसारित  करते रहे लेकिन निजी  अस्पताल संचालकों के सामने उनकी रत्ती भर नहीं  चली | यदि सरकारी चिकित्सा  तंत्र सक्षम होता तब पैसे के अभाव में इलाज से वंचित रहने से जान गँवा बैठे न जाने कितनों को बचाया जा सकता था | सबसे दुखद बात ये हुई कि इलाज नहीं मिल पाने से मारे गए ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिनकी मौत का कारण कोरोना नहीं माना जा रहा | निजी ही नहीं अपितु सरकारी अस्पतालों में जान गंवाने वाले कोरोना मरीजों की मौत का कारण भी कोरोना नहीं बताया गया | इसे लेकर खूब हल्ला भी मचा लेकिन वह नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुआ | हालांकि केंद्र और राज्य सरकारों ने चुनिन्दा श्रेणी के  मृतकों के आश्रितों को आर्थिक मुआवजे के साथ ही नौकरी आदि देने की व्यवस्था भी की किन्तु आम जन को इसका लाभ नहीं मिल  सका जिसका बड़ा कारण शासनतंत्र की असंवेदनशीलता ही माना जायेगा | गत दिवस सर्वोच्च न्यायालय ने इस बारे में फैसला सुनाते हुए सरकार को निर्देश दिया कि कोरोना चूँकि महामारी है इसलिए इसके चपेट में आकर जान गंवाने वालों के परिजनों को मुआवजा देना उसकी जिम्मेदारी है | हालाँकि न्यायालय ने उसकी राशि तय करने का अधिकार सरकार को ही दे दिया | यदि अदालत न्यूनतम राशि ही तय कर देती तब पीड़ित परिवारों को जल्द राहत मिलने की उम्मीद बढ़ जाती लेकिन सरकार नामक व्यवस्था को चलाने वाली नौकरशाही की जो टरकाऊ कार्यशैली है उसे देखते हुए जल्दी कुछ होगा इसकी उम्मीद कम ही है | बड़ी बात नहीं यदि कोरोना की तीसरी लहर के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय के संदर्भित आदेश का पालन ही न हो पाए | बेहतर है सरकार इस बारे में कोई स्थायी नीति बनाये जिससे ऐसी ही किसी भी आपदा के समय आम नागरिक अपने और अपने परिवार की चिकित्सा  के प्रति चिंता में न डूबे | सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्यु प्रमाण पत्र में कोरोना का उल्लेख न होने सम्बन्धी विसंगति दूर करने के बारे में भी निर्देशित किया है जो बहुत ही जटिल कार्य है क्योंकि प्रशासन द्वारा मौतों को छुपाने के उद्देश्य से मृत्यु का कारण स्पष्ट नहीं किया गया | निजी  अस्पतालों ने भी इस षड्यंत्र में शासन का साथ दिया | इस वजह से कोरोना से मरने वालों के परिजन सम्भावित राहत से वंचित रह गए  |  हालाँकि न्यायालय के स्पष्ट आदेश के बावजूद सरकार इतनी आसानी से मुआवजा दे देगी ये सोचना जल्दबाजी होगी | और उसकी राशि भी ऊँट के मुंह में जीरा जैसी हो तो आश्चर्य नहीं होगा | अच्छा होता अदालत मुआवजे की न्यूनतम राशि निर्धारित करने के साथ ही तीसरी लहर आने की स्थिति में लोगों के इलाज के बारे में स्पष्ट  दिशा निर्देश दे देती | बहरहाल इस निर्णय से एक बात तो साफ़ हो गई कि महामारी से हुई मौत के लिए मृतक के परिजनों को मुआवजा देना सरकार का दायित्व है | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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