Thursday 29 July 2021

ममता कुछ भी कहें लेकिन क्या कांग्रेस किसी और का नेतृत्व स्वीकार करेगी



प. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की पांच दिवसीय दिल्ली यात्रा चर्चाओं में है | संसद का सत्र चलने से वहां  वैसे भी राजनीतिक सक्रियता है  | सुश्री बैनर्जी निश्चित रूप से इस समय आकर्षण का केंद्र हैं  क्योंकि विपक्ष में आज  वे ही ऐसी नेता हैं जिन्होंने अकेले दम पर  न सिर्फ मोदी – शाह की जोड़ी को परास्त किया वरन कांग्रेस और वामपंथियों को भी चारों खाने चित्त कर दिया | इस कारण  उनका आत्मविश्वास ठीक वैसे ही सातवें  आसमान पर है जैसा 2015 में दिल्ली में ऐतिहासिक जीत हासिल करने के बाद अरविन्द केजरीवाल में दिखता था | फर्क केवल इतना है कि अरविन्द एक महानगरीय राज्य के मुख्यमंत्री बने थे जबकि ममता एक बड़े राज्य की  मुखिया बनीं   और वह भी तीसरी बार | इसीलिये यदि राजनीतिक दल और समाचार माध्यम उन्हें अतिरिक्त महत्व दे रहे हैं तो वह स्वाभाविक ही है  | दिल्ली में उन्होंने प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के अलावा कांग्रेस की शीर्ष नेत्री सोनिया गांधी से मुलाकात की | ये भी रोचक संयोग है कि दोनों की पार्टियों को ममता ने करारी शिकस्त दी है | श्री मोदी से तो उनकी भेंट महज शिष्टाचार थी लेकिन श्रीमती गांधी से वे विपक्षी गठबंधन के सिलसिले में मिलीं | राजनीति में रूचि रखने वालों को स्मरण होगा कि उन्होंने 2019 में भी मोदी विरोधी मोर्चा बनाने के लिए कोलकाता में विपक्षी दलों का जमावड़ा किया तथा किन्तु सफलता नहीं मिली | हालाँकि  2024 के लोकसभा चुनाव को भले ही भी लगभग तीन साल का समय शेष हो किन्तु बीते एक वर्ष में जैसे हालात बने उनकी वजह से प्रधानमन्त्री पहले जैसी  आक्रामकता नहीं दिखा पा रहे | कोरोना के कारण हुई  लाखों  मौतों के अलावा अर्थव्यवस्था की   चिंताजनक  स्थिति से केंद्र सरकार दबाव में हैं | पेट्रोल – डीजल की कीमतें नियन्त्रण से बाहर होने से सभी  चीजें महंगी होती जा रही है ,  बेरोजगारी भी  चरम पर है | इस सबके बावजूद देश की  सबसे पुरानी  राजनीतिक पार्टी कांग्रेस विपक्ष की भूमिका का समुचित निर्वहन नहीं कर पा रही | यही कारण है कि ममता बैनर्जी श्रीमती गांधी को ये नसीहत दे आईं कि वे क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करें | उस समय राहुल गांधी भी उपस्थित थे | उनका ये तंज सम्भवतः   कांग्रेस द्वारा बंगाल में वामपंथियों के साथ किये गठबंधन को लेकर था |  बाद में उन्होंने ये भी कहा कि 375 सीटों पर भाजपा को सीधी चुनौती देना सम्भव है लेकिन इसके लिए विपक्षी दलों को  200 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ना होंगी |  सुश्री बैनर्जी को शरद पवार और अरविन्द केजरीवाल के अलावा शिवसेना से भी फिलहाल तो समर्थन मिलता दिख रहा है किन्तु  सपा , बसपा , राजद आदि का रुख स्पष्ट नहीं है | दरअसल विपक्ष के जिस गठबंधन को वे  आकार देना चाह रही हैं वह यदि उप्र , उत्तराखंड और पंजाब में नहीं हो सका तब उसका भविष्य अच्छा नहीं कहा जा सकता | आज के हालात में क्या सपा , बसपा और कांग्रेस उ.प्र में   भाजपा को टक्कर देने एकजुट हो सकती हैं ? पंजाब में भी  कांग्रेस , अकाली और आम आदमी पार्टी में एकता संभव नहीं है  | हालाँकि वहाँ भाजपा मुकाबले में है ही नहीं |  राजस्थान , छत्तीसगढ़ और पंजाब में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के अलावा कांग्रेस महाराष्ट्र में शिवसेना और राकांपा के साथ गठबंधन सरकार का हिस्सा है लेकिन उसके प्रदेश अध्यक्ष जिस तरह एकला चलो का राग अलाप रहे हैं वह विपक्षी एकता की संभावनाओं को धूमिल करती है | शायद इसीलिये ममता ने श्रीमती गांधी और राहुल को क्षेत्रीय पार्टियों पर भरोसा करने की समझाइश दी | दो दिन पहले श्री गांधी ने संसद में विपक्षी नेताओं की जो बैठक बुलाई थी उसमें भी आम आदमी पार्टी के अलावा अनेक क्षेत्रीय दल शामिल नहीं हुए | दरअसल ममता भी विपक्षी एकता के लिये इतने हाथ पांव न मारतीं अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल में भाजपा डेढ़ दर्जन सीटें नहीं जीतती | सबसे बड़ी बात ये है विपक्ष की ओर से प्रधानमन्त्री का चेहरा कौन होगा ? कांग्रेस भी क्षेत्रीय दलों के दबाव को किस हद तक स्वीकार कर सकेगी ये बड़ा सवाल है | एक अड़चन ये भी है कि क्षेत्रीय दल अपने  प्रभाव  क्षेत्र वाले राज्यों में कांग्रेस को ज्यादा बर्दाश्त कर पाने को राजी नहीं होंगे | उ.प्र , बिहार , बंगाल , महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे बड़े राज्यों में कांग्रेस जिस  दयनीय हालत में है वह  देखते हुए उसको पनपने का अवसर  औरों की तो  छोड़ दें खुद ममता भी नहीं  देंगी | वैसे भी विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधक तो कांग्रेस ही है  क्योंकि गांधी परिवार ये कभी नहीं चाहेगा कि  अगुआई उनके अलावा और कोई करे | बीते हुए सालों में श्रीमती गांधी के बुलावे पर एक दो को छोड़कर बाकी विपक्षी पार्टियाँ एकत्र हो जाया करती थीं | लेकिन राहुल गांधी को विपक्ष के नेता वैसा भाव नहीं देते | दरअसल  ढुलमुल रवैया उनके व्यक्तित्व को हल्का बना देता  है | उस लिहाज से ममता निःसंदेह इस समय विपक्षी एकता की धुरी हैं लेकिन आखिरकार  वे भी महज एक क्षेत्रीय नेता हैं और उनकी पार्टी का बंगाल के बाहर कोई असर नहीं है | अतीत में वे दिल्ली में भी तृणमूल को लड़ाकर देख चुकी हैं और हाल ही में उ.प्र में भी हाथ आजमाने के संकेत उनकी तरफ से आये थे | शरद पवार , उद्धव ठाकरे , अखिलेश यादव, मायावती , तेजस्वी यादव और अरविन्द केज्र्रीवाल भाजपा के विरोध में एक जुट होने का कितना भी प्रयास करें पर बिना कांग्रेस के ऐसा होना संभव नहीं किन्तु अपनी  अंदरूनी दशा के  कारण वह विपक्षी एकता की सूत्रधार बनने की हैसियत खो चुकी है | यदि ऐसा न होता तब जो पहल ममता द्वारा की जा रही है वह सोनिया जी अथवा राहुल करते |   

- रवीन्द्र वाजपेयी


 

 

 

 

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