Wednesday 27 April 2022

प्रशांत समझ गए कि कांग्रेस में घर की मुर्गी दाल बराबर हो जाएंगे



चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में आने से मना कर दिया हैं | एक ट्वीट के जरिये उन्होंने ये तंज भी कसा कि कांग्रेस को उनकी नहीं सक्षम नेतृत्व और संगठन में सुधारात्मक बदलाव की जरूरत है | उनके द्वारा सौंपे  गये 600 पृष्ठीय सुझावों पर गांधी परिवार और उसके बेहद करीबी कुछ नेताओं ने भले ही अपनी  सहमति दी हो लेकिन जैसा कि सुनाई दे रहा है अधिकतर वरिष्ट नेता ही नहीं अपितु राज्य और जिला स्तर पर भी उनके विरोध में आवाजें उठ रही थीं | श्री किशोर चाहते थे कि वे जो कुछ भी करें उसकी जानकारी सीधे सोनिया गांधी को दें | इसके अतिरिक्त संगठन में बदलाव के साथ ही प्रत्याशी चयन  में भी वे पूरी छूट  चाहते थे | जैसी चर्चा है उसके अनुसार प्रशांत की बातें सोनिया जी और उनके बेटे – बेटी को तो रास आईं लेकिन  अधिकतर नेता इससे असहमत थे | निचले स्तर तक पार्टी के संगठन में बदलाव के  सुझाव से आम कार्यकर्ता में ये भय समा गया कि उनका पद न छिन जाए | पार्टी का एक वर्ग इस बात से भी आशंकित था कि चुनावी टिकिट बांटने में भी प्रशांत की चली तब उनके हाथ खाली रह सकते हैं | कांग्रेस हाईकमान के ज्यादातर सदस्य इस बात से भी नाराज थे कि गठबंधन जैसे मामलों में श्री किशोर की सलाह मानी  जाए | कुल मिलाकर ऐसा लग रहा है कि वे  कांग्रेस को बेसहारा मानते हुए उसके सर्वेसर्वा बनना चाह रहे थे | लेकिन  गांधी परिवार की रजामंदी के बाद भी वे सफल नहीं हुए क्योंकि अन्य छत्रपों द्वारा उनकी राह में रोड़े अटकाए जाने लगे | इस सबसे प्रशांत को ये समझ में आ गया कि बतौर पेशेवर उनकी पूछ – परख और सम्मान बना रहेगा किंतु कांग्रेस के सदस्य बन जाने के बाद उनकी दशा घर की मुर्गी दाल बराबर जैसी होकर रह जायेगी | वैसे भी उनमें समायोजन की क्षमता बहुत कम है | नरेंद्र मोदी , नीतीश कुमार , राहुल गांधी और ममता बैनर्जी में से किसी के साथ उनकी पटरी नहीं बैठी तो इसका कारण महत्वाकांक्षी स्वभाव के साथ ही उनका ये अहंकार है कि उनके बलबूते ही चुनाव जीते जाते हैं | और इसलिए पार्टी पर हावी होना उनका अधिकार है | उन्हें लगा था कि चूंकि श्रीमती गांधी अस्वस्थतावश पहले जैसी सक्रिय नहीं रहीं वहीं राहुल और प्रियंका की  अपरिपक्वता और अनुभवहीनता सामने आ चुकी है , इसलिए  वे आसानी से देश  की सबसे पुरानी पार्टी पर कुंडली जमाकर बैठे रहेंगे और उसके हताश – निराश नेता उनके  आभामंडल से प्रभावित होकर उनके इर्द गिर्द मंडराएंगे | लेकिन चुनावी रणनीति के मामले में बेहद कामयाब कहे जाने वाले श्री किशोर ये भूल गए कि चुनाव जीतना और पार्टी चलाना दो अलग विधाएँ हैं |  बीते  कुछ दिनों में उन्होंने कांग्रेस के भीतर ये अवधारणा बिठाने का प्रयास किया   कि उनके पास  कोई राम बाण औषधि है जिसकी वजह से पार्टी बिस्तर पर पड़े रहने की स्थिति से उठकर सीधे युद्ध के मैदान में जाकर  जीत हासिल कर लेगी | लेकिन जल्द ही  उनको ये समझ में आ गया कि सदस्य बनने के बाद उन्हें पार्टी के अनुशासन में रहना होगा जिससे स्वतंत्रता खोने के साथ ही  उनके दामन पर राजनीतिक दल का ठप्पा लग जायेगा | उन्हें इस बात का भय भी सताने लगा कि यदि वे कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं दिलवा सके तब कांग्रेसजन के साथ ही  अन्य पार्टियों द्वारा भी उनका मजाक उड़ाया जावेगा | दरअसल प्रशांत और कांग्रेस दोनों एक दूसरे का उपयोग करना चाह रहे थे | लेकिन उनको जब ये लगा कि वह  इतना आसान नहीं है जितना वे समझ रहे थे तब नजदीकियां अचानक दूरियों  में बदल गईं | कांग्रेस भले ही आज दुरावस्था में हो लेकिन उसका फैलाव पूरे देश में किसी न किसी रूप में है | भले ही वह किसी एक परिवार या नेता को अपना रहनुमा मान ले लेकिन किसी पेशेवर को सर्वेसर्वा मानने की मानसिकता उसके भीतर जन्म नहीं ले सकी | बतौर रणनीतिकार वे श्रीमती गांधी और बाकी के नेताओं को 2024 के आम चुनाव हेतु अपने सुझावों पर अमल करने की सलाह देते तब शायद वे स्वीकार्य हो जाते किन्तु जब पार्टीजनों को लगा कि वे मुखिया बनकर सब कुछ अपने मुताबिक़ चलना चाहते हैं तब विरोध में आवाजें उठने लगीं | असलियत जो भी हो लेकिन प्रशांत का कांग्रेस में आना तो टल गया | अब सवाल ये बच रहता है कि क्या पार्टी उनके सुझाव मानेगी या अपने चिर परिचित घरेलू नुस्खों को  आजमाने का रास्ता चुनेगी | हालांकि समूचे प्रसंग में पार्टी की  नेतृत्व  शून्यता एक बार फिर उजागर हो गई | गांधी  परिवार स्वयं चूंकि प्रशांत को भाव दे रहा था इसलिए प्रारंभ में तो पार्टी जन शांत रहे लेकिन  ज्योंही उनको लगा कि एक पेशेवर आकर उनको हांकेगा त्योंही उनके तेवर उग्र होने लगे | जिसका एहसास होते ही श्री किशोर  ये समझ गये कि इस  मरीज की हालत सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है |  उनके द्वारा 600 पृष्ठों की जो रिपोर्ट वरिष्ट नेताओं को सौंपी गई उस बारे में भी सुनने में आया कि उसके पन्ने पलटने तक की तकलीफ किसी ने नहीं उठाई | इस प्रकार कांग्रेस के पुनरुत्थान का जो प्रयास चर्चा में आया था वह बेमौत मर गया | हालाँकि प्रशांत भी बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का जो दुस्साहस करने जा रहे थे वह अंततः उनके गले का फंदा बनने जा रहा था | जैसे ही उन्हें इसका आभास हुआ  वे अपनी दूकान समेटकर चलते बने | सवाल ये है कि क्या कांग्रेस उनकी रिपोर्ट के आधार पर अपने घर को व्यवस्थित करेगी अथवा पूर्ववत  बनी रहेगी ? जहां तक बात प्रशांत की है तो वे एक सिद्धहस्त व्यवसायी हैं जिनके हर कदम में केवल और केवल उनका स्वार्थ होता है | आज एक पार्टी को छोड़ कल वे दूसरी को जिताने  में लग जाएंगे  | ऐसे में उन पर पूरी तरह भरोसा करना भी आसान नहीं होता | चुनावी रणनीति बनाने  से हटकर जबसे  खुद राजनीति करने लगे तभी से वे शंकास्पद हो गये  | कांग्रेस में एक वर्ग ऐसा भी है जिसे लग रहा था कि वे किसी राजनीतिक दल द्वारा कांग्रेस में सेंध लगाने भेजे गये थे | आज की राजनीति में इस तरह के तरीके  अस्वाभाविक  भी नहीं हैं | वैसे भी उनका अपना कोई सिद्धांत या विचारधारा तो है नहीं  जिसकी वजह से वे एक खूंटे से बंधकर रहें | परस्पर विरोधी विचारधारा के दलों और नेताओं के लिये काम करने में उन्हें न कोई शर्म है न ही संकोच | ऐसे में कांग्रेस के साथ उनकी पटरी न बैठना स्वाभाविक ही था | कुछ हद तक ये कांग्रेस के हित में भी है क्योंकि प्रशांत की हेड मास्टरी से अनेक नेताओं के पार्टी छोड़ने की आशंका थी | हालांकि इससे श्री किशोर की स्थिति भी कम हास्यास्पद नहीं हुई जो कि दूसरे की दूकान पर अपनी नाम पट्टिका लगाने की सोचने लगे थे | 

- रवीन्द्र वाजपेयी


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