Monday 4 April 2022

सामयिक चेतावनी : वरना हमारे हालात भी श्रीलंका जैसे हो जायेंगे


ऐसी खबरें अक्सर भीड़ में खो जाया करती हैं जबकि इनका सम्बन्ध वर्तमान के साथ ही भविष्य से भी होता है | इसी तरह की एक खबर सुर्ख़ियों से दूर रही जो कि मौजूदा हालात में बेहद विचारणीय है | प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केन्द्र सरकार के विभिन्न विभागों के सचिवों की बैठक ली , जो चार घंटे चली | इसमें नए वित्त वर्ष की दृष्टि से विभिन्न विभागों के कामकाज की समीक्षा भी की गई | बैठक में अनेक अधिकारियों ने विभिन्न राज्यों में जारी  लोक - लुभावन योजनाओं के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए चेतावनी दी कि उनकी वित्तीय स्थिति उन घोषणाओं का बोझ उठाने की स्थिति में नहीं है और इस सिलसिले को नहीं रोका जाता तब आने वाले समय में हमारे देश में भी श्रीलंका जैसा आर्थिक संकट उत्पन्न होने का खतरा है | अनेक सचिवों ने हाल ही में संपन्न कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गये वायदों का हवाला देते हुए कहा कि चुनाव जीतने के लिए मुफ्त उपहारों के ऐलान इन  राज्यों की  वित्तीय स्थिति को देखते हुए  आने वाले समय में ऐसा बोझ  होंगे  जिन्हें  उठाने में सरकारों के कंधे झुक जायेंगे | हालाँकि ये पहला अवसर नहीं है जब इस तरह की चिंता जताई गई हो | वित्तीय विशेषज्ञ समय – समय पर  इस बारे में आगाह करते रहे हैं | लेकिन हमारे देश में चुनाव भी  पूरी तरह बाजारवादी व्यवस्था का हिस्सा बन चुके हैं जिनमें मतदाता को उपभोक्ता और चुनाव को डिस्काउंट सेल का रूप दिया जाने लगा है | इस तरीके से  पार्टियां चुनाव जीतने में तो कामयाब हो जाती हैं लेकिन वायदों को पूरा करने के लिए उन्हें जो कर्ज लेना पड़ता है उसकी अदायगी के लिए जनता पर भारी करारोपण किया जाता है | इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण है पेट्रोल और डीजल |  अधिकृत जानकारी के अनुसार देश के विभिन्न राज्यों में इन पर न्यूनतम 45 और अधिकतम 52 फीसदी तक कर लगाया जा रहा है | जबकि जीएसटी में विलासिता की वस्तुओं पर भी अधिकतम 28 फीसदी का प्रावधान है | इसीलिये कोई भी राज्य पेट्रोल – डीजल को जीएसटी के अंतर्गत लाने के लिए राजी नहीं होता | केन्द्रीय सचिवों द्वारा प्रधानमंत्री को जो सलाह दी गई  उससे वे कितने सहमत होते हैं ये तो आने वाला समय ही बताएगा क्योंकि वे स्वयं भी अपनी पार्टी के सबसे बड़े स्टार प्रचारक हैं और केंद्र की सत्ता में आने के बाद उन्होंने भी अनेक ऐसी योजनाएं शुरू कीं जिनकी वजह से भाजपा को जबरदस्त चुनावी फायदा होता है | उ.प्र के हालिया चुनाव में मुफ्त राशन और आवास बड़ा मुद्दा बना रहा क्योंकि कोरोना काल में उत्पन्न विषम परिस्थितियों में जिन करोड़ों लोगों के सामने रोजी – रोटी का संकट आ खड़ा हुआ , उनके भोजन का प्रबंध हो जाने से देश अराजकता से बच गया | जहां तक आवास का प्रश्न है तो वह बेघरबार लोगों की बदहाली दूर कर जीवन स्तर को उठाने के लिए मूलभूत आवश्यकता है | गरीबों को पाँच लाख तक के मुफ्त इलाज जैसी सुविधा भी औचित्यपूर्ण है किन्तु इसके अलावा ऐसी अनेक योजनाएँ हैं जिनसे लोगों का फायदा कम और राजनीतिक दलों का ज्यादा हो रहा है | लेकिन मुफ्त और सस्ती बिजली को लेकर होने वाले चुनावी वायदे सता में आने के बाद गले की फांस बन जाते हैं | केन्द्रीय सचिवों को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि उन्होंने  प्रधानमंत्री के समक्ष इस तरह की बातें कहने का साहस दिखाया वरना आम तौर पर नौकरशाही का रवैया यस सर कहने का होता है | ये चेतावनी ऐसे समय दी गई जब हमारे पड़ोसी देश श्री लंका में आर्थिक आपात्काल की स्थिति बन चुकी है |  विदेशी कर्ज लेकर उसे  अनुत्पादक योजनाओं में खर्च करने के कारण ही इस तरह की स्थितियां बनती हैं | सौभाग्य से अभी भारत में श्रीलंका जैसी नौबत नहीं आई है लेकिन आर्थिक प्रबंधन पर राजनीति का अतिक्रमण इसी तरह बढ़ता रहा तो देर - सवेर वैसा होना असम्भव भी नहीं होगा | ये देखते हुए देश के वरिष्ट नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री को जिस तरह से आगाह किया गया उस पर गम्भीरता के साथ चिंतन किया जाना चाहिए | यद्यपि श्री मोदी इस बारे में बेहद सचेत और व्यवहारिक हैं जिसके लिये उनकी सरकार को आलोचना भी झेलनी पड़ती है । दरअसल किसी भी सरकार को ये  देखना चाहिए कि उनकी आर्थिक नीतियों का दीर्घकालीन असर क्या होगा क्योंकि  उसके द्वारा लिये गए कर्ज की अदायगी अगली सरकार को करनी ही पड़ती है  | समय आ गया है जब पड़ोसी के घर में लगी आग से सतर्क होकर हम अपने घर को उस तरह की आपदा से बचाए रखने का ठोस इंतज़ाम करें | आज देश जिस स्थिति में है वह सतही तौर पर तो संतोषजनक प्रतीत होती है लेकिन विदेशी कर्ज का बोझ चिंतित करने के लिए पर्याप्त है | कोरोना के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से वापसी की वह निश्चित तौर पर उत्साहवर्धक है | नीति आयोग ने भी विकास दर को लेकर राहत का संकेत दिया | वहीं निर्यात में वृद्धि के साथ ही घरेलू मांग और उत्पादन में समुचित वृद्धि से निराशा के काले बादल छंटने में देर नहीं लगेगी | लेकिन भारत में संघीय व्यवस्था होने से राज्यों को अपने आर्थिक नियोजन में काफी हद तक  स्वायत्तता प्राप्त है | इसी के चलते मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए ऐसी योजनाओं का संचालन किया जाता है जिनकी वजह से खजाना खाली होने पर अनाप – शनाप कर लगाकर जनता का शोषण किया जाता  है | इन्हीं सबका परिणाम है कि सरकार को निजीकरण और विनिवेश जैसे कदम उठाने मजबूर होना पड़ रहा है | इस बारे में ये भी ध्यान रखने वाली बात है कि विदेशी पूंजी पर एक हद से ज्यादा   निर्भरता कर्ज के बोझ को असहनीय बना देती है जिसका ताजा उदाहरण श्रीलंका है | विश्व व्यापार संगठन बनने के बाद से समूची दुनिया को जिस तरह बाजार में बदलने की कवायद चली है उसके कारण अनेक विकासशील देशों की आर्थिक स्वतंत्रता खतरे में आ गई है |  ऐसे में भारत को बेहद सावधानी बरतनी होगी क्योंकि हमारे देश की राजनीति भी आर्थिक वास्तविकताओं से दूर वोट बटोरने पर जिस तरह केन्द्रित हो गयी है वह कालान्तर में मुसीबत का कारण बन सकती है |


-रवीन्द्र वाजपेयी

 

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