Friday 8 April 2022

इमरान के पास इतिहास बनाने का मौका था लेकिन वे चूक गए



पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान जिस फजीहत का शिकार हुए उसके लिए वे खुद हे जिम्मेदार हैं | 2018 में उनके सत्ता संभालते  समय भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने औपचारिक बधाई देते हुए समझाइश दी थी कि दोनों देश आपस में लड़ते रहने के बजाय गरीबी के विरुद्ध संघर्ष करें जिससे दोनों तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ सकें | इमरान से ये अपेक्षा वहाँ की जनता को  भी  थी कि वे मुल्क को राजनीतिक अनिश्चितता से निकालकर साफ़ – सुथरा शासन देंगे | लेकिन  नेशनल असेम्बली में पूर्ण बहुमत न होने के कारण उनको सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा का सहारा लेना पड़ा और यही उनके पाँव में बेड़ी साबित हुआ | विदेशों में शिक्षित और आधुनिक जीवनशैली में ढले इमरान से पूरी दुनिया उम्मीद कर रही थी कि वे इस मुल्क में नई हवा का झोका साबित होंगे | उनके शुरुवाती तेवरों से इसकी झलक मिली भी लेकिन धीरे – धीरे वे  फ़ौज और कट्टरपंथियों के चंगुल में फंसकर भारत विरोध के मकड़जाल में उलझकर रह गये | कश्मीर विवाद  को शांतिवार्ता के जरिये सुलझाने की जगह उन्होंने पुराने हुक्मरानों की तरह ही आतंकवादी ताकतों को प्रश्रय देने की मूर्खता कर डाली | ब्रिटेन में लम्बे समय तक रहने के कारण उनसे ये अपेक्षा थी कि वे पाकिस्तान की विदेश नीति को व्यवहारिक धरातल पर उतारकर वैश्विक  समुदाय में एक जिम्मेदार देश के तौर पर उसे स्थापित करेंगे लेकिन तालिबान को बढ़ावा देकर उन्होंने  साबित कर दिया कि उनमें बदलाव का साहस नहीं है | उनके उस कदम से अमेरिका सहित पश्चिम के वे बड़े देश पाकिस्तान से छिटकने लगे जो लम्बे समय तक उसके पालनहार बने रहे | दुष्परिणाम ये हुआ कि उसको मिलने वाली खैरात बंद हो गई | यहाँ तक कि इस्लाम के नाम पर जिन अरब देशों से उसे बेहिसाब मदद मिलती थी वे भी उसके प्रति उपेक्षा भाव रखने लगे  जिससे पाकिस्तान कंगाली की  स्थिति में आ गया | विदेशी कर्ज न चुका पाने के कारण उसको अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने भी काली सूची में डाल दिया | अतीत में अमेरिका और ब्रिटेन उसे युद्ध सामग्री भी दिया करते थे लेकिन इमरान सरकार के दौर में वह सब भी बंद हो गया | चीन अकेला उसका सहारा बना रहा लेकिन धीरे – धीरे उसे भी ये लगने लगा कि वह  उस पर बोझ बनता जा रहा है | जिन सड़क और बंदरगाह परियोजनाओं में चीन ने पाकिस्तान में भारी पूंजी निवेश किया वे भी अधूरी पडी हुई हैं जिसकी वजह से उसे काफी नुकसान हो रहा है | यही नहीं उसे वहां की जनता का विरोध भी झेलना पड़ रहा है | इन सब कारणों से इमरान घरेलू और विदेशी दोनों मोर्चों पर असफल  होने लगे | अंतर्राष्ट्रीय मंचों में  अनेक अवसरों पर उन्हें अपमानजनक स्थिति से भी गुजरना पड़ा | जिस तालिबान को पाकिस्तान ने हर संभव मदद दी वही उस पर हमला करने आमादा है | जब इमरान पूरी तरह कमजोर हो गये तब विपक्ष ने एकजुटता दिखाते हुए उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का दांव चला जिसे शुरू में तो उन्होंने गम्भीरता से नहीं लिया लेकिन जल्द ही  उनको समझ में आ गया कि बाजी हाथ से खिसकती जा रही है और तब उनके द्वारा अपने समर्थकों की भीड़ जमाकर उपद्रव  मचाने जैसा  बचाकानापन दिखाया गया जिसके बाद सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और आईएसआई प्रमुख ने उनको चेतावनी दे डाली कि उस तरह की हरकत न करें अन्यथा वे हस्तक्षेप के लिए बाध्य हो जायेंगे | अतीत में ऐसे हालातों में सेना सत्ता पर काबिज होती रही है किन्तु बाजवा चूँकि इमरान पर दबाव डालकर अपने  सेवा काल में वृद्धि करवा चुके थे इसलिए उन्हें आशंका थी कि  कनिष्ट सैन्य अधिकारी शायद उनकी बात न मानें | जब सेना ने भी टेका लगाने से इंकार कर दिया तब इमरान ने नेशनल असेम्बली के उप सभापति से तकनीकी आधार पर अविश्वास प्रस्ताव खारिज करवाते हुए संसद भंग करवाकर तीन महीने में नया चुनाव कराने का आदेश राष्ट्रपति से जारी करवा दिया | उन्हें लग रहा था कि ऐसा करने से विपक्ष के हौसले पस्त हो जायेंगे लेकिन हुआ उसका उल्टा | मामला सर्वोच्च न्यायालय गया जिसने गत दिवस संसद को बहाल करते हुए 9 अप्रैल को अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के बाद उसी दिन परिणाम घोषित करने का फैसला सुनाकर इमरान का खेल तो बिगाड़ा ही , लगे  हाथ जनरल बाजवा की भी किरकिरी करवा दी जिनके कारण इमरान सत्ता में बने हुए थे | इस घटनाचक्र की सबसे रोचक बात ये रही कि इमरान ने अमेरिका पर ये आरोप लगाया कि वह उन्हें सत्ता से हटाना चाहता है | एक चिट्ठी भी बतौर प्रमाण उन्होंने  प्रस्तुत की | उनका सोचना था कि उस आधार पर वे जनसहानुभूति अर्जित कर लेंगे किन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने उस पर यकीन नहीं किया | उल्लेखनीय है अविश्वास प्रस्ताव ख़ारिज करने के लिए विदेशी षड्यंत्र को ही आधार बनाया गया था | इमरान  यूक्रेन संकट शुरू होते ही रूस जाकर राष्ट्रपति पुतिन को समर्थन दे आये थे | उस कदम का उद्देश्य रूस को भारत का पक्ष लेने से रोकना था | लेकिन वे उसमें विफल रहे  उल्टे अमेरिका की नजरों से पूरी तरह उतर गये | सत्ता हाथ से छिनते देख इमरान ने भारत पर भी निशाने साधे | नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी के छिपकर मिलने जैसा शिगूफा भी छोड़ा किन्तु कुछ काम न आया | और आखिरकार वे अपने ही खोदे गड्ढे में गिरने  के कगार पर पहुँच गये हैं | कल अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की पूरी सम्भावना है | उसके पहले बदहवासी में इमरान कुछ कद उठायें तो आश्चर्य नहीं होगा क्योंकि पाकिस्तान की तासीर में षडयंत्र , राजनीतिक प्रतिशोध और लोकतांत्रिक सत्ता पर सेना का प्रभाव समाया हुआ है | दूसरी बात ये भी  गौरतलब है कि जिन तीन विपक्षी गुटों ने अविश्वास प्रस्ताव के जरिये अपनी एकता दिखाई है वे उसके पारित होने पर भी क्या साथ रहेंगे ? यदि इमरान संसद में हारकर या उसके पूर्व ही पद छोड़ देते हैं तब क्या नवाज शरीफ , आसिफ ज़रदारी और मौलाना फजलुर्र्ह्मान मिलकर सत्ता संभालेंगे या पंजाब , सिंध और सीमान्त इलाकों के बीच वर्चस्व की जंग में राजनीतिक अनिश्चितता के कारण नये चुनाव की नौबत आ जायेगी ? बड़ी बात नहीं मौके का लाभ उठाकर सेना कोई  दांव चल दे | जो भी हो लेकिन ये बात साबित हो गई कि पाकिस्तान में लोकतंत्र होते हुए भी कारगर नहीं रहा | अब तक जनता द्वारा चुने हुए सभी गैर फ़ौजी प्रधानमन्त्री चाहे वे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो रहे हों या  नवाज शरीफ , बेनज़ीर भुट्टो और  इमरान खान , सभी पाकिस्तान को अंदर से खोखला करने में जुटे रहे जिसकी वजह से वहां फ़ौज को सत्ता पर दबाव बनाने का मौका मिलता रहा | साथ ही वे सभी भारत के विरोध को अपनी  सफलता का आधार मानकर कट्टरपंथियों को बढ़ावा देने की गल्ती करते रहे जिसका खामियाजा उन्हें  अलग – अलग तरीके से भुगतना पड़ा | इमरान पाकिस्तान के आधुनिक चेहरे बन सकते थे लेकिन वे भी अपने पूर्ववर्तियों के नक़्शे कदम पर चलते रहे और अंततः उसी अंजाम पर जा पहुंचे | यदि अल्पमत का एहसास होते ही वे पद त्यागकर विपक्ष में आ बैठते तब शायद जनता की सहानुभूति उनके साथ रहती लेकिन आज वे न इधर के रहे न उधर के , वाली स्थिति में पहुंचकर हंसी और निंदा के पात्र बन गये  | 

- रवीन्द्र वाजपेयी

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