Monday 16 August 2021

अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत भारत के लिए खतरे की शुरुवात



अफगानिस्तान अंततः २० साल बाद फिर से तालिबान के कब्जे में चला गया जो इस्लाम को कट्टरता के साथ लागू करने में यकीन रखते हैं | हालांकि ये मुल्क पहले भी उसके कब्जे में रहा है और उस दौर की यातनाएं अफगानी  जनता भूली नहीं है | इसीलिये गत दिवस जैसे ही तालिबान काबुल पर काबिज हुए और राष्ट्रपति – उपराष्ट्रपति ने देश छोड़ा त्योंही हजारों की संख्या में लोग अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जमा होकर  देश से बाहर जाने का प्रयास करने लगे  | हालांकि  तालिबान ने ये आश्वासन दिया था  कि किसी को डरने की जरूरत नहीं है | उनके प्रवक्ता ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा का भरोसा भी दिलाया लेकिन बीती रात काबुल हवाई अड्डे पर बिना बुर्के पहने कुछ महिलाओं को गोली मारे जाने की खबर से ये आशंका मजबूत हो चली है कि तालिबान का रवैया लेशमात्र भी नहीं बदला | राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का  देश छोड़ना  तो समझ में आता है लेकिन आम नागरिक और तमाम बुद्धिजीवी भी वहां से पलायन करने मजबूर हो गये हैं | दिल्ली की जेएनयू में पढ़ रहे अफगानी छात्र भी  वापिस लौटने से डर रहे हैं जबकि उनके वीजा खत्म होने को हैं | ये सब खबरें इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त हैं कि तालिबान की धार्मिकता आतंक की बुनियाद पर टिकी हुई है | हालांकि अमेरिका को ही इसके जन्म के लिए जिम्मेदार माना  जाता है | अतीत में अफगानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत संघ का आधिपत्य भी रहा | दरअसल अस्सी के दशक में वहां नजीबुल्लाह के नेतृत्व में साम्यवादी रुझान वाली  सरकार के विरुद्ध इस्लामी मुजाहिदीन ने संघर्ष छेड़ दिया था  | जब ऐसा लगा कि वे नजीबुल्लाह हुकुमत को हरा देंगे तब १९७९ में सोवियत सेनाएं अफगानिस्तान में घुस आईं और गृहयुद्ध की स्थिति बन गई | जवाब में अमेरिका ने पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीनों को सैन्य प्रशिक्षण तथा हथियार और धन उपलब्ध करवाया  | १० साल चले गृहयुद्ध में लाखों लोगों की मौत हुई | आखिर में १९८९ में सोवियत सेनाएं भी लौट गईं | उसके  बाद १९९२ में मुजाहिदीनों के बढ़ते दबाव के बाद नजीबुल्ल्लाह काबुल स्थित सोवियत दूतावास में शरण लेकर बैठ गये लेकिन उन्हें वहां  से निकालकर मार  डाला गया | और इस तरह अफगानिस्तान में तालिबान हुकूमत का दौर शुरू हुआ | उसने अफगानिस्तान को कट्टर इस्लामी देश बनाने का अभियान चलाते हुए वही सब किया जो शाह पहलवी की सत्ता के पतन के बाद खोमैनी ने ईरान में किया | तालिबान का शासन २००१ तक जारी रहा | लेकिन इस दौरान वैश्विक स्तर पर पनपे इस्लामिक आतंकवाद ने अमेरिका को चुनौती दे डाली | ११ सितम्बर २००१ को न्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो गगन चुम्बी इमारतों को हवाई हमले में ध्वस्त करने का कारनामा अल कायदा नामक  संगठन द्वारा किये जाने के बाद अमेरिका अफगानिस्तान से नाराज हो गया क्योंकि इस संगठन का तालिबान से याराना था और अमेरिका को पता चल चुका था कि अल कायदा का मुखिया ओसामा बिना लादेन अफगानिस्तान में ही छिपा हुआ है | उसके बाद अमरीकी फौजों ने अफगानिस्तान पर हमला करते हुए तालिबान को हुकुमत छोड़ने  के लिए बाध्य कर दिया | उसके बाद से ही  ये  देश एक बार फिर गृहयुद्ध की चपेट में फंस गया | यद्यपि काबुल में अमेरिका समर्थित सरकारें बैठी रहीं और प्रजातंत्र भी  लौटा | उसके बाद वहां विकास का दौर शुरू हुआ जिसमें भारत ने   महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए दर्जनों प्रकल्पों को सफलतापूर्वक पूरा किया | ओसामा को तो अमेरिका ने  अफगान सीमा से सटे पाकिस्तानी क्षेत्र में मार गिराया लेकिन  तालिबान के साथ उसका संघर्ष जारी  रहा |  हालाँकि ये रहस्य आज तक अनसुलझा है कि अमेरिका से २० साल तक लड़कर उसे मैदान छोड़ देने के लिए बाध्य करने में सफल हुए तालिबान को धन , प्रशिक्षण और अस्त्र – शस्त्र कौन देता रहा ? सतही तौर पर तो पाकिस्तान पर शक की सुई घूमती है लेकिन  कई मामलों में तालिबान के साथ उसके भी विवाद हैं | पश्तो भाषा बोलने वाले अनेक सीमावर्ती कबीलाई पाकिस्तानी क्षेत्रों पर तालिबान अघोषित तौर पर कब्जा किये हुए हैं | और फिर पाकिस्तान की अपनी माली हालत भी इतनी अच्छी नहीं है  कि वह तालिबान का खर्च उठा सके | ऐसे में चीन को लेकर ये सोचा जा सकता है कि उसने  तालिबान को सहायता और संरक्षण दिया | बहरहाल काबुल में तालिबान फिर आ बैठे हैं | उनका भारत विरोधी रुख बहुत ही साफ़ है | काबुल पर कब्जा करने के पूर्व ही उनकी तरफ से भारत को सैन्य हस्तक्षेप करने पर अंजाम भुगतने जैसी चेतावनी दिया जाना उनके मन में भरे ज़हर का परिचायक है | वहां कार्यरत भारतीय नगरिकों तो निकाल लिया गया है लेकिन अफगानिस्तान में अनेक हिन्दू और सिख परिवार पीढ़ियों से रह रहे हैं | उनकी सुरक्षा भी भारत  की चिन्ताओं में है | बीते दशक में वहां  किया गया अरबों रूपये का भारतीय निवेश तालिबानी सत्ता के आने के बाद कितना सुरक्षित रह सकेगा ये कह पाना कठिन है | हालाँकि सत्ता हस्तान्तरण के लिए बनी समिति में पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई का प्रमुख बनना भारत के लिए राहत की बात है  लेकिन तालिबान का अतीत और  चरित्र धोखाधड़ी और वहशीपन भरा रहा  है और उस आधार पर ये कहना गलत न होगा कि भारत के लिए एक नया शत्रु खड़ा हो गया है जिसे चीन और पाकिस्तान का खुला समर्थन है | चीन ने तो तालिबान  का समर्थन करने की पूर्व में ही घोषणा कर रखी है | दरअसल अमेरिका के अफगानिस्तान  छोड़ने का सबसे फायदा चीन ही उठाने में सक्षम है क्योंकि रूस सहित सोवियत संघ के पुराने घटकों को तालिबान अपने लिए खतरा प्रतीत होते हैं | अभी तालिबान सरकार को मान्यता देने के बारे में  विश्व बिरादरी असमंजस में है | अमेरिका और उसके समर्थक शायद ही उससे  कूटनीतिक रिश्ते रखें | वहीं इस्लामिक मुल्कों का फैसला भी अभी तक नहीं आया है | हालांकि कतर के दोहा शहर में चली वार्ता में तालिबान के नेताओं ने महिलाओं साहित सभी नागरिकों के सम्मान और मानवाधिकारों की रक्षा करने का वचन दिया है लेकिन वह उस पर कितना कायम रहेगा ये कहना मुश्किल है | भारत के लिए  इस बदलाव से गम्भीर समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं | सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या अफगनिस्तान  बीते २० बरस में  हुए विकास को आगे बढ़ाने की बुद्धिमत्ता दिखाकर अपनी छवि सुधारेगा या फिर वहां शरीया के नाम पर फिर वही खूनी  खेल शुरू हो जाएगा जिसके भय से अफगानी नागरिक वतन छोड़कर भागने  बाध्य हैं | आने वाले कुछ दिनों तक इसीलिये पूरी दुनिया की निगाहें काबुल पर लगी रहेंगी |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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