Tuesday 24 August 2021

सरकारी संपत्तियों की बिक्री पर जनता को भरोसे में लेना भी जरूरी



केंद्र सरकार द्वारा रेलवे और राजमार्गों सहित अन्य विभागों की सरकारी संपत्तियां बेचने और लंबी समयावधि पर लीज ( किराये ) पर देने की घोषणा पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी का ये तंज सामयिक  है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो कहा करते थे कि देश नहीं बिकने दूंगा , किन्तु  उनके राज में सरकारी संपत्तियां  धड़ल्ले से बेची जा रही हैं | विपक्ष के नेता से तो खैर ऐसे विषयों पर इसी तरह की टिप्पणी अपेक्षित होती किन्तु आम जनता के मन में भी ये बात  बैठती जा रही है कि मोदी सरकार बीते सात दशक में जमा की गई पूंजी बेच – बेचकर काम चला रही है , जिसे भारतीय सोच के अनुसार अच्छा अर्थ प्रबन्धन नहीं माना जाता | लेकिन दूसरी तरफ ये भी सही है कि जिस उदारवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था की बुनियाद स्व. पी. वी. नरसिम्हा राव  के शासनकाल में बतौर वित्तमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने रखी थी उसकी आलोचना करने वाली पार्टियों और नेताओं ने भी सत्ता में आने के बाद आर्थिक सुधारों के नाम पर उसी नीति को आगे बढ़ाया | स्व. राजीव गांधी ने देश में लायसेंस राज खत्म करने का जो फैसला लिया , दरअसल वही निजीकरण की दिशा में उठाया गया पहला कदम था | वर्तमान केंद्र सरकार स्वदेशी  नामक जिस भावना से प्रेरित और प्रभावित है उसमें देश का विकास विदेशी पूंजी की बजाय घरेलू संसाधनों से करने पर जोर दिया जाता है | लेकिन मोदी सरकार इस बात पर गर्व करती है कि उसके शासनकाल में देश का विदेशी मुद्रा भंडार नए – नए कीर्तिमान  स्थापित कर रहा है |  जिसका कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेशकों का बढ़ता विश्वास बताया जाता है | भारत के उद्योगपति भी विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उपक्रम लगा रहे  हैं | इसके अलावा भी अनेक बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत में अपनी  इकाइयाँ लगाई हैं | ऑटोमोबाइल , इलेक्ट्रानिक्स और मोबाईल के उत्पादन में इसीलिये देश  काफी आगे निकलता जा रहा है | कोरोना के बाद से चीन के प्रति वैश्विक निवेशकों का मोहभंग होने के कारण भी भारत में विदेशी निवेश आने  की सम्भावना बढ़ रही है | इन सबके बीच भारत सरकार द्वारा अपनी कंपनियों के विनिवेश के साथ ही अचल संपत्ति और  सेवा क्षेत्र का स्वामित्व अथवा संचालन निजी क्षेत्र को सौंपकर विकास कार्यों के लिये धन जुटाने का जो प्रयास किया जा रहा है उसे लेकर तरह – तरह के सवाल उठ रहे हैं  | हालाँकि विनिवेश की प्रक्रिया तो कांग्रेस के शासन में  ही  शुरु कर दी गई थी |  घाटे में चल रहे सरकारी उपक्रमों तथा अनुपयोगी पड़ी अचल संपत्ति से धन जुटाने की तरकीब मूलतः डा. मनमोहन सिंह द्वारा प्रारंभ किये गये आर्थिक सुधारों में सुझाई गई थी लेकिन मोदी सरकार इसके लिए इसलिए आलोचना झेल रही है क्योंकि वह इस बारे में बेझिझक होकर फैसले करते हुए उनको शीघ्रता से लागू करने के प्रयास कर रही है | एयर इण्डिया के अलावा भारत पेट्रोलियम और भारतीय जीवन बीमा निगम जैसे संस्थानों के दरवाजे निजी क्षेत्र के लिए खोलने पर आश्चर्य व्यक्त करने वाले भी कम नहीं हैं | कुछ सरकारी बैंक भी निजी क्षेत्र को देने की तैयारी चल रही है | इसी  बीच गत दिवस श्रीमती सीतारमण द्वारा रेलवे और राजमार्गों सहित अनेक सरकारी संपत्तियों को बेचने अथवा किराए पर देने संबंधी घोषणा करते हुए आलोचकों को नया मुद्दा दे दिया गया | लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि अधिकतर आर्थिक  विशेषज्ञ और उद्योग जगत विनिवेश के जरिये आ रहे निजीकरण से खुश हैं | इसका कारण सरकारी क्षेत्र में आमदनी कम और खर्च ज्यादा की स्थिति है | ऊंचे वेतनमान के बावजूद सरकारी अमला उत्पादकता के मामले में चूँकि बेहतर परिणाम नहीं दे पाता इसीलिये सरकारी उपक्रम सफेद हाथी के तौर पर जाने जाते हैं | निजीकरण की जो प्रक्रिया 1991 से प्रारंभ हुई वह हिचकोले खाते हुए आगे बढ़ी क्योंकि लगातार मिली – जुली सरकारों के कारण  नीतिगत  मतभिन्नता से नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाले हालात बने रहे | 2014 में पूर्ण बहुमत वाली मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद वह बाधा दूर हो गई जिससे विनिवेश और निजीकरण संबंधी निर्णयों में तेजी आई | इस बारे में आलोचना तो सरकार को अपने वैचारिक  परिवार के बीच भी झेलनी पड़ती है लेकिन वह उसे अनसुना करने का दुस्साहस दिखा रही है | ये बात सभी मानेंगे कि सरकारी क्षेत्र का एकाधिकार होने से काम की गति और गुणवत्ता दोनों अपेक्षानुरूप नहीं रहे | इस वजह से विकास  प्रक्रिया के विलम्बित होने से उसकी लागत बढ़ती जाती है | विशेष रूप से अधो संरचना ( इन्फ्रा स्ट्रक्चर ) के कार्य  समय सीमा के भीतर पूर्ण नहीं होने से बहुत नुकसान होता है | हालाँकि निजी क्षेत्र को एकाधिकार सौंप देना भी बुद्धिमत्ता नहीं होगी | अतः सरकार को चाहिए कि वह संतुलन बनाकर काम करे | घाटे की इकाइयों और अनुपयोगी संपत्तियों को बेचकर या किराये पर देकर यदि विकास परियोजनाओं के लिए धन जुटाया जा सकता है तो उसमें बुराई नहीं है लेकिन उसका  सरकारी फिजूलखर्ची में उपयोग किया जाना धोखाधड़ी मानी जायेगी | सरकार द्वारा दिए जा रहे आश्वासनों पर सिरे से अविश्वास करना जल्दबाजी हो सकती है लेकिन उसे भी देश का ये भरोसा दिलाना होगा कि सरकारी संपत्ति के विक्रय , विनिवेश अथवा लीज पर देकर अर्जित किये जाने वाले  धन का उपयोग देश के विकास के  लिए होगा जो भावी पीढ़ियों के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए जरूरी है | इस बारे में सरकार को ये बात ध्यान रखनी होगी कि उसकी आर्थिक नीतियां चाहे कितनी भी अच्छी हों लेकिन उनके फायदे मिलने के पहले ही लोकसभा चुनाव आ जाएंगे और तब उसे  लोगों को संतुष्ट करना का बेहद कठिन होगा  क्योंकि अकेले  प्रधानमन्त्री की ईमानदारी और कर्मठता के बल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता | वरना  2004 में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी और 2014 में डा.मनमोहन सिंह की सरकार को जनता सत्ता से अलग नहीं करती |  

- रवीन्द्र वाजपेयी


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