Monday 14 March 2022

कांग्रेस वैभव से पराभव की ओर : गलतियों को दोहराते रहने का नतीजा



कांग्रेस किसे अपना नेता बनाये ये उसका आंतरिक मामला है किन्तु देश की  सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते वह जनमानस  से इस कदर जुड़ी  र्ही कि उसके बिना कोई भी राजनीतिक विमर्श पूरा नहीं होता | इसीलिये जब नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत  का नारा उछाला तब बहुत सारे उन लोगों को ये नागवार गुजरा , जिनका मानना है कि कांग्रेस इस देश के लिए अवश्यम्भावी है | इसमें दो राय नहीं कि स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व करने के कारण उसकी पहुँच देश के प्रत्येक कोने में थी | लेकिन धीरे – धीरे वह वैभव क्षीण होने लगा और 2014 से वह पराभव का पर्याय बनने लगी | हाल ही में पांच राज्यों के जो  परिणाम आये उनमें सबसे दयनीय स्थिति उसी  की बनी | पंजाब उसके हाथ से निकल गया | लेकिन सबसे  बड़ी बात ये रही कि सर्वाधिक आबादी वाले उ.प्र में वह मात्र 2 सीटों पर लुढ़क गयी | कांग्रेस महासाचिव प्रियंका वाड्रा बीते काफी समय से इस राज्य पर पूरा ध्यान दे रही थीं और प्रत्याशी चयन से  प्रचार तक की पूरी रणनीति उन्हीं ने बनाई थी | उ.प्र में ये पार्टी  का अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन है जिससे ये माना जाने लगा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में वह भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं रह गई है | प. बंगाल में कांग्रेस के शून्य पर आकर टिक जाने के बाद ममता बैनर्जी ने सार्वजनिक तौर पर कह दिया कि राहुल गांधी में अब श्री मोदी का सामना करने की क्षमता नहीं बची है इसलिए विपक्ष का नेतृत्व वे करेंगी | लेकिन उ.प्र के चुनाव परिणाम के बाद तो वे यहाँ  तक बोल गईं कि अब कांग्रेस को तृणमूल में विलीन हो जाना  चाहिए | चौंकाने वाली बात ये है कि इस तंज  के बारे में कांग्रेस के किसी भी नेता या प्रवक्ता में कुछ कहने का साहस नहीं हुआ | वैसे पार्टी  को अपनी हैसियत का अंदाज इसी से लग जाना चाहिए था कि उ.प्र में किसी ने भी उसके साथ गठबंधन करने में रूचि नहीं दिखाई क्योंकि क्षेत्रीय दलों को भी वह  बोझ लगने लगी है | हालिया चुनावी हार के बाद राहुल गांधी ने गलतियों से सीखने जैसी बात  कही थी जिससे  ये कयास लगने भी शुरू हो गये कि संभवतः पार्टी नेतृत्व में बदलाव होगा ताकि भावी चुनौतियों के लिए कमर कसी जा सके | गत दिवस कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के पहले जी - 23 नामक नेताओं के नाराज समूह ने भी इसी आशय की मांग करते हुए मुकुल वासनिक का नाम अध्यक्ष  हेतु उछाल दिया | ये खबर भी तेजी से उड़ी कि सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष का पद त्याग देंगी किन्तु बैठक के पूर्व ही पार्टी प्रवक्ता ने इसका खंडन कर दिया | जैसी जानकारी आई उसके अनुसार बैठक शुरू होते ही श्रीमती गांधी के साथ ही राहुल और प्रियंका ने त्यागपत्र की पेशकश की किन्तु जैसा होता आया है उसे  नामंजूर करते हुए  सोनिया जी को ही संगठन चुनाव होने तक कार्यकारी अध्यक्ष बनाये रखने का फैसला हो गया | बैठक में असंतुष्ट गुट के दो - तीन नेता मौजूद थे लेकिन उनकी आवाज अनसुनी होकर रह गयी | स्मरणीय है 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल ने पार्टी अध्यक्ष का पद त्यागकर आदर्श पेश किया जिसके बाद कई महीनों तक उनकी मान - मनौव्वल चलती रही | उन्होंने यहाँ तक कह दिया था कि उनके परिवार का कोई भी भी व्यक्ति अध्यक्ष पद पर नहीं आएगा | जब गतिरोध नहीं सुलझा तब श्रीमती गांधी को कार्यकारी अध्यक्ष बनाकर तदर्थ व्यवस्था कर दी गई | लेकिन चुनाव करवाने की बजाय राहुल को ही दोबारा अध्यक्ष  बनाये जाने की कवायद की जाने लगी | कल हुई बैठक के समय भी बाहर कार्यकर्ताओं की प्रायोजित भीड़ उनकी ताजपोशी किये जाने की मांग करती रही | राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो बैठक के पहले ही श्री गांधी के पक्ष में बयान  दे डाला | कुल मिलाकर  हार की समीक्षा कर आगामी  चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन को सुधारने की बात तो गौण होकर रह गयी और नेतृत्व परिवर्तन की मांग को ख़ारिज करने पर ही पूरा जोर लगा दिया गया | पार्टी के  भीतरखानों में व्याप्त चर्चा के अनुसार ले - देकर राहुल के सिर पर ही दोबारा ताज रखने की पूरी – पूरी तैयारी हो चुकी है |  सवाल ये है कि  इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है तब इस बारे में फैसला क्यों नहीं किया जाता ? 1996 में कांग्रेस जब केंद्र की सत्ता से बाहर हुई तब स्व. अर्जुन सिंह द्वारा सोनिया गांधी को कमान सौंपने की वकालत करते हुए कहा गया था कि गांधी परिवार ही कांग्रेस को एकजुट रखने वाली ताकत है |  उसके लिए जिस तरह सीताराम केसरी का सामान कांग्रेस कार्यालय से  फिंकवाया गया वह किसी से छिपा नहीं है | उसके बाद जब पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव की मृत्यु हुई तब उनके शव को अंतिम  दर्शन हेतु पार्टी मुख्यालय में  रखने तक से मना कर दिया गया | दरअसल राव साहब से गांधी परिवार की नाराजगी इस बात पर थी कि उन्होंने प्रधानमन्त्री रहते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद भी अपने पास रखकर पार्टी को  गांधी  परिवार के वर्चस्व से बाहर निकलने का  दुस्साहस किया | इसी तरह स्व. केसरी की प्रधानमन्त्री बनने की महत्वाकांक्षा  उनके लिए नुकसानदेह साबित हुई | इसीलिये 2004 में जब सोनिया जी ने प्रधानमन्त्री पद ठुकराया तब किसी जनाधार वाले नेता की बजाय डा. मनमोहन सिंह का राजतिलक करवा दिया जो कभी भी  सत्ता या संगठन पर अपना रुतबा कायम नहीं कर सके | इसीलिये जब 2014 में कांग्रेस सत्ता से हटी तब किसी ने भी मनमोहन सिंह को दोष नहीं  दिया | उनकी सरकार जाने के लिए भ्रष्टाचार के बड़े मामले काफी हद तक जिम्मेदार होने के बाद भी उनके दामन पर दाग नहीं आये |  ये अवधारणा हर किसी के मन में बैठ चुकी थी कि वे  नाममात्र के प्रधानमन्त्री थे और सरकार का संचालन गांधी परिवार रिमोट कंट्रोल से करता था | यही वजह है कि कांग्रेस की  दुर्गति के लिए ज्यादातर लोग गांधी परिवार को ही कसूरवार मानते हैं  | राहुल गांधी ने जब पार्टी की कमान संभाली तब उन्होंने जो कोर ग्रुप बनाया उसमें अनेक  उदीयमान और प्रतिभाशाली युवा नेता थे | लेकिन धीरे – धीरे ये साबित हो गया कि उन्हें स्वतंत्र होकर काम करने की छूट नहीं है और  इसीलिये वह ग्रुप छिन्न – भिन्न होकर रह गया | ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद तो भाजपा में आ गये वहीं सचिन पायलट और मिलिंद देवड़ा भी अपनी उपेक्षा से खिन्न हैं | नए चेहरों को पदोन्नत करने के बजाय परिवार के करीबियों को ही  उपकृत किया जाने लगा जिसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम पंजाब में देखने मिला जहाँ नवजोत सिद्धू के  कहने पर कैप्टन अमरिंदर सिंह को हटा दिया गया | अब वही सिद्धू राहुल  पर उस फैसले की जिम्मेदारी थोप रहे हैं | इसी तरह उ.प्र में तमाम वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा करने का नतीजा ये हुआ कि पार्टी 2 सीटों पर आ गई और उसका मत प्रतिशत भी घटकर छोटी – छोटी जातिवादी स्थानीय स्तर की पार्टियों से भी कम हो गया | इसीलिये   कांग्रेस के भीतर से ही ये आवाजें उठने लगीं कि नेतृत्व में बदलाव हेतु संगठन के चुनाव करवाए जावें | लेकिन जैसा दिख रहा है उसके अनुसार तो अंततः राहुल ही अपनी माँ का स्थान लेंगे और उनकी बहिन भी पार्टी में अपनी मौजूदा जगह बनाए रखेंगी | देखने वाली बात ये है कि पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद आने वाले सालों में विभिन्न राज्यों के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव हेतु विपक्षी दलों का गठबंधन बनाने की चर्चा में कांग्रेस को कोई महत्व नहीं मिल रहा | उलटे आम आदमी पार्टी में मुख्य विपक्षी दल बनने की सम्भवनायें खोजी जाने लगी हैं | सही बात ये है कि जब तक गांधी परिवार इस खुशफहमी को नहीं छोड़ता कि कांग्रेस पर उसका पुश्तैनी अधिकार है तब तक पार्टी की स्थिति में सुधार होना संभव  नहीं होगा | देखने वाली बात ये है कि भाजपा ने अटलबिहारी वाजपेयी का दौर समाप्त होते ही  उनका विकल्प तलाश लिया लेकिन कांग्रेस आज भी पुराने ढर्रे पर चलना चाह रही है जबकि हर चुनाव में करोड़ों नए मतदाता तैयार हो जाते हैं | गत दिवस संपन्न कार्यसमिति की बैठक के दौरान गांधी परिवार के तीनों सदस्यों द्वारा अपने दायित्व से मुक्त होने की इच्छा जताए जाने के बाद भी उन्हें बनाये रखने की अपील महज औचारिकता है | पार्टी के सबसे शक्तिशाली परिवार के विरोध का साहस करने वाले जी – 23 नामक समूह के नेता भी घुमा – फिराकर यही कहते सुने जा सकते हैं कि संगठन के चुनाव करवाए जाएं जिनमें भले ही राहुल को ही फिर से अध्यक्ष बना दिया जावे | पता नहीं पराजय पर चिंतन और गलतियों से सबक लेने का ये कौन सा तरीका है ? कभी – कभी तो ये लगता है कि कांग्रेस मुक्त भारत का जो नारा श्री मोदी ने दिया उसे सच करने का काम कांग्रेस और उसका नेतृत्व खुद ही करने में जुटा हुआ है |

-रवीन्द्र वाजपेयी



 

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