Monday 28 March 2022

बैंक हड़ताल : मांगें उचित हो सकती हैं लेकिन समय गलत है



श्रमिक आन्दोलन में हड़ताल अंतिम हथियार के तौर पर उपयोग की जाती है | अपनी मांगों को लेकर श्रमिक संगठन हल्के और सांकेतिक तरीकों से विरोध कर सरकार पर दबाव बनाते हैं | लेकिन जब बात नहीं बनती तब उन्हें हड़ताल जैसा कदम उठाना पड़ता है | और इसके लिए भी बाकायदा पूर्व सूचना देनी होती है , अन्यथा वह अवैधानिक करार दी जाती है | उस दृष्टि से देश भर के बैंकों में आज और कल दो दिवसीय हड़ताल श्रमिक संगठनों द्वारा पूर्व में दिए जा चुके नोटिस के अंतर्गत हो रही है जो श्रमिक कानूनों के अंतर्गत पूरी तरह से वैध है | बैंकों के कर्मचारी संगठन सरकारी बैंकों के निजीकरण और विलीनीकरण के अलावा इस क्षेत्र में किये जा रहे अन्य नीतिगत बदलावों के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं | आर्थिक सुधारों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा उठाये जा रहे विभिन्न क़दमों को कर्मचारी विरोधी मानकर उन्हें रोकने के लिए भी श्रमिक संगठन सरकार से लगातार मांग करते आ रहे  हैं | इसके पहले भी अनेक बार हड़ताल जैसा कदम उठाया गया किन्तु ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों के बीच सहमति नहीं बन सकी जिसका परिणाम ये दो – दिवसीय हड़ताल है | बैंक कर्मचारियों की मांगें कितनी जायज हैं ये अलग विषय है , वहीं  दूसरी तरफ सरकार का भी अपना पक्ष है  | ऐसे में बातचीत के जरिये  गतिरोध दूर न होने के कारण हड़ताल की नौबत आ गयी | भारत में श्रमिक संगठनों को अपनी मांगों के लिए आन्दोलन करने का पूरा अधिकार है किन्तु इसके साथ उनको इस बात  का ध्यान  भी रखना चाहिए कि उससे आम जनता को तकलीफ न हो |  इसके साथ ही राष्ट्रीय हितों की चिंता करना भी उनका कर्तव्य है | उस दृष्टि से जब देश भर में वित्तीय वर्ष की समाप्ति पर सरकारी और निजी क्षेत्र में वार्षिक लेखा बंदी चल्र रही हो तब साल के अंतिम दिनों में प्रत्यक्ष बैंकिंग सेवाओं को अवरुद्ध कर देना उचित  नहीं कहा जा सकता | भले ही डिजिटल लेन देन के कारण बैंक संबंधी बहुत से काम  घर बैठे होने लगे हैं किन्तु आज भी बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो मोबाइल या इंटरनेट बैंकिंग से अनभिज्ञ होने के कारण  बैंक की शाखा के जरिये ही लेनदेन करते हैं और चैक के जरिये भुगतान लिया और दिया जाता है | ये देखते हुए वित्तीय वर्ष की समाप्ति के ठीक पहले दो दिन बैंक की शाखाओं में काम न होने से अकल्पनीय परेशानी आम उपभोक्ता के साथ सरकारी विभागों को भी होगी | इस बारे में उल्लेखनीय बात ये है कि बीते शनिवार और रविवार को भी नियमित  अवकाश रहने से सोमवार और मंगलवार मिलाकर बैंकों में चार दिन तक काम बंद रहने की स्थिति बन गई | निश्चित रूप से देश भर में बड़ी संख्या में बैंकिंग से जुड़े उपभोक्तओं को इसकी वजह से तरह – तरह की  दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है |  वृद्धावस्था और निराश्रित पेंशन  की तरह ही अन्य शासकीय अनुदानों के लाभार्थी वर्ग  को भी इस हड़ताल से परेशानी होगी | 30 मार्च को बैंकों में कामकाज शुरू होने पर भारी भीड़ उमड़ेगी जिससे ग्राहकों को होने वाली परेशानियों का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है | ये देखते हुए श्रमिक संगठनों द्वारा हड़ताल के समय का जो चयन किया गया वह जनहित में नहीं है | बैंकिंग सेवा अब केवल संपन्न वर्ग तक सीमित नहीं रहते हुए उन लोगों तक भी जा पहुँची है जो गरीबी रेखा से भी  नीचे रहकर जीवन यापन करते हैं | जनधन योजना के अंतर्गत खुले करोड़ों खातेदारों में से अधिकतर ने उसके पहले बैंकों में शायद ही कदम रखा होगा | और भी ऐसे वर्ग हैं जिनके लिए लगातार चार दिनों तक बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध न होना मुसीबत का कारण बन गया है | बहरहाल इस बारे में सरकार को भी पूरी तरह निर्दोष नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह भी ऐसे मामलों में समय पर फैसले लेने की बजाय टालती रहती है | बेहतर होता श्रम और वित्त  मंत्रालय बैंक कर्मचारी संगठनों से बातचीत कर हड़ताल को  इन तिथियों पर टालने के लिए राजी करता | हालाँकि ऐसा होना काफी मुश्किल होता क्योंकि हड़ताल के आयोजक श्रमिक संगठनों में अधिकतर केंद्र सरकार के वैचारिक विरोधी राजनीतिक दलों से सम्बद्ध हैं | ये भी विचारणीय बात है कि जिन मांगों  को लेकर बैंक हड़ताल हो रही है उनसे मिलते जुलते मुद्दे सार्वजनिक क्षेत्र के लगभग सभी उद्यमों के कर्मचारी उठा रहे हैं | मुख्य रूप से जिन बातों पर कर्मचारी वर्ग आंदोलित और आक्रोशित है , वे हैं निजीकरण , विनिवेश और विदेशी पूंजी को अनुमति आदि | लेकिन ये भी देखने में आया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कार्यरत कर्मचारी कहने को ही श्रमिक रह गया है | उसका वेतन , भत्ता एवं अन्य सुविधाएँ तुलनात्मक तौर पर इतनी तो हैं ही कि वह साधारण स्तर से बेहतर ज़िन्दगी जी सकता है | यही वजह है कि आन्दोलन भी अब महज औपचारिकता बनकर रह गये हैं | समय आ गया है जब श्रमिक संगठनों को भी अपने तौर – तरीकों में समयानुकूल सुधार करना चाहिये जिससे उनके आंदोलनों को जनता की सहानुभूति मिले न कि नाराजगी | ये देखते हुए वित्तीय वर्ष के आखिरी दिनों में लगातार चार दिन बैंक बंद रहने से सरकार और जनता के लिए तो परेशानी पैदा हुई ही है लेकिन इसके साथ ही देश की अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी | भविष्य में यदि श्रमिक संगठन अपने आन्दोलन के साथ ही जनता को होने वाली असुविधा का ध्यान नहीं रखेंगे तो फिर उनका प्रभाव और भी कम होता जायेगा | वैसे उन्हें ये भी समझ लेना चाहिए कि निजीकरण , विनिवेश और विदेशी पूंजी अब अर्थव्यवस्था का स्थायी हिस्सा बन चुका है | खुदा न खास्ता अगर साम्यवादी सरकार भी देश में बन जाए तो आज की दुनिया में उसे भी इसी तरह की आर्थिक नीतियों को अपनाना पड़ेगा | चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है |

- रवीन्द्र वाजपेयी


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