Friday 28 June 2019

राहुल के दु:ख में झलक रही चिंता

अपनी दादी स्व. इंदिरा गांधी की राजनीतिक विरासत के दावेदार बने राहुल गांधी के आभामंडल में जबर्दस्त कमी आई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोचते थे कि लोकसभा चुनाव की करारी हार की जिम्मेदारी स्वरूप उनके पद से त्यागपत्र देने के पेशकश करते ही संगठन और सत्ता में बैठे कांग्रेस नेता भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी के नाम पर स्तीफा भेज देंगे जिससे उनको अपनी मर्जी से पार्टी का नया ढांचा तैयार करने में आसानी होगी। लेकिन ऐसा नहीं होने पर उन्होंने इस पर दु:ख व्यक्त किया। बीते कई हफ्तों से श्री गांधी के स्तीफे को लेकर राजनीतिक नाटक चल रहा है। कांग्रेस का एक तबका उनसे बने रहने की अपील कर रहा है। लेकिन उसे व्यापक समर्थन नहीं मिलने से गांधी परिवार भौचक है। राहुल का ये कहना कि अगला अध्यक्ष उनके परिवार से नहीं होगा शुरुवात में अटपटा लगा क्योंकि पार्टी का एक वर्ग प्रियंका वाड्रा को आगे लाने के लिए अरसे से मुखर रहा है। लोकसभा चुनाव के समय जब उन्हें पार्टी महासचिव बनाकर पूर्वी उप्र की कमान सौंपी गई तब ये मान लिया गया कि अस्वस्थतावश सोनिया गांधी की सक्रियता में आई कमी के मद्देनजर उनके परिवार के ही एक सदस्य को उनकी जगह स्थापित करने का दांव चल दिया गया है। प्रियंका के शुरुवाती तेवर देखकर तो ऐसा लगा मानों वे उप्र में मोदी लहर को बेअसर करते हुए कांग्रेस को पुनर्जीवित कर इतिहास रच देंगी लेकिन नतीजों ने साबित कर दिया कि वह ब्रह्मास्त्र भी किसी काम नहीं आया। अब समस्या पार्टी को पूरे देश में दोबारा खड़ा करने की है। दर्जन भर से ज्यादा राज्यों में तो कांग्रेस की एक भी लोकसभा सीट नहीं है। हिन्दी पट्टी में तो उसका सफाया हुआ ही पूर्व और पश्चिमी भारत में भी वह औंधे मुंह गिरी। ऐसे में राहुल के बाद प्रियंका को अध्यक्ष बनाने से गांधी परिवार की रही-सही भी धुल जाती। इसीलिये परिवार से बाहर के अध्यक्ष की बात उछली। लेकिन प्रियंका को पीछे करने में उनके पति के विरूद्ध चल रहे मामलों का भी हाथ है। मोदी सरकार की वापिसी के बाद राबर्ट वाड्रा के विरुद्ध चल रही जांचों में और तेजी आएगी। यदि वे दोषी पाए गये तब कांग्रेस पार्टी के लिए चेहरा छिपाना मुश्किल होगा। सवाल ये उठता है कि आखिरकार कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया किसे जाए क्योंकि भले ही राहुल के अनुसार उनके पारिवार का सदस्य पार्टी का मुखिया नहीं बने लेकिन वे और उनकी माता जी कभी नहीं चाहेंगीं कि पार्टी का नियंत्रण हाथ से निकल जाए। ऐसे में किसी आज्ञाकारी और वफादार को ही राहुल का उत्तराधिकारी बनाये जाने की रणनीति बनाई गई परंतु जैसी उम्मीद थी वैसा नहीं हुआ। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों के अलावा पार्टी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों में से किसी ने भी उनकी तरह हार की जिम्मेदारी लेते हुए पद छोडऩे की पेशकश नहीं की। नई सरकार को कार्यभार संभाले हुए भी एक माह होने आ गया। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यद्यपि दिसम्बर तक पद पर बने रहने की घोषणा कर दी लेकिन जगत प्रकाश नड्डा को कार्यकारी बनाकर अपना बोझ भी हल्का कर दिया। लेकिन कांग्रेस में अभी भी राहुल का स्तीफा एक पहेली बना हुआ है और उसे लेकर पार्टी के भीतर वैसा भूचाल नहीं आया जैसा उसकी परम्परा रही है। ऐसा लगता है श्री गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर अब कांग्रेसजनों के मन में भी संदेह जन्म ले चुका है। उन्हें ये भी समझ में आ रहा है कि गांधी परिवार की चुनाव जिताऊ क्षमता खत्म हो चुकी है। नेहरु-गांधी की विरासत के प्रति पूरी तरह से समर्पित कांग्रेसियों की पीढ़ी भी धीरे-धीरे समाप्ति की ओर है और युवा पीढ़ी को सैद्धांतिक प्रतिबद्धता से ज्यादा अपने भविष्य की चिंता है। गत रात्रि अचानक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य विवेक तन्खा ने राहुल गांधी को संगठन के पुनर्गठन के लिए खुला हाथ देने के नाम पर पार्टी के विधि एवं सूचना का अधिकार विभाग के अध्यक्ष पद से स्तीफा दे दिया। मप्र के मुख्यमंत्री ने भी जानकारी दी कि वे भी हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश कर चुके हैं। उन्होंने ये तंज भी कसा कि शेष नेताओं का तो पता नहीं लेकिन वे राहुल की तरह जिम्मेद्दारी स्वीकार करने के पक्ष में है। लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि श्री तन्खा और श्री नाथ को नैतिकता का एहसास होने में इतना लम्बा समय क्यों लग गया? उल्लेखनीय है श्री तन्खा जबलपुर से लगातार दूसरी बार लोकसभा चुनाव हारे और वह भी चार लाख से भी ज्यादा से। कमलनाथ पर तो कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में ही परोक्ष रूप से छिंदवाडा में अपने पुत्र को जिताने के फेर में प्रदेश की बाकी सीटों की उपेक्षा करने का आरोप लगा। लेकिन उस समय उनकी अंतरात्मा नहीं जागी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी पुत्रमोह को लेकर निशाने पर आये। लेकिन जैसी राहुल ने उम्मीद की थी उस संख्या में त्यागपत्र नहीं आना कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति मोहभंग की स्थिति का संकेत है। श्री तन्खा ने जिस पद से त्यागपत्र दिया वह उतना महतवपूर्ण नहीं है जिसका प्रभाव पड़ता और कमलनाथ ने अभी तक न प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ा और न ही मुख्यमंत्री की गद्दी छोडऩे का इरादा जताया। इससे लगता है इन दोनों को उत्प्रेरक बनने हेतु कहा गया जिससे दूसरे नेता भी शर्म वश वैसा ही करें। श्री तन्खा ने तो लगे हाथ ये भी कहा कि वे पूरी तरह से श्री गांधी के साथ हैं। लेकिन ये बात समझ से परे है कि जब श्री गांधी को अध्यक्ष नहीं रहना और न ही उनके परिवार से कोई उनका उत्तराधिकारी बनेगा तब नई टीम गठित करने का दायित्व अगले अध्यक्ष पर क्यों नहीं छोड़ दिया जाता। लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि अध्यक्ष चाहे कोई भी बने लेकिन वह रहेगा गांधी परिवार का कृपापात्र। इसीलिये श्री तन्खा और श्री नाथ का बयान उनका अपना निर्णय नहीं होकर गांधी परिवार द्वारा अपने वर्चस्व को बचाने के लिए बनाई जा रही रणनीति का हिस्सा लगता है।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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