Tuesday 11 June 2019

ममता भी केजरीवाल जैसे हश्र की ओर बढ़ रहीं

बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगने के सवाल पर तो विवाद हो सकता है लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद भी वहां जिस बड़े पैमाने पर राजनीतिक हिंसा जारी है वह एक गम्भीर मसला है। भाजपा तो ऐसा कह ही रही है लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी ये मान रहे हैं कि ममता बैनर्जी की सरकार कानून व्यवस्था की स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रही। चौंकाने वाली बात ये है कि सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी वहां राष्ट्रपति शासन के पक्ष में नहीं हैं। इसकी वजह शायद ये हो सकती है कि मौजूदा हालात में तृणमूल कांग्रेस को भाजपा से ज्यादा खतरा महसूस हो रहा है। वैसे भी बंगाल में वामपंथी अब मैदानी तौर पर भी बेहद कमजोर हो चले हैं। उनका समर्थक वर्ग पहले ही तृणमूल में चला गया था और अब बचे खुचे को भाजपा में संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। हाल ही में संपन्न लोकसभा चुनाव में ममता बैनर्जी के किले को भाजपा ने जिस तरह से ध्वस्त किया उसके बाद ये सुनिश्चित हो गया है कि आने वाले समय में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा ही राज्य की प्रमुख राजनीतिक ताकतें रहेंगीं। यही वजह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान शुरू हुई हिंसा परिणाम आने के दो हफ्ते बाद भी यथावत चल रही है। इसका दुखदायी पहलू ये है कि इसमें साधारण कार्यकर्ता मारे जा रहे हैं। भाजपा इसके लिए ममता बैनर्जी को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहरा रही है जबकि ममता का आरोप है कि बाहरी तत्वों को बुलाकर भाजपा प्रायोजित हिंसा करवा रही है। राजनीति में इस तरह के आरोप-प्रात्यारोप सामान्य बात है लेकिन दो दलों की प्रतिद्वंदिता में निरीह कार्यकर्ताओं का मारा जाना औचित्यहीन है। निश्चित रूप से बंगाल का वर्तमान राजनीतिक माहौल पूरी तरह से अशांत है जिसका असर वहां के आम नागरिकों पर भी पड़ रहा है। विगत दिवस राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने दिल्ली आकर गृहमंत्री अमित शाह से जो भेंट की उसे बंगाल के राजनीतिक घटनाक्रम से जोड़कर देखा जा रहा है। यद्यपि श्री त्रिपाठी ने उसे मात्र एक सौजन्य भेंट बताया लेकिन जानकार सूत्रों के अनुसार उन्होंने श्री शाह को राज्य में कानून के राज की बिगड़ती स्थिति से अवगत करवाते हुए अपने सुझाव दिए। चूंकि बंगाल विधानसभा का कार्यकाल अभी दो वर्ष बाकी है और मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के पास सदन में पर्याप्त बहुमत भी है इसलिए विधानसभा भंग करने की स्थिति तो कहीं से बनती नहीं और बड़े पैमाने पर दलबदल करवाकर सत्ता पर कब्जा कर लेना भाजपा के लिए भी नामुमकिन नजर आता है। यदि किसी भी तरह से वह ऐसा करने में कामयाब हो जाती है तब भी उसके समक्ष नैतिकता का संकट आ खड़ा होगा तथा अन्य विपक्षी दल उसको कठघरे में खड़ा करने में जुट जायेंगे। यही वजह है कि पार्टी ममता सरकार पर पूरी तरह विफल होने का आरोप लगाने के बाद भी ये कह रही है कि वह सैद्धान्त्तिक त्तौर पर राष्ट्रपति शासन की विरोधी है। लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ तब विधानसभा को निलम्बित रखते हुए राज्यपाल की रिपोर्ट पर राष्ट्रपति शासन लगाने का विकल्प तलाशा जा सकता है जैसा मोदी सरकार अपने पिछले कार्यकाल में जम्मू कश्मीर में कर चुकी है। विधानसभा भंग नहीं होने से विधायकों को वेतन भत्ते तथा अन्य सुविधाएं जारी रहेंगी जिससे वे भी ज्यादा चिल्ला पुकार नहीं करेंगे। राष्ट्रपति शासन में राज्य की सत्ता का संचालन राज्यपाल के हाथों होगा जो कि विशुद्ध भाजपाई मानसिकता के हैं। इस तरह भाजपा ही अप्रत्यक्ष रूप से बंगाल की सरकार का संचालन करेगी। ये दांव दरअसल पानी की मार जैसा होता है जिसमें पिटाई के निशान भी नहीं आते लेकिन पिटने वाले को दर्द भी खूब होता है। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद ममता बैनर्जी भी साधारण विधायक रह जायेंगी। उनके साथ जुड़ा सत्ता नामक आकर्षण ज्योंही समाप्त होगा त्योंही तृणमूल में स्वाभाविक तौर पर भगदड़ मच जायेगी जिसका प्रत्यक्ष लाभ मौजूदा हालात में भाजपा को ही मिलना सुनिश्चित है। हालाँकि जो विरोधी दल ममता के रवैये से त्रस्त हैं वे भी भाजपा को इस मामले में समर्थन शायद ही दें लेकिन बंगाल को हिंसा की आग में धकेलने की गलती सुश्री बैनर्जी जिस तरह दोहराती जा रही हैं उसकी वजह से केंद्र सरकार भी ज्यादा दिनों तक धैर्य नहीं रख सकेगी। चुनाव परिणाम उम्मीद के सर्वथा विपरीत जाने के बाद मुख्यमंत्री को चाहिए था कि वे बीती ताहि बिसार दे वाली उक्ति का पालन करतीं। लेकिन हठधर्मिता के लिए विख्यात ममता पहले से ज्यादा बौखलाहट में नजर आने लगीं। उन्हें भावी खतरों का एहसास हो चुका है। बावजूद उसके वे अभी भी जली हुई रस्सी की तरह से ऐठीं रहीं तब ये मानकर चलना गलत नहीं होगा कि उनमें गलतियों से सीखने की प्रवृत्ति नहीं है। और उनका यही स्वभाव अंतत: उनके राजनीतिक पराभव का कारण बनेगा। अभी भी समय है राजनीतिक द्वेष से उपर उठकर उन्हें केंद्र से अपने सम्बन्ध सामान्य करना चाहिए। चुनाव के दौरान भले ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री मानने से इंकार कर दिया हो लेकिन 23 मई को आया जनादेश बहुत स्पष्ट है। ममता बैनर्जी को अब  भी दीवार पर लिखी इबारत नहीं दिख रही तो उनका जिद्दीपन उन्हें अरविन्द केजरीवाल जैसे हश्र की ओर ले जाए बिना नहीं रहेगा। सत्ता में आने से पहले जुझारूपन, सादगी और ईमानदारी उनकी पहिचान हुआ करती थी। लेकिन बतौर मुख्यमंत्री आज की तारीख में उनके बारे में पूरे देश की क्या राय बनी है ये बताने की जरूरत नहीं है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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