Monday 3 June 2019

मप्र : तबादलों में बाकी जरूरी काम छूटे


मप्र की कमलनाथ सरकार पर तबादलों का भूत सवार है। बीते साढ़े पांच महीने की कर्मपत्री खंगाली जाए तो सबसे ज्यादा सक्रियता तबादला उद्योग को लेकर देखी जा सकती है। सत्ता परिवर्तन के बाद प्रशासनिक ढांचे में बदलाव एक सहज और स्वाभाविक परम्परा है। यद्यपि इसका कुछ भी गुणात्मक लाभ नहीं है लेकिन कहे कोई कुछ भी किन्तु नौकरशाही के मुंह में सियासत का खून लगाने में सत्ताधारी नेताओं का ही हाथ है। इसके लिए प्राथमिक तौर पर कौन दोषी है कहना कठिन है लेकिन अब ये बीमारी संक्रामक होकर केंद्र से राज्यों तक पूरी तरह से फैल चुकी है। गत वर्ष के अंत में 15 साल बाद कमलनाथ के नेतृत्व में कांगे्रस सरकार का गठन हुआ। पदभार सँभालते ही श्री नाथ ने पूरे सरकारी अमले को हिलाकर रख दिया। चूँकि लोकसभा चुनाव करीब थे और आदर्श आचार संहिता लगने वाली थी इसलिए उन्होंने ताबड़तोड़ तबादलों की बौछार लगा दी। 10 दिन में किसानों के कर्जे माफ़  करने का वायदा तो अधर में लटक गया और पूरी ताकत लग गई नौकरशाहों को ताश के पत्तों की तरह फेंटने में। ऐसा लगा मानो कांग्रेस इस पूर्वाग्रह से  ग्रसित हो गई कि अधिकतर सरकारी अधिकारी भाजपा या रास्वसंघ से जुड़े हुए हों। बहरहाल प्रदेश भर में तबादलों की बहार आ गई। कलेक्टर और एसपी रातों-रात बदले गए। आपाधापी ऐसी मची कि एक ही जगह दो अधिकारी तक पदस्थ हो गए। आज तबादला सूची जारी हुई और दूसरे दिन उसमें संशोधन कर दिया गया जिसकी वजह से लेनदेन के आरोप भी नई सरकार पर खुलकर लगने लगे। इस गोरखधंधे में कमलनाथ अकेले शामिल रहे हों ऐसा नहीं है। प्रदेश कांग्रेस के सभी छत्रप मसलन दिग्ग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अरुण यादव, अजय सिंह, विवेक तन्खा सहित लगभग सभी के बारे में कहा गया कि उन्होंने अपने चहेते अधिकारियों को मनमाफिक स्थानों पर तैनात करवा लिया। उद्देश्य मुख्य रूप से लोकसभा चुनाव हेतु रणभूमि सजाना था। हालाँकि कांग्रेस के नेता ये भूल गये कि उसी नौकरशाही के रहते वे विधानसभा चुनाव जीतकर आये थे। उच्च स्तर पर प्रशासनिक बदलाव तो अपेक्षित होता है लेकिन जिला और उससे भी नीचे के तबादलों के लिए यदि राज्य सरकार लोकसभा चुनाव तक प्रतीक्षा कर लेती तब शायद वह अपने चुनावी वायदों को पूरा करने के प्रति ज्यादा बेहतर प्रयास कर सकती थी। प्रशासनिक अमले में व्यापाक पैमाने पर किये गए बदलाव के बावजूद कांग्रेस लोकसभा चुनाव में औंधे मुंह गिरी। कमलनाथ खुद विधानसभा चुनाव कम अंतर से जीते वहीं उनके पुत्र छिंदवाड़ा से लोकसभा की सीट मात्र 38 हजार से जीत सके जिसके कारण उनकी राष्ट्रीय स्तर पर जबर्दस्त किरकिरी हुई। लोकसभा चुनाव के बाद ज्योंही आचार संहिता का बंधन हटा त्योंही राज्य सरकार ने दोबारा तबादलों का सिलसिला शुरू कर दिया। कुछ माह पूर्व हुए प्रशासनिक फेरबदल के बाद इतनी जल्दी फिर वही काम करने का औचित्य समझ से परे है। मुख्यमंत्री और उनके सलाहकारों को याद रखना चाहिए था कि विधानसभा चुनाव में सरकारी अमले ने कांग्रेस का काफी समर्थन किया था जिसका प्रमाण डाक मतपत्रों से मिला लेकिन लोकसभा चुनाव में एकदम उल्टा हुआ और सरकारी कर्मचारियों ने भाजपा को अभूतपूर्व समर्थन देकर पांच महीने पुरानी कमलनाथ सरकार के प्रति अपनी नाराजगी खुलकर व्यक्त कर दी। लोकसभा चुनाव के दौरान भोपाल और दिल्ली में पड़े आयकर छापों के तार भी मप्र के तबादला उद्योग से जोड़कर देखे गए। कहने वाले तो यहाँ तक कहने से बाज नहीं आ रहे कि कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव का खर्च तबादलों के जरिये वसूलने की जो कोशिश की उससे  उसकी मिट्टी और भी ज्यादा पलीत हो गई। कमलनाथ को सुलझा हुआ इंसान और सफल राजनेता मानने वाले भी इस बात पर हैरत में हैं कि उन्होंने  अपनी प्राथमिकताओं को दरकिनार रखते हुए सरकार की पूरी ताकत तबादलों में क्यों खर्च कर दी। हालाँकि इसके लिए उन्हें अकेले कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि कांग्रेस के लगभग सभी छोटे-बड़े नेता 15 साल के राजनीतिक सूखे की क्षतिपूर्ति के लिए तबादला कारोबार में शामिल हो गए बताये जा रहे हैं। अब जबकि लोकसभा चुनाव हो चुके हैं और कांग्रेस को उसमें अकल्पनीय पराजय झेलनी पड़ी तब तो उसे कम से कम ये बात समझ लेनी चाहिए कि प्रशासनिक अमला किसी का सगा नहीं होता। वह तो शासन में बैठी पार्टी और नेताओं के इशारे पर उठक-बैठक करता है बशर्ते वे प्रशासनिक क्षमता से संपन्न हों। एक अधिकारी को दूसरे जिले या विभाग में भेजना प्रशासन की जरूरी प्रथा है लेकिन उसके पीछे केवल राजनीतिक मन्तव्य हों तब वह नुकसानदेह हो जाती है क्योंकि स्थान और पदस्थापना बदलने से न तो किसी अधिकारी की मानसिकता बदलती है और न ही कार्यप्रणाली। उलटे वह अपने को प्रताडि़त मानकर कुंठाग्रसित होकर रह जाता है मप्र सरकार के स्थायित्व को लेकर भी आशंका बनी हुई है। जिन बाहरी विधायकों का समर्थन उसे हासिल है वे कब पाला बदल लें कहना कठिन है। भाजपा भले कहे कुछ भी लेकिन भीतर ही भीतर वह भी सरकार को अस्थिर करने के लिए प्रयासरत है।  ऐसी स्थिति में कमलनाथ को चाहिए कि वे अपनी सरकार को जनहित के कार्यों में लगायें। शिवराज सरकार के ज़माने के घपले-घोटालों की जाँच सामान्य रूप से चलने दी जाये लेकिन उसे सरकार का मुख्य एजेंडा बनाने से वही नुक्सान होगा जो 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार को इंदिरा जी की जाँच में पूरी ताकत लगा देने से उठाना पड़ा था। जैसी चर्चा है भाजपा की रणनीति कमलनाथ सरकार को गिराकर खुद लंगड़ी सरकार बनाने से ज्यादा मध्यावधि चुनाव करवाकर पूर्ण बहुमत लाने की है। ऐसे में कांग्रेस के लिए यही बेहतर रहेगा कि वह अपने चुनावी घोषणापत्र के वायदे जितना जल्दी हो सके पूरा करने पर जोर दे क्योंकि जैसा राजनीतिक माहौल है और लोकसभा चुनाव में भाजपा की जिस शानदार तरीके से वापिसी हुई है उसके मद्देनजर 15 साल बाद हाथ आई प्रदेश की सत्ता कब खिसक जाये कहना कठिन ही है। कमलनाथ को ये नहीं भूलना चाहिए कि उनके घर के भीतर बगावत की चिंगारी कभी भी भड़क सकती है।

- रवीन्द्र वाजपेयी

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