Monday 10 June 2019

गांव-मोहल्ले की बेटी सबकी बेटी के दौर को लौटाना होगा

नन्हीं बच्चियों के साथ हैवानियत के बढ़ते मामले समाज में धीरे-धीरे विकसित होती गई मानसिक विकृति का परिणाम है। इसके लिए हमारे वे साहित्यकार, फिल्मकार, पत्रकार और मनोरंजन के नाम अपसंस्कृति फैला रहे ग्लैमर की दुनिया के कुछ लोग भी जिम्मेदार हैं जो खुलेपन के नाम पर नग्नता को परोसकर खुद को प्रगतिशील और अभिव्यक्ति की आज़ादी का संरक्षक बताते नहीं थकते। भारतीय समाज में बेटियों के प्रति पवित्रता का जो भाव था वह आधुनिकता के फेर में कहां लुप्त हो गया, यह विचारणीय है। जिस समाज में पराई महिलाओं को माँ, बहिन और बेटी की नजर से ही देखा जाता रहा वहां मैडम और मेम जैसे सम्बोधनों ने पूरा नजरिया बदल दिया। कानून तो बेहद सख्त बन गया लेकिन यदि निर्भया कांड के बाद भी हैवानों के हौसले पस्त नहीं हुए तब ये समूचे समाज के लिए चिंता और चिंतन का विषय होना चाहिए क्योंकि कानून केवल अपराधी को दंडित कर सकता है, वह समाज को संस्कारित नहीं बना सकता। सच कहें तो ये सब केवल सरकार के भरोसे होकर बैठ जाने का दुष्परिणाम है। ये मान लेना कि सत्ता में बैठे लोग पूरी तरह से गैर जिम्मेदार या निर्लिप्त हैं, सही नहीं होगा लेकिन ये अवधारणा भी गलत नहीं है कि राजनीति ऐसे विषयों के प्रति उदासीन है। लोकसभा चुनाव में तमाम मुद्दे गरमाये लेकिन एक भी नेता या पार्टी ने अबोध बालिकाओं के साथ दुराचार करने वाले नर पिशाचों को लेकर नहीं कहा कि उनकी सरकार आने पर वे ऐसा कौन सा दंड देंगे जिससे भयभीत होकर और कोई वैसा करने का दुस्साहस नहीं कर सके। पूरे चुनाव अभियान में महिलाओं पर अत्याचार को तो खूब उछाला गया किन्तु वह मुख्य मुद्दों के पीछे ही रहा। यहां तक कि चुनाव लड़ रहीं चर्चित महिला नेत्रियों तक ने दुष्कर्म की बात करने से परहेज किया। ये स्थिति सोचने के लिए बाध्य करती है क्योंकि जिस पश्चिम की संस्कृति और सामाजिक मान्यताओं को एक तबके ने आधुनिकता और प्रगतिशीलता का प्रतीक मान लिया है, वहां के वर्जनाहीन समाज में महिला के सम्मान के प्रति विशेष सतर्कता बरती जाती है। लेकिन हमारे देश में केवल वहां के सामाजिक खुलेपन को स्वीकार कर लिया  गया जिसमें महिला और पुरुष के बीच के रिश्ते बेहद सहज होते हैं। उप्र की एक घटना को लेकर पूरा देश दुखी है। अबोध बालिका के साथ जो हुआ उसे सोचकर ही मन भारी हो उठता है। उस हादसे को अंजाम देने वाले को कड़े से कड़ा दंड देने की मांग भी हमेशा की तरह उछल रही है। लेकिन उस घटना के बाद भी दुष्कर्म के अन्य मामले सामने आ रहे हैं। गत दिवस भोपाल से भी दुष्कर्म के बाद हत्या का प्रकरण सार्वजनिक हुआ। पुलिस और प्रशासन हरकत में आ गए और दो-चार खाकी वाले निलंबित कर दिए गए। लेकिन ये कोई स्थायी इलाज नहीं है। जैसा पूर्व में कहा गया सरकार या कानून की एक सीमा है जिसे वे लांघ नहीं सकते। जब तक समाज के भीतर से ऐसी प्रवृत्तियों के विरुद्ध आवाज नहीं उठती तब तक उनकी पुनरावृत्ति रोक पाना असम्भव ही रहेगा। अपराधी की जाति या धर्म मायने नहीं रखता। समूचे समाज को सामूहिक होकर इस बारे में सोचना और करना पड़ेगा क्योंकि नारी के प्रति श्रद्धा और सम्मान केवल कानून से पैदा नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से परिवारों को ये चाहिए कि वे बच्चों के मन में ऐसे संस्कार अंकुरित करें जिससे वे लड़कियों के प्रति संवेदनशील रहें। आधुनिकता के चलते किशोर और युवा पीढ़ी के बीच अब गुजरे जमाने जैसी बंदिशें लगाना तो असम्भव भी होगा और अव्यवहारिक भी किन्तु उनको विकृत होने बचाने का गम्भीर प्रयास समय की मांग है। ये भी देखने में आया है कि आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग में यौन अपराधों में वृद्धि हुई है। सोशल मीडिया पर उपलब्ध अश्लील सामग्री भी विकृत मानसिकता को बढ़ावा देने में मददगार बन रही है। यहां जरूर सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण है क्योंकि टेलीविजन और सोशल मीडिया के विभिन्न संस्करणों पर अवांछित सामग्री के प्रस्तुतिकरण को वह चाहे तो रोक सकती है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जावे तो यौन आकर्षण और यौन विकृति से उपजी वीभत्स सोच के बीच का जो अंतर है वह कम होते जाने की वजह से भी इस तरह की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी अनुभव की जा रही है। इस दिशा में सरकार को प्रभावी कदम उठाने होंगे। भारतीय समाज में दुष्कर्म और उसके बाद हत्या की घटनाओं पर समाज की सामूहिक चेतना जाग्रत तो होती है लेकिन क्षणिक उन्माद में बदलकर थोड़े समय बाद बुलबुलों की तरह खत्म भी हो जाती है। जरूरत यहां भी सुधार की है जिससे कि दुष्कर्म विरोधी आक्रोश बना रहे। यद्यपि अदालतें आजकल ऐसे मामलों में जल्दी और सख्त फैसला सुनाने लगी हैं किंतु निचली अदालत से सर्वोच्च न्यायालय और फिर राष्ट्रपति के पास दया याचिका के निपटारे तक इतना लंबा समय व्यतीत हो जाता है कि जनमानस से वह घटना लुप्त हो चुकी होती है। समय आ गया है जब दुष्कर्म रोकने को लेकर एक ठोस नीति सरकार बनाये वहीं एक सभ्य समाज की स्थापना के प्रति सामाजिक स्तर पर भी सार्थक उपाय किये जाएं। काम कठिन है लेकिन इसलिए उसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। पीछे लौटना पिछड़ेपन की निशानी मानी जा सकती है किंतु गांव और मोहल्ले की बेटी सबकी बेटी वाला वातावरण पुनस्र्थापित किये बिना दुष्कर्मों को रोकना सम्भव नहीं होगा। समाज को संस्कारों का सृजन करने और उनका पालन करवाने के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझना ही होगा।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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