Monday 14 August 2017

मच्छरों और....से आजादी कब?

आजादी की सालगिरह फिर आ गई। जगह-जगह तिरंगे बिकते नजर आने लगे। छोटा-बड़ा हर हिन्दुस्तानी उस दिन की याद बड़ी ही श्रद्धा के साथ करता है जब 70 साल पूर्व सदियों की गुलामी के बाद ये देश आजाद हुआ था। अंग्रेजी यूनियन जैक को उतारकर जब तिरंगा फहराया गया तब पूरा देश अभूतपूर्व उमंग और उत्साह में भर उठा लेकिन उसी के साथ उम्मीदों के ज्वार भी मन में उठने लगे थे। हर हाथ को काम और हर खेत को पानी का सपना साकार होने की लालसा जाग उठी थी। गांधी के सपनों का रामराज स्थापित किए जाने का भरोसा भी परवान चढ़ चुका था। देखते-देखते एक-दो नहीं पूरे सात दशक अर्थात 70 साल बीत गए। जिस भारत में हर व्यक्ति के पास सायकिल नहीं थी, आज रिक्शे-ठेले वाले के हाथ में महंगा न सही किन्तु सस्ता मोबाईल तो है। भौतिक प्रगति के तमाम मापदंडों पर हमारा देश थोड़ा नहीं वरन् बहुत आगे बढ़ा है जिसके चलते उसके 21वीं सदी में विश्व की महाशक्ति बन जाने की उम्मीद पूरी दुनिया लगा रही है। चाहे आर्थिक मोर्चा हो या सामरिक, परमाणु शक्ति हो या अंतरिक्ष की अनन्त ऊंचाइयों को छूने का पराक्रम, खेल हो या साहित्य-संस्कृति। ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां भारत और भारतवंशियों का डंका न बजता हो। एक जमाने में विदेशी मुद्रा के संकट से जूझने वाले भारत के पास इसका भंडार कीर्तिमान तोड़ रहा है। सारी दुनिया भारत में पूंजी लगाने दौड़ी आ रही है। सपेरों और मदारियों के देश के तौर पर जिस देश को विश्व स्तर पर जाना जाता था वह आज अतुल्य भारत के तौर पर विश्व के संपन्न और शक्तिशाली देशों के समकक्ष खड़ा होने की हैसियत में आ चुका है। लेकिन ये अर्धसत्य ही है। जो कुछ हासिल हुआ बेशक उल्लेखनीय है और उसके लिये तमाम संबंधित लोग अभिनंदन एवं साधुवाद के हकदार हैं किन्तु आजादी की वर्षगाँठ के चार दिन पहले जब खबर आती है कि उ.प्र. के गोरखपुर के सरकारी मेडीकल कॉलेज में मौत डेरा जमाकर बैठ गई तथा देखते-देखते दर्जनों मासूमों सहित अन्य लोगों को उठाकर ले गई तब लगता है कि सारी उपलब्धियां निरर्थक हैं। पहले कहा गया ऑक्सीजन की आपूर्ति ठप्प होने से हादसा हुआ फिर उसे नकार दिया गया। बात इलाज में लापरवाही की उठी तो कहा गया कि ये मंजर तो हर साल इसी मौसम और महीने पैदा होता है। हर साल सैकड़ों अभागे इसी तरह जान गंवा देते हैं किन्तु सरकार नामक व्यवस्था सिवाय अफसोस व्यक्त करने के कुछ नहीं कर पाती। इस बार मौत ने कुछ ज्यादा जल्दी-जल्दी हाथ चलाए तो बवाल मच गया। अब पता चला कि गोरखपुर एवं आसपास का इलाका इंसेफलाइटिस (जापानी बुखार) नामक बीमारी से अभिशप्त है। बीते अनेक दशकों को मिलाकर अब तक दस हजार बच्चे इसकी चपेट में आकर चल बसे। ताजा घटना को समाचार माध्यमों एवं राजनीतिक दलों ने बड़ा मुद्दा बना दिया और वह भी महज इसलिये क्योंकि गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गृहनगर है। आरोप-प्रत्यारोप, सियासी नाटकबाजी का दौर चल पड़ा। पक्ष-विपक्ष के दौरे शुरू हो गये। निलंबन और बर्खास्तगी की औपचारिकताओं का निर्वहन भी होने लगा। लेकिन जिस कारण ये समूचा इलाका जानलेवा जापानी बुखार की चपेट में हर वर्ष आ जाता है उसकी तरफ देखने और उसे दूर करने की फुरसत किसी के पास नहीं है। गत दिवस केन्द्रीय  स्वास्थ्य मंत्री आए और 85 करोड़ का रिसर्च सेंटर खोलने का आश्वासन बांटकर चलते बने। मुख्यमंत्री रो पड़े वहीं विपक्ष रौद्ररूप दिखाने में व्यस्त है किन्तु जैसा बताया जा रहा है गरीबों की बस्तियों सहित गोरखपुर के समीपवर्ती इलाकों में सुअरों एवं मच्छरों के कारण बस्तियों में जापानी बुखार का हमला होता है जिससे निपटने का कोई स्थायी प्रबंध आज तक नहीं किया गया। पाठक सोच रहे होंगे कि आजादी के महापर्व पर कहां से सुअर और मच्छर लेकर बैठ गये परन्तु हमारे देश की सबसे बड़ी बीमारी यही है कि हम आसमान पर उडऩे की हसरत पालते समय ये भूल जाते हैं कि चाहे परिन्दा हो या वायुयान आखिर उसे जमीन पर ही उतरना होता है। कहने का आशय उन मूलभूत सुविधाओं और जरूरतों की अनदेखी की तरफ ध्यान आकर्षित करना है जो हमारी तमाम उपलब्धियों पर प्रश्नचिन्ह लगा देती है। पूरे देश में आवारा सुअरों और मच्छरों की मौजूदगी है। बड़े शहरों में सुअर मान लें न दिखते हों परन्तु बाकी जगह उनकी उन्मुक्त आवाजाही रहती है। रही बात मच्छरों की तो उन पर किसी का बस नहीं रहा। उनके परिवार नियोजन की सारी कोशिशें  दम तोड़ चुकी हैं। ये जानते हुए भी  कि सुअरों और मच्छरों से जापानी बुखार, सहित स्वाईन फ्लू, डेूंगू, जैसी जानलेवा बीमारियां फैलती हैं, इनसे देश को आजादी दिलाने के हिंसक या अहिंसक सारे तरीके बेअसर रहे हैं। गोरखपुर की घटना के ठीक बाद स्वाधीनता दिवस आ जाने से ये विचार मन में उठना स्वाभाविक ही है कि क्या 15 अगस्त 1947 को मिली राजनीतिक आजादी से वे उद्देश्य और अरमान पूरे हो गये जो राष्ट्र निर्माताओं की कल्पना थे। 125 करोड़ के मुल्क में 100-50 मर गये तो क्या फर्क पड़ता है वाली मानसिकता से ऊपर उठकर ये सोचने का समय आ गया है कि क्या सरकारें बनाने वाला मतदाता इतना गया गुजरा है कि सुअरों और मच्छरों के कारण मरने को मजबूर हो जाए और दूसरी तरफ सड़क से उठकर विधानसभा और संसद पहुंचने वालों के लिये एयर एंबुलेंस एवं विदेशों में मुफ्त इलाज सरीखी सुविधाएं दी जाएं। जिसकी मौत आई है वह मरेगा, इस धु्रव सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता परन्तु ये सोचकर लोगों को मरने छोड़ दिया जाय तो ऐसी आजादी किस काम की? गोरखपुर की ताजा तरीन घटना को विधि का विधान मानकर बैठ जाने से मौत की ये सालाना यात्रा इसी तरह चलती रहेगी। 85 करोड़ का रिसर्च सेंटर कब बनेगा और क्या करेगा ये भी फिलहाल सोचना बेकार है। यदि उ.प्र. और केन्द्र सरकार वाकई कुछ करने के प्रति ईमानदार है तो उसे सुअरों और मच्छरों से देश की जनता को मुक्ति दिलाने का अभियान युद्धस्तर पर छेड़ देना चाहिए। जिस देश में बायपास सर्जरी, किडनी प्रत्यारोपण एवं कैंसर का इलाज होने लगा हो उसमें सैकड़ों लोग हर वर्ष जापानी बुखार, स्वाईन फ्लू अथवा डेंगू से मर जाएं ये डूब मरने वाली बात नहीं तो और क्या है ? आजादी की सालगिरह के बारे में सोचने की फुरसत जिन लोगों को मिले उन्हें इस दिशा में भी सोचना चाहिए कि परमाणु शक्ति संपन्न हमारा ये महान देश आवारा सुअरों एवं सर्वव्यापी मच्छरों के आतंक से कब आजाद होगा ?

-रवीन्द्र वाजपेयी

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