Thursday 10 August 2017

आरक्षण अगर मिल भी जाए तो क्या है

भारत छोड़ो आंदोलन की शुरूवात 75 साल पूर्व मुंबई में हुई थी। इसलिये जब गत दिवस इस महानगर में भगवा टोपी और झंडे लिये लाखों लोग सड़कों पर दिखे तब सहसा लगा कि उस महान घटना की स्मृति को पुनर्जीवित करने के लिये उमड़ा जनसैलाब है परन्तु जल्दी ही ये स्पष्ट हो गया कि इसका मकसद महाराष्ट्र की ताकतवर एवं संपन्न मानी जाने वाली मराठा जाति के लिये आरक्षण की मांग हेतु राज्य सरकार पर दबाव बनाना था। उधर मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस ने भी बिना देर किये एक समिति बना दी तथा मराठा समुदाय के लिये कई अरब रुपये का पैकेज घोषित कर दिया। जिस तरह हरियाणा के जाट और गुजरात के पाटीदार समुदाय द्वारा आरक्षण की मांग का औचित्य गले नहीं उतरता करीब-करीब वही स्थिति महाराष्ट्र में मराठाओं की है जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक लिहाज से काफी ताकतवर माने जाते हैं। इस बारे में आँकड़े भी सामने आ चुके हैं परन्तु इसके बाद भी ये वर्ग आरक्षण के लिये दबाव बनाता रहा है। विगत लोकसभा और विधानसभा चुनाव के पूर्व भी मराठा समुदाय ने आंदोलन किया था। उन्हें राजनीतिक दलों ने चुनाव घोषणा पत्र के जरिये तत्संबंधी आश्वासन भी दिये परन्तु अब तक उनके पूरा नहीं होने के कारण मराठाओं ने एक बार फिर राज्य सरकार को अपने इरादों और ताकत का एहसास करवाने हेतु मुंबई की सड़कों पर घंटों रैली निकाली। मराठा जाति को आरक्षण की कितनी जरूरत है, इस पर बहस हो सकती है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खींची गई लक्षमण रेखा को लांघकर भी क्या उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल किया जा सकता है ये भी बड़ा सवाल है। इस आंदोलन को शरद पवॉर और शिवसेना दोनों का भीतरी समर्थन बताया जा रहा है किन्तु लाख टके का प्रश्न ये है कि आरक्षण प्राप्त जातियों को मिल रही सुविधाओं से उनकी कितनी प्रगति हुई? आजादी के बाद अनु.जाति और जनजाति के लिये आरक्षण नामक व्यवस्था की गई थी जो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद अन्य पिछड़ी जातियों तक फैला दी गई। इसी के बाद से जाति की राजनीति ने सिर उठा लिया और स्वयं को दलित और आदिवासी कहने में संकोच करने वाले भी सीना तानकर खुद को पिछड़ी जाति का कहने लग गये। जहां तक आरक्षण के फायदों की बात है तो उसका सबसे बड़ा लाभ है सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु मिलने वाला कोटा। लेकिन जिस तरह सरकारी नौकरियां सिमट रही हैं तथा शिक्षा का निजीकरण होता जा रहा है उसके बाद से आरक्षण भी अब रामबाण नहीं रहा। अपने खजाने का भार घटाने हेतु सरकार विभिन्न सेवाओं की आऊट सोर्सिंग करती जा रही है। संविदा नियुक्ति नामक फार्मूले के चलते भी आधे-अधूरे पारिश्रमिक पर काम करवाया जा रहा है। रक्षा उत्पादन सरीखे संवेदनशील क्षेत्र तक में निजी क्षेत्र की आमद हो गई है। देश के सबसे बड़े सार्वजनिक उद्यम रेलवे की तमाम सेवाएं तेजी से निजी क्षेत्र को स्थानांतरित की जा रही है। इसके कारणों का विश्लेषण अलग विषय है किंतु उदारीकरण नामक नई सोच ने सरकारों की संवेदनशीलता को जिस तरह प्रभावित किया है उसके चलते आरक्षण नामक व्यवस्था अपने रास्ते से भटक चुकी है। प्रारंभ में भले ही इसका उद्देश्य विषमता मिटाना रहा हो परन्तु कालांतर में ये वोट बैंक की सियासत में उलझकर रह गया। मंडल की दुकान चलाने वालों ने नित नई जातियों और उपजातियों को सियासी लाभ हेतु आरक्षण नामक रेवड़ी बांटकर उपकृत किया परन्तु 2014 के लोकसभा और 2017 के उ.प्र. विधानसभा चुनाव ने सिद्ध कर दिया कि महज जातिगत समीकरणों पर चुनाव नहीं जीते जा सकते। दरअसल आरक्षण प्राप्त जातियों की स्थिति भारतीय रेल की साधारण श्रेणी के अनारक्षित डिब्बे सरीखी होकर रह गई है जिसमें पहले से ठसाठस लोग भरे रहने  पर भी हर स्टेशन पर और यात्री घुसते आते हैं। मराठा आंदोलन से फणनवीस सरकार कैसे निपटेगी ये वही जाने किन्तु अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल होने के लिये हर दृष्टि से संपन्न वर्ग द्वारा बनाया जाने वाला दबाव हवा में लाठी भांजने सरीखा है। भावनाओं को भड़काकर भीड़ एकत्र करने वाले आरक्षणवादियों को गंभीरता से ये सोचना चाहिये कि यदि राजनीतिक मजबूरीवश सरकार उनकी मांग को पूरा या आंशिक मान भी ले तब भी उससे हासिल क्या होगा? यदि जाति और आरक्षण ही सत्ता दिलवाने की गारंटी होते तो मुलायम सिंह और मायावती सिंहासन से उतरकर सड़क पर नहीं आये होते। स्व. गुरुदत्त की एक कालजयी फिल्म प्यासा के अंत में नायक द्वारा गाये गये गीत की का मुखड़ा था- ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या हैं। साहिर द्वारा रचित उक्त पंक्ति को मौजूदा संदर्भ में इस तरह व्यक्त किया जा सकता है कि ये आरक्षण अगर मिल भी जाए तो क्या है?

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