Thursday 31 August 2017

भरोसा कायम किन्तु संतोष उम्मीद से कम

नोटबंदी का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया। रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि 1000 और 500 के जो नोट बंद किये गये थे उनमें से 99 प्रतिशत वापिस आ गये। अभी सहकारी बैंकों में जमा पुराने नोट आने बाकी है जिनसे हो सकता है आंकड़ा 100 फीसदी को छू जाये। पुराने करेंसी नोटों का वापिस आ जाना कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती यदि मोदी सरकार ने नोटबंदी का कारण कालेधन की उगाही न बताया होता। ऐसा अनुमान था कि तकरीबन 25 प्रतिशत नोट वापिस नहीं आयेंगे जिससे कालेधन के रूप में चल रही समानान्तर अर्थव्यवस्था दम तोड़ देगी लेकिन नोट वापसी के लिये जो कदम उठाये गये वे अव्वल तो अपर्याप्त थे और फिर बैंकों में हुए भ्रष्टाचार ने भी काले को सफेद करने में काफी मदद कर दी। पेट्रोल पम्पों, अस्पतालों आदि को दी गई छूट का भी गलत फायदा उठाया गया। दबाव में आई सरकार हड़बड़ाहट में गल्तियां करती चली गई जिससे उसके हिस्से में गालियां आईं वहीं कालेधन को बैंकों में जमा कराने का खेल चलता रहा। इसे लेकर रिजर्व बैंक द्वारा साधी गई चुप्पी ने भी सरकार की नीति और नीयत पर संदेह करने वालों को अवसर दिया। कितने नोट रिजर्व बैंक में आये इसकी जानकारी देने में जिस तरह की टालमटोली की जाती रही उससे संदेह और भी गहराता गया। बहरहाल गत दिवस रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में नोटबंदी संबंधी तमाम जानकारियां सार्वजनिक कर दीं तब विपक्ष को ये कहने का अवसर एक बार फिर मिल गया कि नोटबंदी का निर्णय मूर्खतापूर्ण था तथा वह कालेधन का पता लगाने में पूरी तरह नाकाम रहा। यदि ये मान लें कि जो 1 प्रतिशत नोट वापिस नहीं आये उनका मूल्य 16500 करोड़ था तब भी उक्त निर्णय घाटे का सौदा साबित हो गया क्योंकि नये नोटों की छपाई पर ही तकरीबन उतना या उससे ज्यादा व्यय हो गया, आम जनता त्रस्त हुई और नगदी की कमी ने चौतरफा मंदी का आलम पैदा कर दिया। खेत से लेकर कारखाने तक में श्रमिक बेरोजगार हो गये। उत्पादन घटने से विकास दर घटी वहीं सबसे बड़ा नुकसान हुआ आर्थिक अनिश्चितता के रूप में। पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम ने गत दिवस जो कटाक्ष किये वे सतही तौर पर काफी सही लगते हैं। अन्य आलोचनाएं भी काफी व्यावहारिक है परन्तु वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सरकार का पक्ष रखते हुए जो बातें कहीं उनका भी संज्ञान लिया जाना चाहिये। मसलन बैंकों में जमा हुए नोटों को पूरी तरह से सफेद धन मान लेना सही नहीं है। जन-धन योजना में खुले खातों में अचानक जमा की गई बड़ी रकमों की निकासी पर रोक लगाकर सरकार ने काले धन का पता लगाने का जो निर्णय लिया उसके नतीजे अभी आने शेष हैं। इसी तरह जिन खातों में बड़ी राशि जमा की गई उनसे पूछताछ करने पर मिल रही जानकारी भी कालेधन तक पहुंचने में मददगार हो रही है। आयकर एवं प्रवर्तन निदेशालय ने बीते एक वर्ष में जो ताबड़तोड़ कार्रवाई की उसका भी असर पड़ा है। नगदी लेन-देन में भी अभूतपूर्व कमी आई जिसकी वजह से कालेधन का चलन कुछ हद तक तो रूका। कैशलेस अर्थव्यवस्था का सपना भले ही पूरी तरह साकार नहीं हो सका हो परन्तु ये स्वीकार करना गलत नहीं है कि नोटबंदी के बाद कार्ड चैक या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफर का चलन तेजी से बढ़ा है। नगदी में खरीदी की सीमा घटाने से भी कालेधन से खरीदी करने वालों के हौसले ठंडे पड़ गये। जमीन-जायजाद के व्यवसाय में सबसे ज्यादा काला धन प्रयुक्त होता था। इस कारोबार में आई ठंडक ये साबित करने के लिये पर्याप्त है कि बाजार में कालेधन की आवक जावक पर असर पड़ा है। रही कसर पूरी कर दी जीएसटी ने। एक साल के भीतर नोटबंदी और फिर जीएसटी को लागू किये जाने का कारोबारी जगत में जो विरोध हुआ उसकी प्रमुख वजह कालेधन से व्यापार करने में आई अड़चनें ही हैं। कपड़ा व्यापार को ही लें तो ये बात बाहर आई है कि करमुक्त होने के कारण इस व्यवसाय में आधा लेन-देन कालेधन से होता था। नोटबंदी के बाद भले ही इधर-उधर से व्यवस्था बनाकर लोगों ने कालाधन बैंकों में जमा करवा दिया परन्तु इसे व्यवसाय में उपयोग करना आसान चूंकि नहीं रहा इसीलिये आयकर दाताओं की संख्या में जहां वृद्धि देखी गई वहीं प्रत्यक्ष करों से होने वाली आय भी बढ़ी। उस आधार पर वित्तमंत्री श्री जेटली का ये कहना सही है कि भले ही नोटबंदी के बाद 99 प्रतिशत प्रतिबंधित नोट बैंकों में लौट आएं हों परन्तु उससे ये निष्कर्ष निकालना सही नहीं होगा कि ऐसा होने पर पूरा का पूरा काला धन वैध हो गया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच साधारण नागरिक बेहद असमंजस में है। हर समझदार व्यक्ति को ये देखकर तो खुशी होती है कि सरकार का खजाना लबालब हो रहा है तथा वह कर चोरी करने वालों की गर्दन में फंदा कसने में जुटी है परन्तु इस सबसे उसे कोई सीधा फायदा नहीं हो रहा। विकास कार्यों में आई तेजी से इंकार नहीं किया जा सकता। अर्थव्यवस्था की सेहत सुधारने के प्रयासों की सदाशयता पर भी संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि मोदी सरकार ने राजकोषीय घाटे को जिस स्तर तक कम किया वह सराहनीय है। यदि बाजार में महंगाई कम हुई तो उसके पीछे नगदी की उपलब्धता घटना बड़ी वजह थी किन्तु जीएसटी की ऊंची दरें आने वाले दिनों में आम जनता के कंधों का बोझ बढ़ा सकती है ये आशंका भी प्रबल है। वित्तमंत्री आश्वस्त कर चुके हैं कि जीएसटी से सरकार की राजस्व वसूली आशानुरूप हुई तब उसकी दरों में कमी की जा सकती है। यदि वे इस बारे में ईमानदार रहे तब जरूर ये माना जाएगा कि सरकार का उद्देश्य जनता की भलाई है वरना पेट्रोल-डीजल में मुनाफाखोरी के परिप्रेक्ष्य में सरकार की नीयत में खोट देखना गलत नहीं होगा। भले ही प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के तमाम नेता चिल्ला-चिल्लाकर कहें कि उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है तथा देशहित में कड़े निर्णय ले रहे हैं किन्तु ये भी उतना ही सच है कि आम नागरिक मोदी सरकार की नीतियों की दिशा को सही मानने के बाद भी ये नहीं कह पा रहा कि इनसे उसे सीधा फायदा हो सका है। भले ही सरकार की वित्तीय स्थिति में जबर्दस्त सुधार हो रहा हो तथा वह इस आय का उपयोग रक्षा सौदों एवं इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास पर कर रही हो, नोटबंदी और जीएसटी से नंबर दो का कारोबार करने वालों पर पाबंदी लगी या फिर आतंकियों की फंडिंग रुकी हो किन्तु आम जनता को इसका सीधा लाभ महसूस नहीं हो रहा। प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री दोनों को ये अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये कि अब मूल्य और शेयर बाजार के सूचकांक से ज्यादा आम जनता की प्रसन्नता का स्तर (हैप्पीनेस इंडेक्स) महत्वपूर्ण है और ये कहने में कोई बुराई नहीं है कि फिलहाल जो माहौल है उसमें मोदी सरकार के प्रति भरोसा भले ही कायम हो किन्तु जिस संतोष की उम्मीद थी वह अपेक्षा से काफी कम है।

-रवींद्र वाजपेयी

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