Saturday 19 August 2017

विरासत की रक्षा : बेकार की कवायद

जद (यू) के वरिष्ठ नेता शरद यादव एक ऐसे राष्ट्रीय नेता हैं जिनका उनके गृह राज्य म.प्र. में धेले भर का प्रभाव नहीं है। जबलपुर में 1975 का लोकसभा उप चुनाव जीतकर पहली बार वे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आए थे। 77 की जनता लहर में वे फिर जीते लेकिन जनता पार्टी टूटने के बाद 80 के चुनाव में उनकी जमानत जप्त हो गई जिसके उपरांत जबलपुर को अलविदा कह गये। जोड़-तोड़ एवं जुगाड़ तकनीक के चलते वे किसी न किसी राष्ट्रीय नेता से चिपके रहे। मधु लिभये, मधु दंडवते चौ. चरण सिंह, देवीलाल, चन्द्रशेखर सभी को उन्होंने बतौर सीढ़ी इस्तेमाल किया। कभी राज्यसभा तो कभी लोकसभा में आने की जुगते वे भिड़ा लिया करते हैं। जनता दल बनने पर मुलायम सिह की कृपा से बदायूं की यादव बहुल सीट से जीते और फिर लालू के अच्छे दिनों में बिहार की मधेपुरा सीट पर डेरा जमाया। फिर उन्हें छोड़ नीतिश कुमार की संगत की। 2014 में पप्पू यादव ने उन्हें मधेपुरा में शिकस्त दी तो राज्यसभा में आ गये। नीतिश के संग रहते पार्टी के अध्यक्ष बने रहे तथा भाजपा और एनडीए के साथ जुड़े रहे। 2013 में नीतिश अलग हुए तो शरद जी भी उनके साथ निकल लिये। 2015 में बिहार में लालू और कांग्रेस के साथ महागठबंधन बना और गैर भाजपा सरकार भी बनी लेकिन बीते कुछ महीनों खासतौर पर उ.प्र. विधानसभा चुनाव में भाजपा की अभूतपूर्व विजय ने नीतिश को पाला बदलने हेतु प्रेरित किया और बीते माह वे बिना श्री यादव से पूछे-बताए मोदी मंडली में आ गए। इससे भन्नाएं शरद भाई ने अलग रास्ता अपनाया तथा भाजपा विरोधी जमावड़े के प्रायोजक बनने की तरफ कदम बढ़ाते हुए गत दिवस साझा विरासत बचाने के नाम पर तमाम विरोधी नेताओं को जमा कर लिया। मोदी मैजिक से हतप्रभ और हलाकान इन विपक्षी नेताओं को 2019 की चिंता इस कदर सता रही है कि वे भाजपा के विरोध में एक टांग पर या सिर के बल खड़े होने को फट से तैयार हो जाते हैं। इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसका पूरे देश तो क्या किसी राज्य विशेष में जबर्दस्त प्रभाव हो। सिवाय ममता बैनर्जी के बाकी भाजपा विरोधी नेता धीरे-धीरे हॉशिये पर खिसकते जा रहे हंै। उन्हें ये डर सता रहा है कि वे आगामी चुनाव में किसी सदन के सदस्य बन पायेंगे या नहीं। राष्ट्रपति चुनाव के पहले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी विपक्षी एकता की चौसर बिछाई थी किंतु वह प्रयास भी मेंढक तौलने जैसा साबित हुआ। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों पदों पर भाजपा ने अपने प्रत्याशी केवल जितवाए अपितु विपक्षी मतों में सेंध लगाने में भी सफलता हासिल कर ली। उस दृष्टि से शरद यादव ने जिस तथाकथित विरासत को बचाने का प्रपंच रचा है वह व्यर्थ की कवायद है। स्वयं श्री यादव अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। चूंकि राहुल गांधी पूरी तरह नाकामयाब साबित हो चुके हैं वहीं अखिलेश यादव के पराभव तथा नीतिश कुमार के पलायन के बाद विपक्ष पूरी तरह चेहरा विहीन है। ममता बैनर्जी पर दाँव लगाने का खतरा भी कोई नहीं उठाना चाहेगा। ये सब देखते हुए शरद भाई का प्रयास कोई रंग दिखाएगा, कह पाना कठिन है।
-रवीन्द्र वाजपेयी

No comments:

Post a Comment