Monday 28 August 2017

रैली विपक्षी एकता की गारंटी नहीं

गत दिवस पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में 'देश बचाओ-भाजपा भगाओ'रैली के जरिये लालू प्रसाद यादव ने जो शक्ति प्रदर्शन किया उसमें काफी भीड़ थी और उसे फ्लॉप कह देना सच से आँखें फेर लेने समान होगा। ये रैली तो लालू-नीतिश के बीच दरार उत्पन्न होने के पहले से ही प्रस्तावित थी। महागठबंधन से नीतिश कुमार के अलग हो जाने के बाद लगा था कि लालू शायद उसे स्थगित कर देंगे किंतु शरद यादव के साथ आने से उनकी टूटती उम्मीदों को सहारा मिल गया। यद्यपि सोनिया गांधी, राहुल गांधी, मायावती और मुलायम सिंह के नहीं आने से मंच काफी सूना सा लगा फिर भी ये कहना गलत नहीं होगा कि लालू ने अपने पुत्र तेजस्वी को अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का उद्देश्य इस रैली से पूरा कर लिया। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी की शिरकत ने पूरे आयोजन का महत्व जरूर बढ़ाया किन्तु 20 दलों के जिस महागठबंधन की रचना कर भाजपा को 2019 में हराने की महत्वाकांक्षा लालू और उनके साथ जमा हुए नेता संजो रहे हैं उसमें एक नहीं कई पेंच हैं। मंच पर ममता के साथ वामपंथी भी मौजूद थे। बंगाल में इन दोनों का साथ आना करीब-करीब असंभव है। इसी तरह उ.प्र. में मायावती और अखिलेश की सियासी दोस्ती होना बेहद कठिन है। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है तो उ.प्र., बिहार, बंगाल जैसे राज्यों में वह चौथे स्थान पर लुढ़क गई है । वैसे सच्चाई ये है कि लालू ने ये शक्ति प्रदर्शन बिहार में अपनी राजनीतिक जमीन बचाए रखने के लिये किया था। उन्हें ये अंदाज कतई नहीं था कि नीतिश इतनी जल्दी झटका देकर चलते बनेंगे। रही बात शरद यादव की तो वे तो लालू से भी कमजोर स्थिति में हैं। नीतिश ने जिस तरह पहले जद(यू) अध्यक्ष पद से उन्हें हटाया उसके बाद ही वे सशंकित हो गये थे। अब जब उन्होंने पूरी तरह भाजपा का दामन थामकर नरेन्द्र मोदी को अपना नेता मान लिया तब शरद को हॉशिये पर चले जाने का डर सताने लगा। लालू के साथ जुडऩा एक तरह से उनकी मजबूरी बन गई थी क्योंकि शरद जिस तरह की जुगाड़ तकनीक में माहिर हैं उसके लिये वे भाजपा के वर्तमान नेतृत्व के साथ काम नहीं कर सकते थे। लालू के पास भी वर्तमान में दिल्ली की राजनीति करने हेतु कोई दमदार शख्सियत नहीं है सो उन्होंने भी बेहिचक शरद को महत्व देना शुरू कर दिया। कल की रैली के बाद विपक्ष का महागठबंधन बनेगा ये उम्मीद करना जल्दबाजी होगी किन्तु लालू प्रसाद ने तेजस्वी को बतौर विकल्प बिहार में स्थापित करने में कामयाबी जरूर हासिल कर ली। उन्हें एक बात समझ में आ चुकी है कि चारा सहित अन्य घोटालों में उनके जेल जाने की आशंका बढ़ गई है। आय से ज्यादा संपत्ति के मामले में भी उनके पूरे परिवार पर तलवार लटक रही है। ऐसे में यदि वे शान्त रहेंगे तब उनके लिये बचाव करना कठिन होगा। रैली के पहले पटना में लगे सैकड़ों होर्डिंग पर तेजस्वी को बाहुबली और उनकी बहिन मीसा को झाँसी की रानी के तौर पर पेश किया गया। रैली को सर्वदलीय रूप देने के बाद भी पूरी प्रचार सामग्री पर लालू एवं उनके कुनबे की तस्वीर ही थीं। अन्य पार्टियों और नेताओं को इस पर एतराज भी नहीं हुआ क्योंकि रैली को सफल बनाने हेतु तन, मन, धन सबमें लालू एवं उनके परिवार ने ही योगदान दिया। शरद यादव ने जद (यू) की चेतावनी को नजरंदाज कर रैली में शरीक होकर नीतिश से विरोध को बगावत में बदल दिया। अब जद (यू) उनकी राज्यसभा सदस्यता खत्म करने की रणनीति बना रहा है। राज्यसभा के सभापति पद पर वेंकैया नायडू के आ जाने से नीतिश कुमार शरद को संसद से बाहर करने में सफल भी हो सकते हैं। सांसदी चले जाने के बाद वे लालू के लिये उपयोगी बनेंगे या बोझ ये काफी बड़ा सवाल है क्योंकि जैसी कि खबरें उड़ रही थीं उनके अनुसार जद(यू) के  20 विधायक टूटकर शरद के साथ आना थे किन्तु रैली में ऐसा नहीं दिखाई दिया। जद (यू) पर कब्जा करने की कोशिश भी शरद की शायद ही कामयाब हो। 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें लालू, शरद, ममता, अखिलेश  और वामपंथी सभी महत्वहीन हैं। यहां तक कि दलितों की नेता मायावती भी कुछ खास नहीं कर सकेंगी। उस लिहाज से 'देश बचाओ-भाजपा भगाओÓ परिवार की राजनीति को बिहार में जिंदा रखने के लिये लालू हाथ-पाँव मारते रहेंगे किन्तु उनकी सफलता भी इस बात पर निर्भर करेगी कि चारा घोटाला एवं अन्य आरोपों में चल रही जांच और उसके बाद होने वाली कार्रवाई किस अंजाम तक पहुंचती हैं। ये कहने में कुछ भी बेजा नहीं होगा कि लालू को यदि दोबारा जेल जाना पड़ गया तब उनके परिवार की सियासत का हश्र भी बाबा राम-रहीम के डेरे की तरह होने में देर नहीं लगेगी। मुलायम सिंह ने 2012 में जो गलती अखिलेश को अपना उत्तराधिकारी बनाकर की थी वही लालू कर बैठे हैं। तेजस्वी फिलहाल तो काफी तेजी में हैं किन्तु उनका समूचा परिवार जिस तरह थोक के भाव सामने आया है उसके चलते उ.प्र. जैसे यादवी संघर्ष की पुनरावृत्ति की संभावना से इंकार नहंी किया जा सकता और फिर मुलायम सिंह का विपक्षी महागठबंधन से इंकार कर देना भी मायने रखता है। इसमें कोई शक नहीं कि कल की रैली शक्ति प्रदर्शन की दृष्टि से प्रभावशाली थी किन्तु इसके प्रभावस्वरूप लालू राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष को लामबंद करने में कामयाब हो जायेंगे ये उम्मीद फिलहाल तो हवा-हवाई ही है। लालू फिलहाल आक्रमण ही सर्वोत्तम सुरक्षा की नीति पर चल रहे हैं।

- रवींद्र वाजपेयी

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