Wednesday 23 August 2017

खुली हवा के लिये खिड़कियां खुलीं

सर्वोच्च न्यायालय में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ से तीन तलाक का समर्थन करते हुए अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने दलील दी थी कि 1400 वर्षों से चली आ रही परंपरा से छेड़छाड़ करने का अधिकार किसी को नहीं है लेकिन पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 3-2 के बहुमत से इतिहास को आधार मानने से मना कर दिया और उस दृष्टि से तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित कर देने संबंधी निर्णय पूरी तरह से ऐतिहासिक कहा जाना चाहिये। यदि ये कोई सरकारी फरमान होता तब इसे धर्म-निरपेक्षता के लिये खतरा बताकर आसमान सिर पर उठा लिया गया होता परन्तु तीन तलाक से पीडि़त पाँच मुस्लिम महिलाओं की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को समानता के अधिकार का उल्लंघन मानते हुए इस कारण तत्काल प्रभाव से रद्द कर दिया कि पवित्र कुरान एवं उसके आधार पर बनी शरीयत नामक आचार संहिता में एक साथ तीन तलाक कहकर शादी तोड़ देने का कोई प्रावधान वर्णित नहीं है। इस्लाम के जानकार भी मानते हैं कि तलाक को किसी  भी तरह से अच्छी चीज नहीं माना गया किन्तु पति-पत्नी का साथ रहना संभव न रहे तब उसके लिये तलाक की जो प्रक्रिया निर्धारित की गई वह काफी संतुलित है। एक बार में तीन तलाक को इस्लाम की शुरुवात से लागू परंपरा मानने का तर्क इसी कारण गले नहीं उतरता। बहरहाल सर्वोच्च न्यायालय ने जो हिम्मत दिखाई उसने भारत की करोड़ों मुस्लिम महिलाओं की सामाजिक और पारिवारिक स्थिति में जबर्दस्त सुधार कर दिया है। भले ही पुरुषों के वर्चस्व वाली इस कौम में मौलवी इतनी आसानी से अपना आधिपत्य खत्म नहीं होने देंगे किन्तु ये विश्वास करने में कुछ भी गलत नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय ने तीन तलाक को असंवैधानिक करार देकर मुस्लिम समाज में खुली हवा आने के लिये खिड़कियां खोल दी हैं। इस प्रथा को लेकर जिस तरह के किस्से सुनाई देने लगे थे वेे मुस्लिम महिलाओं की दयनीय स्थिति को प्रमाणित करने वाले थे। क्षणिक आवेश में आकर तीन बार तलाक, तलाक, तलाक कह देने मात्र से विवाह विच्छेद हो जाने की प्रथा को ढोयें जाने की वजह से अनगिनत मुस्लिम महिलाओं की जिंदगी नर्क बनकर रह गई। उनके बच्चों के भविष्य पर भी अंधेरा छा गया। लंबे समय से इसके विरुद्ध आवाज उठ रही थी परन्तु कभी शरीयत तो कभी पर्सनल लॉ के नाम पर उसे दबाया जाता रहा। 1985 में शाह बानो के गुजारा भत्ता मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए साहसिक फैसले ने मुस्लिम समाज में सुधार का जो रास्ता खोला था उसे राजीव गांधी ने संसद की मदद से बंद कर दिया। यदि उस वक्त वे मुस्लिम मतों का लालच छोड़कर शाह बानो के हक में खड़े होते तो मुस्लिम समाज की दकियानूसी सोच में बदलाव का सिलसिला शुरू हो सकता था परन्तु तुष्टीकरण आड़े आ गया। बड़ी बात नहीं जो कांग्रेस कल के फैसले का स्वागत कर रही है वही आज सत्ता में होती तो फिर शाह बानो प्रकरण दोहराते हुए सर्वोच्च अदालत के फैसले को रद्दी की टोकरी में फेंक देने जैसी कोशिशें शुरू हो जातीं। यद्यपि याचिकाओं को प्रस्तुत करने में न तो भाजपा का कोई हाथ था न ही प्रधानमंत्री नरेन्द्रमोदी का लेकिन ये तो मानना ही पड़ेगा कि केन्द्र सरकार ने अदालत में हिम्मत के साथ याचिकाकर्ता मुस्लिम महिलाओं का समर्थन करते हुए तीन तलाक की प्रथा को खत्म करने पर सहमति देकर करोड़ों मुस्लिम महिलाओं का दिल जीत लिया। अखंड भारत के हिस्से रहे पाकिस्तान और बांग्लादेश इस्लामी देश होने के बाद भी तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा चुके थे। उस आधार पर भारत के जो मुस्लिम धर्मगुरू तीन तलाक को शरीयत और कुरान का हिस्सा बताकर उसकी तरफदारी करते रहे उन्होंने कभी पाकिस्तान और बांग्लादेश के मौलवियों को इस्लाम विरोधी नहीं कहा। ये बात पूरी तरह सही  है कि कानून को धार्मिक परंपराओं एवं नियमों में छेड़छाड़ का कोई अधिकार नहीं होना चाहिये परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कुरान शरीफ और शरीयत नामक व्यवस्था में किसी भी तरह की दखलंदाजी किए बिना जिस साफ सुथरे तरीके से अपना काम किया उसी की वजह से फैसले की स्वीकार्यता सर्वव्यापी हो गई। मुस्लिम धर्मगुरूओं सहित इस्लाम के कट्टरपंथी भाष्यकारों को चाहिये कि वे न्यायालयीन फैसले को सम्मान पूर्वक स्वीकार करें क्योंकि इसमें कुरान अथवा शरीयत के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है। इससे भी बढ़कर बेहतर होगा कि मुस्लिम समाज महिलाओं को धार्मिक बेडिय़ों में बांधकर रखने की मानसिकता को बदलने की तरफ बढ़े। धर्म एक व्यवस्था है जिसमें समयानुसार सुधार तथा बदलाव होते रहना चाहिये। इस्लाम जिस वैचारिक भटकाव के शिकंजे में फंसा है उससे नहीं निकला तो उसके भीतर नई-नई विकृतियां पैदा होंगी जिनसे उसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजे फैसले को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखें तो उसने मुस्लिम समाज को एक बड़े कलंक से मुक्ति दिला दी। इसे लेकर ये भय पाल लेना निरी मूर्खता है कि इसके आधार पर केन्द्र सरकार मुसलमानों के धार्मिक रीति रिवाजों को तहस-नहस कर देगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में पर्सनल लॉ बोर्ड को अपनी 10 सितंबर की प्रस्तावित बैठक  में खुद होकर उन सुधारों की घोषणा करनी चाहिए जिनके अभाव में मुस्लिम समुदाय के भीतर तरह-तरह की बुराइयां पनप चुकी हैं। इसके पहले कि मुसलमानों के बीच से ही प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध आवाजें उठें मुस्लिम नेताओं और धर्म गुरूओं को अडिय़लपन छोड़कर समय के साथ चलने की मानसिकता बना लेनी चाहिये। वरना जिस तरह तीन तलाक को सर्वोच्च न्यायालय ने चटका दिया वैसी ही स्थिति और मामलों में भी बने बिना नहीं रहेगी।

-रवीन्द्र वाजपेयी

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