Thursday 24 August 2017

वोट रूपी फसल जाति नामक जमीन पर लहलहाती है

आरक्षण के पीछे जो मूल भावना थी आजादी के बाद वह कभी की लुप्त हो चुकी। धीरे-धीरे ये वोट बैंक की राजनीति में उलझकर रह गया। अनु. जाति/जनजाति से शुरू होते-होते बात ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) तक जा पहुंची किन्तु अब उसमें भी और पिछड़ों की तलाश कर कोटे के भीतर कोटे की बात चल पड़ी है जिस हेतु आयोग बैठेगा जो 12 सप्ताह में रिपोर्ट सौंपेगा। उसके लिये सर्वोच्च न्यायालय के एक पुराने फैसले को आधार माना गया है। पिछड़ों में भी और पिछड़ों की खोज के पीछे मकसद वही सामाजिक विषमता है जिसे दूर करने के लिये राष्ट्र निर्माताओं ने आरक्षण नामक राम बाण औषधि ढूंढकर निकाली थी किन्तु एक तरफ तो ओबीसी के बीच भी नये वंचित वर्ग की तलाश हेतु हाथ-पांव मारे जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ क्रीमी लेयर की सीमा 6 से 8 लाख कर दी गई जो अपने आप में विरोधाभास है। केन्द्र सरकार द्वारा गत दिवस लिये गये फैसले उन पिछड़ी जातियों के लिये तो खुशखबरी हंै जिन्हें मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने का समुचित लाभ अब तक नहीं मिल सका किन्तु मुलायम, लालू और शरद यादव सहित उन नेताओं के लिये ये एक खतरे की घंटी भी है जिन्होंने मंडल की समूची खैरात अपने कुनबे में समेट ली थी। मोदी सरकार को अगला लोकसभा चुनाव लडऩे के लिये तकरीबन पौने दो साल का समय बचा है। 2014 में मिली ऐतिहासिक विजय में गैर यादव पिछड़ी जातियों का जबर्दस्त योगदान भाजपा भूली नहीं है। उ.प्र. के पिछले चुनाव में उसने न सिर्फ गैर यादव पिछड़ी जातियों किन्तु दलितों के बीच भी अपनी पैठ बनाई। उसे और मजबूत करने के लिए पार्टी के नेतृत्व ने जो रणनीति बनाई है उसके तहत ओबीसी श्रेणी में शामिल जातियों में भी ऊंच-नीच का भेद कर यादव एवं उस जैसी अन्य पिछड़ी जातियों के वर्चस्व को तोडऩा ही लक्ष्य है। बिहार में नीतिश कुमार के साथ जुड़ जाने से अन्य पिछड़ी जातियों के बीच भाजपा के घुसने की गुंजाईश बढ़ गई है। यही वजह है कि ओबीसी कोटे के भीतर कोटे की व्यवस्था पर 12 हफ्ते के भीतर फैसला करवाने की जल्दबाजी की जा रही है। हरियाणा, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा आंन्ध्र सहित कुछ अन्य राज्यों में कुछ प्रभावशाली जातियां ओबीसी आरक्षण हेतु जिस तरह से दबाव बनाए हुए हैं उसको देखते हुए प्रधानमंत्री और भाजपा दोनों अब कांटे से कांटा निकालने की नीति पर बढ़ चले हैं। इस काम में रास्वसंघ भी परदे के पीछे से पूरी मदद कर रहा है जिसने सामाजिक समरसता के अभियान के अन्तर्गत दलित वर्ग में योजनाबद्ध घुसपैठ करते हुए बसपा के एकाधिकार को काफी हद तक कम कर दिया है। अब तक जिस भाजपा को ब्राम्हण, बनिया और राजपूतों की पार्टी  माना जाता रहा उसने भी ये समझ लिया कि बिना ओबीसी और दलितों को साथ लिये सत्ता में स्थायी रूप से बने रहना मुमकिन नहीं होगा। संयोगवश प्रधानमंत्री स्वयं पिछड़ी जाति के हैं और वे आरक्षण के लिए जान  देने की हद तक जाने की बात भी कह चुके हैं। केंद्र सरकार द्वारा ओबीसी की क्रीमीलेयर बढ़ाकर 8 लाख कर देने तथा कोटे के भीतर कोटे की मुहिम को तेज करने का फैसला बहुत सोच-समझकर लिया गया है। इसमें एक तरफ तो पिछड़ी जातियों में भी पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों को आरक्षण का समुचित लाभ दिलाने की मंशा है वहीं दूसरी तरफ मुलायम-लालू और अब उनके वारिस बने अखिलेश और तेजस्वी को पिछड़ी जातियों का एक छत्र नेता बनाने से रोकने का दांव है। ओबीसी जातियों की एकता भी कोटे के भीतर कोटे की व्यवस्था से कमजोर होंगी लेकिन इन सबसे हटकर यक्ष प्रश्न ये है कि आजादी के 70 बरस बाद भी भारत में जाति मिटाना तो दूर रहा उपजातियों के रूप में नये-नये दबाव समूह उत्पन्न किये जा रहे हैं। अनु. जाति/जनजाति को तो संविधान बनते ही आरक्षण मिल गया था वहीं ओबीसी को इसकी सुविधा मिले हुए भी एक चौथाई सदी बीत गई। इस दौरान इन जातियों का सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान तनिक भी नहीं हुआ, ये कहना तो सच्चाई से आंखें चुराना है परन्तु इसके नेताओं ने तो अपनी कई पीढिय़ों का इंतजाम कर लिया, ये कहना रत्ती भर भी गलत नहीं है। शायद यही वजह है कि जाति के भीतर से उपजाति के तौर व कोटे के भीतर कोटे की खोज की जा रही है। आरक्षण नामक व्यवस्था का भी चतुर चालाक लोगों ने कैसा लाभ उठाया उसका उदाहरण छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जाति संबंधी विवाद है। केंद्र सरकार ने गत दिवस क्रीमीलेयर तथा कोटे में कोटे संबंधी जो निर्णय लिये उनका उद्देश्य पिछड़ी जातियों का कल्याण कम और चुनावी फायदा उठाना ज्यादा है। मोदी सरकार की नीतियों से देश भर का व्यापारी वर्ग काफी नाराज है जिसे भाजपा का परंपरागत मतदाता माना जाता रहा है परन्तु उ.प्र. विधानसभा चुनाव में नोटबंदी के विरूद्ध किया गया प्रचार जिस तरह से फुस्स हुआ उसके बाद भाजपा को भी ये समझ में आ गया है कि वोट रूपी फसल जाति नामक जमीन पर ही लहलहाती है। प्रधानमंत्री अपनी सरकार के इस कदम को सबका साथ-सबका विकास नारे से जोड़कर सही ठहरा सकते हैं किन्तु इससे इतना साफ हो गया कि आरक्षण नामक व्यवस्था को खत्म करना तो दूर कम करने तक का साहस कोई राजनीतिक नेता या पार्टी नहीं उठा सकती। अन्य पार्टियां प्रधानमंत्री और भाजपा पर जाति की राजनीति करने का आरोप चाहकर भी नहीं लगा पायेंगी क्योंकि वे सब भी इसी के सहारे जिंदा हैं। तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं की सहानुभूति और समर्थन हासिल करने के बाद पिछड़ी जातियों में अपनी पकड़ और मजबूत करने के लिये भाजपा ने जो चक्रव्यूह बनाया है उसे तोडऩे वाला कोई योद्धा विपक्ष में फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा। लालू यादव की 27 अगस्त की रैली से मायावती और मुलायम सिंह के किनारा करने की खबरों ने विपक्षी एकता के गुब्बारे को फूलने से पहले ही पिचका दिया है वहीं कांग्रेस का भविष्य कहे जाने वाले राहुल गांधी भी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर रहे। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व स्थिति को समझते हुए जिस चतुराई से पाँसे फेंक रहा है उसका विपक्ष के पास कोई जवाब नहीं है और इसके लिये वह स्वयं उत्तरदायी है क्योंकि भाजपा अब जिन राजनीतिक हथियारों का खुलकर उपयोग कर रही है वे विपक्षी दलों के शस्त्रागार से ही उसे प्राप्त हुए हैं।

-वींद्र वाजपेयी

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